Monday 30 September 2013

हिंदी दिवस पर ‘पखवारा’ के आयोजन का कोई औचित्य है, या बस यूं ही चलता रहेगा यह सिलसिला?

हिंदी दिवस पर ‘पखवारा’ का आयोजन के औचित्य पर. पखवारा शायद इसलिए कि १४ सितम्बर को हम लोग ‘हिंदी दिवस’ मनाते हैं, इसकी शुरुआत अगर १ सितम्बर से मान ले तो पखवारा पूरा करने की रश्म अदायगी हो जायेगी. ऐसा ही लगभग हर क्षेत्रों में होता है. पर इस अवसर पर जागरण जंक्सन द्वारा आयोजित इस प्रतियोगिता के लिए ‘पूरा मास’ निर्धारित करना, पखवारे शब्द को द्विगुणित कर देता है. महीने भर चली इस प्रतियोगिता में महान विद्वानों, कद्रदानों, विचारकों, चिंतकों, विदुषियों, रचनाकारों, के असीम ज्ञान का पिटारा तो खुला ही, घर के चाहरदीवारी में सीमित, पर ज्ञान-विज्ञानं, विचार, अनुभव के स्रोत गृहणियों, माताओं, बहनों को भी इस मंच पर अपने विचार साझा करने का सुअवसर प्राप्त हुआ; तो इस आयोजन से उत्साहित नव किशोर वर्ग भी अपनी लेखनी की धार को चमकाने से बाज नहीं आए.
वास्तव में ‘जागरण जंक्सन’ का यह आयोजन अपने आप में अनोखा है, जिसमे हर वर्ग के लोगों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया; अपने ज्ञान-विचार बांटे और ग्रहण भी किये. बहुत ही अच्छा आदान–प्रदान हुआ. जहाँ हमने ब्लोगिंग के श्रीगणेश और उसके प्रचार-प्रसार के बारे में जाना, वहीं हमने हिंदी के महत्व और उसके व्यापकता को भी भी पहचाना. यहीं हमें मालूम हुआ कि हिंदी में ब्लॉग लिखने वालों की संख्या २५,००० से ऊपर है. और हिंदी भाषा बोलने-समझने वाले लोगों की संख्या ८५ करोड़ से ऊपर है.
हिंदी की जननी संस्कृत जिसे देव वाणी या देव भाषा का दर्जा प्राप्त है, जिसमे चारो वेदों, ६ शास्त्रों, १८ पुराणों और ३०० से ऊपर उपनिषदों में हमारे ऋषि मुनियों के शोध में जीवन का रहस्य समाहित है तो वहीं समस्त ज्ञान को दो पंक्तियों में समाहित करने की भी क्षमता है – यथा
अष्टदशु पुराणेषु ब्यासस्य वचनम द्वयं,
परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीड़नम.
जहाँ कर्मण्ये वा अधिकारस्ते, मा फलेषु न कदाचन और ‘जैसा कर्म वैसा फल’ जैसी पंक्तियों में समस्त गीता ज्ञान को व्यक्त करने की क्षमता हो, उस जननी की दुहिता हिंदी के बारे में जितना भी बखान किया जाय कम है.
जिस भाषा और संस्कृति में पृथ्वी, नदी, प्रकृति आदि को माता; तो सूर्य, पहाड़, जलागार को पिता सदृश मानने की परम्परा हो उस मातृभाषा को अगर कहा जाय कि हमने एक पखवारे में समेट लिया और हिंदी पखवारा मनाकर हमने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर दी तो घोर कृतघ्नता होगी.
हमारा तो एक ही सूत्र है ‘चरैवेति’ ‘चरैवेति’ बढ़ते चलो.
रुकने का नाम मौत है चलना है जिदगी…
पर्कृति के स्रोत झरने, नदियाँ, हवा, रोशनी, कालचक्र …ये क्या रुके रहते हैं? नहीं न … अरे, ये तो किसी का इंतज़ार भी नहीं करते… चलते जाते है. अगर हरिवंश राय बच्चन के शब्दों में कहें तो – “भक्त तो आत्मसमर्पण करके वह विस्मृति ढूढता है, जो हर्ष और विषाद से परे है. बादल अपना अपनापन अगणित बूंदों में, बूंदे जलधारों में, जलधारा नदियों में और नदियाँ अपना अपनापन समुद्र में खोने को आतुर है. पृथ्वी अपना अपनापन अगणित वृक्ष-बेली-पौधों में, पौधे पुष्प और कलियों में, पुष्प सौरभ समीर में. पतंगा दीपक आगे, दीपक दिवस के आगे, दिवस रजनी के आगे रजनी शशि तारक आदि सूर्य के आगे अर्पण करने को आतुर-व्याकुल है. इसी तरह गायक, वादक, चित्रकार, शिल्पकार, कवि सभी अपना अपनापन ही व्यक्त करते हैं, जो किसी के ह्रदय को छू सके! “चरम अभिलाषा आत्मानंद नहीं, आत्म समर्पण है”.
हमारी मातृभाषा हिंदी में वही आत्मानंद है, जो किसी समय सीमा क इन्तजार नहीं करता. हमारी भाषा में रामायण, हनुमान चालीसा, जन गण मन, वन्दे मातरम आदि ऐसे धरोहर है; जिन्हें अनपढ़ भी कंठस्थ कर लेता है, उसे हृदयंगम कर लेता है. बालक नचिकेता अगर धर्मराज को हराने का सामर्थ्य रखता है तो सती सावित्री अपने पति को यमराज से वापस मांग लेने की हठ में विजयी हो जाती है. उस हिंदी-संस्कृति को हम किसी समय सीमा में आबद्ध कर ले यह संभव नही है.
मेरे मित्र, आप अंग्रेजी ही नहीं अन्य भाषाओँ के भी विद्वान बन जाओ, ये हमारे लिए गर्व की बात होगी, पर अपने मूल स्रोत हिंदी को अपने ह्रदय के मंदिर में संरक्षित, प्रज्वलित रहने दो.
जिस हिंदी संस्कृति में विश्व की रक्षा करने हेतु विषपान कर नीलकंठ बनने की सामर्थ्य रखने वाले देवों के देव महादिदेव हों, ऐसे हिंदी को हम किसी पखवारे में सीमित कर दें …यह असम्भव है. हिंदी तो वह ज्ञान की सरिता है जो आदिकाल से अनंतकाल तक निर्बाध गति से चलती रहेगी और हम सभी को अमृतपान कराती रहेगी. “फूलों से नित हँसना सीखो, भौरों से नित गाना”
जय हिंदी! जय हिन्द!

1 comment:

  1. मेरे मित्रगन अपनी प्रतिक्रिया दें!

    ReplyDelete