Saturday, 30 January 2016

मालदा का सच और सियासत

पश्चिम बंगाल का मालदा कभी आम के लिए मशहूर हुआ करता था. वहां बड़े पैमाने पर चावल की खेती की जाती थी. लेकिन अब इस मालदा की तस्वीर बदल गई है. अब यहां अपराधियों और माफियायाओं का बोलबाला है. अब यहां बात-बात पर हिंसा होती है. मालदा हिंसा पर आज तक(न्यूज चैनेल) ने तहकीकात की कि आखिर वहां ऐसा क्यों हो रहा है. ऐसा क्या हो रहा है जिस पर सुरक्षा एजेंसियों को ध्यान देना बेहद जरुरी है.
मालदा के खेतों में अवैध रूप से अफीम की खेती हो रही है. आप को जानकर हैरानी होगी कि अफीम की खेती एक या दो बीघों में नहीं बल्कि अस्सी हजार बीघे में की जा रही है. इससे तीन हजार करोड़ से भी ज्यादा की काली कमाई होती है. जाहिर सी बात है कि करोड़ों की काली कमाई है, तो इसमें अपराधियों की बड़ी जमात भी होगी. इसकी कमाई के लिए लोग किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं.
इसका सबसे बड़ा उदाहरण 3 जनवरी 2016 को कालिया चक में हुई घटना है. इसमें पुलिस की मौजूदगी में थाने को ही फूंक दिया. दंगाईयों ने जो कहर बरपाया उससे पूरे राज्य में सनसनी फैल गई. पुलिस-प्रशासन भी इनके सामने लाचार हो गया. दंगाईयों के सामने जो आया वही उनका शिकार हो गया. इन लोगों ने जमकर उत्पात मचाया. पुलिस ने रोकने की कोशिश की तो थाने को ही फूंक दिया.
थाने में मौजूद सारे क्रिमिनल रेकॉर्ड तक जला डाले. पुलिस को अपनी जान बचाकर वहां से भागना पड़ा. 4 घंटे तक दंगाईयों ने जमकर उत्पात मचाया. कई लोग घायल हो गए. इसके बाद दंगाई खुद ही वहां से चले गए. पुलिस मूकदर्शक की तरह सिर्फ उस नजारे को देखती रही. मीठे आमों का शहर मालदा अब दहशत में है. यहां आये दिन हो रहे वारदात की वजह जानने के लिए आजतक की खुफिया टीम मालदा पहुंची.
आजतक की टीम की पड़ताल में जो सच सामने आया वो बेहद चौंकाने वाला है. मालदा में हिंसा की आग अभी बुझी भी नहीं थी कि सियासत सुलगने लगी. किसी ने घटना को सांप्रदायिक रंग दिया तो किसी ने कहा कि BSF और लोगों के बीच तनाव ने हिंसा का रुप धारण कर लिया. लेकिन सियासत के बीच कई सवाल सुलग रहे थे.
क्या वाकई मालदा की हिंसा सांप्रदायिक थी? या BSF और स्थानीय लोगों के बीच तनाव की वजह से हिंसा हुई थी? अचानक कहां से आई थी डेढ़ लाख लोगों की भीड़? हथियार लेकर लोग सड़कों पर विरोध प्रदर्शन के लिए क्यों उतरे थे? क्या पुलिस को डेढ लाख लोगों के इकट्ठा होने की सूचना थी? यदि, पुलिस को भीड़ की जानकारी थी तो मुक्कमल तैयारी क्यों नहीं की गई? राज्य सरकार पूरे मामले की लीपापोती करने में क्यों जुटी रही?
जितनी जानकारी मिल सकी है उसके अनुसार जानकारी होते हुए भी सरकार का आदेश नहीं था कि इस घटना को ज्यादा तूल दिया जाय क्योंकि इसके साम्प्रदायिक हो जाने के खतरे ज्यादा थे. सरकार इसे साम्प्रदायिक होने से बचाना चाहती थी. सरकारी संपत्ति का नुक्सान हुआ पर जान की हानि नहीं हुई. पुलिस मूकदर्शक बन सब कुछ देखती रही और लोगों का गुस्सा खुद ब खुद शांत हो गया.
मालदा में इतनी बड़ी तादाद में अवैध हथियार मौजूद हैं कि जितने पुलिस के पास भी नहीं. असलहों की बदौलत इस जिले में माफिया और अपराधियों की अपनी सरकार चल रही है. यहां नकली नोट और अवैध हथियारों की फसल लहलहा रही है. यह अब अपराधियों का गढ़ बन चुका है. यहां देश का कानून काम नहीं करता. अपराधियों की अपनी सरकार है. पराधियों का खौफ इस कदर हो चुका है कि पुलिस भी इनसे डरती है.
अफीम की खेती और हथियारों की तस्करी के लिए अफगानिस्तान दुनिया भर में कुख्यात है. पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ कथित अपमानजनक टिप्पणी के मुद्दे पर हिंसा और आगजनी का शिकार पश्चिम बंगाल के मालदा जिले का कालियाचक इलाका भी अफगानिस्तान से कम नहीं है. अंग्रेजी दैनिक मेल टुडे के मुताबिक, भारत और बांगलादेश की सीमा पर बसा ये इलाका अफीम की खेती, हथियारों की तस्करी और उग्रवाद के गठजोड़ के कारण हिंदुस्तान का अफगा‌निस्तान बन गया है.
उल्लेरखनीय है कि उत्तर प्रदेश के एक हिंदुत्ववादी नेता की ओर से पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने के विरोध में मालदा जिले के कालियाचक कस्बे में एक रैली निनकली ‌थी, जिसमें हजारों की संख्या में मुसलमान शामिल थे. रैली में शामिल प्रदर्शनकारी उस वक्त हिंसक हो गए, जब पुलिस ने उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया. उन्होंने कालियाचक पुलिस थाने और क्षेत्र विकास अधिकारी कार्यालय में तोड़फोड़ कर आग लगा दी. सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया गया, बीएसएफ और एनबीएसटीसी के वाहनों को जला दिया। 30 पुलिसकर्मी भी घायल हो गए।
“देखिए, यह है अफीम की खेती का समन्दर…”, कालियाचक पहुंची NDTV की टीम से एक्साइज़ डिपार्टमेंट में काम करने वाले सब-इंस्पेक्टर ने कहा…
पश्चिम बंगाल के माल्दा जिले में कालियाचक के गांवों में जहां तक हमारी नज़र गई, बस, अफीम के खेत नज़र आए… हालांकि इस गैरकानूनी खेती को नष्ट करने का काम होता रहा है, लेकिन 3 जनवरी के बाद से इसके तार दंगे से सीधे जोड़े जा रहे हैं, जब डेढ़ लाख लोगों के हुजूम ने हिंसा, लूटपाट और आगज़नी की… NDTV की टीम भी बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स (बीएसएफ) की मदद से उन खेतों तक पहुंच सकी, जहां यह खेती होती रही है… इसकी रखवाली के लिए ड्रग माफिया के लोग बंदूकें ताने नज़र रखते हैं, लेकिन अब सख्ती के कारण उनकी पकड़ ढीली पड़ रही है…
अफीम से होने वाली कमाई गेहूं से होने वाली कमाई की तुलना में 10 गुना ज़्यादा होती है… अफीम के फूलों से निकाला हुआ गोंद ही 80,000 रुपये प्रति किलो तक बिक जाता है, और कहीं-कहीं तो एक-एक लाख रुपये में… इसी गोंज को बाद में प्रोसेस कर मॉरफीन और हेरोइन जैसी ड्रग बनाई जाती हैं, लेकिन यह काम स्थानीय स्तर पर नहीं होता…
बहरहाल, इसकी खेती के बढ़ते दायरे पर काबू के लिए बीएसएफ, एक्साइज़ और लैन्ड डिपार्टमेंट एकजुट होकर कार्रवाई कर रहे हैं… पिछली बार पांच-छह ट्रैक्टरों की मदद से खेती को नष्ट किया गया था, तो इस बार आठ से भी ज़्यादा ट्रैक्टर इस्तेमाल किए जा रहे हैं…
5 जनवरी से शुरू हुई कार्रवाई में 3,400 बीघा जमीन पर अफीम की खेती नष्ट की गई, लेकिन एक्साइज़ विभाग के पुराने लोगों का कहना है कि अगर 50 बीघा में से 30 बीघा भी नष्ट कर दी जाए, तो इसके बावजूद इस काम में लगे लोगों को फायदा ही होता है…
यहां ज़मीन कुछ किसानों की है, कुछ बाहरी लोगों की… किसानों को उनकी ज़मीन के एक बीघा के 50,000 रुपये के हिसाब से रकम दे दी जाती है, और फिर उस पर अफीम की खेती की जाती है… अब सबसे बड़ा सवाल उस नेक्सस (गठजोड़) का है, जो इस खेती को होने देता रहा है… सवाल है कि प्रशासन के लोग इसे नार्को-टैररिज़्म (narco-terrorism) कहते हैं, लेकिन इसके बावजूद यह कैसे पनपता रहा… कौन हैं वे ताकतें, जो इसको नजरअंदाज करती हैं, इसे शह देती हैं, और हमारे देश की सुरक्षा से समझौता करती हैं…
अब नारकोटिक्स विभाग की देख रेख में अफीम की खेती को नष्ट किया जा रहा है.
नशा नाश का कारण होता है, यह सभी जानते हैं फिर भी इसका कारोबार देश विदेश में बढ़ता ही जा रहा है. नशे की हालात में ही अधिकांश अपराध होते हैं. क्या हमें इनपर अंकुश नहीं लगाना चाहिए?
सवाल फिर वही है कि क्या आगे इस क्षेत्र में अफीम की खेती नहीं होगी, अवैद्य हथियारों और ‘फेक करेंसी’ के कारोबार पर अंकुश लगेगा, ताकि मालदा मिनी अफगानिस्तान बनने से बच जाय. हमारे देश के वंचित क्षेत्रों के पूर्ण विकास पर राज्य और केंद्र सरकारें ध्यान देगी? लोग जो दिक्भ्रमित हैं, उन्हें मुख्यधारा में लाने का समुचित प्रयास करेगी?
नक्सल प्रभावित क्षेत्र भी ऐसे ही हैं. विकास से कोसों दूर. दिक्भ्रमित नौजवान! जिनके हाथ में देश को बनाने का जज्बा होना चाहिए आज हथियारों से खेल रहा है और बेक़सूर, मासूम लोगों की जिन्दगी से खिलवाड़ कर रहा है. हम स्मार्ट सिटी का जितना भी ‘माया-जाल’ बुन लें, जबतक पिछड़े वंचित लोगों को मुख्यधारा में न लाया जायेगा, हमारा देश महँ नहीं बन पायेगा. उम्मीद है कि हमारी सरकारें, स्वयंसेवी संस्थाएं मिलजुलकर स्थायी हल ढूंढ निकलेगी. इसी आशा के साथ कि देश को जोड़ने का काम हो, तोड़ने का नहीं. जयहिंद !

- जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.

Saturday, 23 January 2016

पी एम का वाराणसी और लखनऊ दौरा

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शुक्रवार सुबह वाराणसी में डीजल रेल इंजन कारखाना (डीरेका) मैदान में 9000 से ज्यादा विकलांगों को उपकरण बांटकर रिकॉर्ड बनाया। मोदी ने खुद कई बच्चों को उपकरण, हाईटेक छड़ी, ट्राइसाइकिलें बांटी। पी एम मोदी ने इस मौके पर यह भी कहा कि उनपर लगातार हमले हो रहे हैं, लेकिन वे विचलित नहीं हैं। पीएम मोदी ने इस मौके पर नई मॉडल रेलगाड़ी महामना एक्सप्रेस को भी हरी झंडी दिखाकर रवाना किया। यह रेलगाड़ी वाया लखनऊ हफ्ते में तीन दिन दिल्ली के लिए चलेगी।
प्रधानमंत्री ने कहा, “जब किसी को विकलांग कह कर परिचय कराया जाता है तो नजर उस अंग पर जाती है जो काम नहीं करता। जबकि असलियत यह है कि विकलांग के पास भी ऐसी शक्ति होती है जो आम लोगों के पास नहीं होती। इनके पास दिव्य विशेषता होती है। इनके अंदर जो विशेष शक्ति है, उसे मैं दिव्यांग के रूप में देखता हूं।”

हालाँकि विकलांग लोगों के कई संगठनों ने समुदाय को संबोधित करने के लिए ‘दिव्यांग’ शब्द के इस्तेमाल पर कड़ी आपत्ति जताते हुए प्रधानमंत्री मोदी से ‘विकलांग’ शब्द की जगह इसका इस्तेमाल ना करने की अपील की। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री ने पिछले साल 27 दिसंबर को अपने रेडियो संबोधन ‘मन की बात’ में कहा था कि शारीरिक रूप से अशक्त लोगों के पास एक ‘दिव्य क्षमता’ है और उनके लिए ‘विकलांग’ शब्द की जगह ‘दिव्यांग’ शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। संगठनों ने कहा, ‘हम दोहराना चाहेंगे कि विकलांगता कोई दैवीय उपहार नहीं है। ‘दिव्यांग’ जैसे वाक्यांशों के इस्तेमाल से किसी भी तरह से अपयश नहीं हट जाएगा या विकलांगता के आधार पर भेदभाव खत्म नहीं हो जाएगा।’ उन्होंने कहा कि सरकार को विकलांगों को देश के आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में प्रभावशाली तरीके से हिस्सा लेने से रोकने वाली सांस्कृतिक, सामाजिक, शारीरिक और सोच संबंधी बाधाओं के कारण विकलांगों से जुड़े अपयश, भेदभाव और हाशिये पर डालने के मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए।
इससे पूर्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शुक्रवार को अपने संसदीय क्षेत्र पहुंचकर महामना एक्सप्रेस को हरी झंडी दिखाई। आरामदायक सीटों वाली सुपरफास्ट रेलगाड़ी, महामना एक्सप्रेस में सफर करने के लिए यात्रियों में जबर्दस्त उत्साह दिखा। गुरुवार को रेलगाड़ी का रिजर्वेशन खुलते ही अगले एक सप्ताह तक के लिए सभी सीटें फुल हो गईं। यह स्थिति तब है, जब इस गाड़ी का किराया अन्य मेल एक्सप्रेस से 15 फीसदी अधिक है। इस रेलगाड़ी का संचालन 25 जनवरी से शुरू होगा। इसके बाद 22418 नई दिल्ली से सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को और वाराणसी से 22417 मंगलवार, गुरुवार और शनिवार को जाएगी।
लखनऊ में डॉ. भीमराव अंबेडकर यूनिवर्सिटी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के दौरान कुछ युवाओं ने ‘मोदी गो बैक’ के नारेबाजी की। यह भी प्रधान मंत्री मोदी की सभा में शायद पहली बार हुआ है. अभी तक देश विदेश में सिर्फ मोदी मोदी के ही नारे लगा करते थे. नारे लगाने वाले छात्रों को सुरक्षाकर्मियों ने बाहर निकाल दिया और कुछ को हिरासत में ले लिया गया, बाद में उन्हें जमानत पर छोड़ भी दिया। अब खबर यह भी है कि उन छात्रों को यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस से निकाल दिया गया है। यानी विरोध करना सख्त मना है। 
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हैदराबाद यूनिवर्सिटी के छात्र रोहित वेमूला की आत्महत्या के मामले का जिक्र करते हुए भारी मन से कहा कि इस मुद्दे पर राजनीति नहीं होनी चाहिए, एक मां ने अपना बेटा खोया है। इस बात को कहते हुए पीएम मोदी भावुक हो गए। इस दौरान वे थोड़ी देर तक चुप रहे। उन्होंने कहा कि मां भारती ने अपना एक लाल खोया है।
प्रधान मंत्री ने भी उन नारों पर कुछ नहीं बोला। कुछ छात्रों की नारेबाज़ी सामान्य घटना नहीं है खासकर प्रधानमंत्री की सभा का बंदोबस्त काफी चाकचौबंद होता है। नारेबाज़ी करने वाले छात्रों ने भी जोखिम की परवाह नहीं की। अपने भाषण के अंतिम चरण में रोहित वेमुला का ज़िक्र करते हुए प्रधानमंत्री भावुक हो गए। मां भारती ने अपना लाल खोया है इससे भी ज़्यादा कह सकते थे ताकि इस घटना से नाराज़ तबके में भरोसा पैदा होता और तमाम विश्वविद्यालयों को संदेश जाता कि किसी भी तरह की लापरवाही बर्दाश्त नहीं होगी। लेकिन प्रधानमंत्री का भाषण समाप्त होते ही न्यूज़ चैनलों पर फ्लैश होने लगा कि मानव संसाधन मंत्री ने रोहित की आत्महत्या से जुड़ी तमाम परिस्थितियों और तथ्यों की जांच करने के लिए न्यायिक आयोग के गठन का फैसला किया है। यह आयोग तीन महीने में अपनी रिपोर्ट सौंपेगा। स्मृति ईरानी ने रोहित की मां से बात की और अपनी संवेदना व्यक्त की।
मानव संसाधन मंत्रालय ने दो सदस्यों की एक जांच टीम हैदराबाद भेजी थी, टीम ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी है। इस घटना का असर देश के विश्वविद्यालयों में दिखना चाहिए बल्कि एक जगह से दिखने की खबर भी आई है। कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद गुरुवार को अजमेर में राजस्थान सेंट्रल युनिवर्सिटी के वाइस चांसलर के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई है। इसमें छह अन्य प्रोफेसरों के भी नाम हैं। इन सभी पर पीएचडी के छात्र उमेश जोनवाल ने आरोप लगाया है कि गाइड उल्लास जाधव ने वी सी से मिलकर परेशान किया और विश्वविद्यालय से निकलवा दिया। पिछले अक्टूबर में जब जोनवाल ने शिकायत की थी तब पुलिस ने एफआईआर भी नहीं की थी। गुरुवार को कोर्ट के आदेश के बाद दर्ज किया गया है। जोनवाल को 15 दिन तक अनुपस्थित रहने के कारण विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया था।
अभी भी सात छात्र भूख हड़ताल पर हैं। दस छात्रों के संगठन ने मिलकर एक ज्वाइंट ऐक्शन कमेटी बनाई है। इसमें एबीवीपी नहीं है। शुक्रवार को जनरल बॉडी मीटिंग भी हुई ताकि स्थिति सामान्य हो सके लेकिन इस्तीफा देने वाले प्रोफेसरों और छात्रों ने विरोध किया और कहा कि वी सी का इस्तीफा होना चाहिए। रोहित वेमुला के सुसाइड नोट को भी फोरेंसिक जांच के लिए भेजा गया है। रोहित के सुसाइड नोट में कई जगहों पर काटा गया है। उस पर रोहित ने लिखा है कि ये लाइन उन्होंने खुद काटी है फिर भी इनकी फोरेंसिक जांच कराई जाएगी। हमारी जिन पंक्तियों को काटा गया है उससे ज़ाहिर होता है कि रोहित जिन संगठनों के लिए काम करता था, उन्हें लेकर भ्रमित था और उनसे कुछ मतभेद थे। सुसाइड नोट से ऐसा ज़ाहिर होता है कि रोहित ने कहा है कि ए एस ए और एस एफ आई अपने हित के लिए ही काम करते हैं। पुलिस यह भी जांच करेगी कि रोहित का पता लगाने में छह घंटे क्यों लगे। बुधवार की प्रेस कांफ्रेंस में स्मृति ईरानी ने कहा था कि कार्यकारी परिषद की उप समिति के मुखिया दलित प्रोफेसर थे। उनके इस दावे को गलत बताते हुए 14 दलित और अन्य समुदाय के प्रोफेसरों ने अपने प्रशासनिक दायित्वों से इस्तीफा दे दिया। इस मामले पर केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय की तरफ से कोई सफाई नहीं आई है।
केरल के कोट्टायम में गर्वनमेंट आर्ट कॉलेज में ABVP और SFI के सदस्यों के बीच मारपीट में सात छात्र घायल हो गए। एबीवीपी और एसएफआई के नेताओं को सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया। कौन तय करेगा कि कौन राष्ट्रविरोधी है और किस मुद्दे पर हम आपको विचार करने की छूट देंगे और इस मुद्दे पर नहीं देंगे। अलग-अलग विचारधाराएं अगर एक दूसरे से संघर्ष करते हुए संवाद नहीं कर सकती हैं तो फिर उनकी आक्रामकता दादागीरी क्यों न मानी जाए। चाहे वो SFI हो या ABVP या NSUI।
इन दोनों प्रकरणों के आधार पर मेरा सिर्फ यही मत है कि सामाजिक, शारीरिक, शैक्षणिक, राजनीतिक तथा आर्थिक रूप से अशक्त लोगों के साथ सहानुभूति के साथ कुछ सुविधा देनी चाहिए। उनकी भावना, उनकी बात को भी सुनी जानी चाहिए। उन्हें भी मुख्यधारा में लाने का हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए। महात्मा गाँधी ने दलितों को हरिजन कहा था पर उनके प्रति भेदभाव आज भी जारी है। मोदी जी ने विकलांगों को दिव्यांग कहा है, पर जरूरत है उनसे भेदभाव से अलग सहानुभूतिपूर्वक समान रूप से ब्यवहार करने की। अन्यथा लोग राजनीति की रोटियाँ सेंकेंगे। मुद्दे को तूल देंगे और मोदी जी के प्रवाह में अवरोध पैदा करने की कोशिश करेंगे। अत: मोदी जी और उनके तमाम सहयोगियों को इस पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। जयहिंद! 
– जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर

Sunday, 17 January 2016

दिल्ली में सम-विषम सूत्र की सफलता

तमाम विरोधों का सामना करते हुए, विवादित, बहु चर्चित ‘ओड इवन फार्मूला’ आखिर घोषित अवधि (यानी १ जनवरी से १५ जनवरी) तक सफलतापूर्वक अपना अभियान पूरा कर चुका है. दिल्ली की हवा के प्रदूषण में थोड़ा सुधार भी दर्ज किया गया है. अब घोषित अवधि पूरा कर लेने के बाद मुख्य मंत्री अरविन्द केजरीवाल की दिल्ली की जनता से अपील की गयी है कि इस नियम को अपनी दिनचर्या में शामिल कर लें, अर्थात इसको आगे भी जारी रक्खें. अब जुर्माना नहीं देना पड़ेगा पर खुद से इसका पालन करेंगे तो दिल्ली की हवा कम प्रदूषित होगी. बच्चों और बुजुर्गों का स्वास्थ्य बेहतर होगा. सांस और फेफड़ों की बिमारियों से मुक्ति पा सकेंगे. आंकड़ों के अनुसार इन १५ दिनों के अभियान में 156 करोड़ का पेट्रोल भी बचा . ऑड-ईवन लागू होने से पहले और लागू होने के दौरान इस फॉर्मूले का जो पोस्टमार्टम हुआ है, वह इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है। यह योजना शुरू होने से पहले दिल्ली सरकार भी उस तरह से आश्वस्त नहीं थी। इसलिए दिल्ली सरकार को भी लग रहा था कि कहीं यह नियम उनके खिलाफ नकारात्मक माहौल न बना दे। शायद यही वजह थी कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी नियम लागू होने से पहले ही कह दिया कि सिर्फ 15 जनवरी तक… अगर लोगों को पसंद नहीं आया तो स्कीम वापस ले लेंगे। दिल्ली सरकार ने विज्ञापनों का अभियान चलाया बल्कि खुद मुख्यमंत्री केजरीवाल ने विज्ञापन में आने का बड़ा ही ऑड तरीका निकाल लिया। इस विज्ञापन में उनका चेहरा नहीं दिख रहा था मगर आवाज आ रही थी। वे फोन पर बात करते हुए अपना संदेश लोगों तक ले गए। अब रोहतक, अहमदाबाद, मुंबई और बेंगलुरु में भी इसे आजमाने की बात चल रही है। 
15 तारीख को मुख्यमंत्री केजरीवाल और परिवहन मंत्री गोपाल राय ने एक प्रेस कांफ्रेंस कर दिल्ली की जनता को बधाई दी। अरविंद केजरीवाल ने कहा कि लोगों ने 2000 रुपये के जुर्माने के भय से ऑड-ईवन नहीं अपनाया। मात्र 9,144 लोग ऐसे थे जो गलत नंबर की कार लेकर निकले और सरकार को जुर्माने के तौर पर 1 करोड़ 82 लाख से अधिक की रकम दे आए। ऑड-ईवन की कामयाबी में इन फाइन देने वालों का भी योगदान सराहनीय है। लोगों को डर था कि ऑड-ईवन के दौरान ऑटो वाले काफी वसूली करेंगे लेकिन गोपाल राय ने बताया कि सिर्फ 917 चालकों की शिकायतें आई हैं और पहले से ज्यादा अनुशासित तरीके से ऑटो वालों ने काम किया है।
मुख्यमंत्री केजरीवाल ने बताया कि स्कीम लागू होने से पहले 47 लाख लोग दिल्ली की बसों में सफर करते थे, स्कीम लागू होने के बाद हर दिन औसतन 53 लाख लोगों ने बसों में सफर किया। यानी बसों में 6 लाख अधिक लोग सफर करने लगे। मुख्यमंत्री ने कहा कि दिल्ली की बसों के फेरे भी बढ़ गए हैं। मुख्यमंत्री ने बताया कि जिन बसों को एक दिन में 200 किलोमीटर चलना होता था वे ट्रैफिक के कारण 160 किलोमीटर ही चल पाती थीं। लेकिन ऑड-ईवन के लागू होने के बाद वे एक दिन में 220 किलोमीटर की दूरी तय करने लगीं। एक बस ने 60 किलोमीटर अधिक यात्रा की। इस वजह से दिल्ली की 6000 बसों ने 9000 बसों का काम किया। यह एक दिलचस्प आंकड़ा है। इसकी विश्वसनीयता का ठीक से अध्ययन होना चाहिए। क्या इसका यह मतलब है कि दिल्ली में नई बसों की जरूरत नहीं होगी। अगर ट्रैफिक कम हो तो क्या मौजूदा बसों से ही दिल्ली की जरूरत पूरी की जा सकती है। योजना लागू होने से पहले दिल्ली सरकार ने कहा था कि 3000 अतिरिक्त बसें चलाई जाएंगी। नई बसों के खरीदे जाने की भी बात हुई थी, इस मामले में सरकार को ठोस रूप से भरोसा देना होगा।
इस अवधि में उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया भी साइकिल चलाते नजर आए और साइकिल ट्रैक बनाने की बात करने लगे। पिछले बीस साल से दिल्ली में साइकिल ट्रैक की बात हो रही है। दिल्ली में एक अनुमान के मुताबिक बीस लाख से ज्यादा लोग साइकिल से काम पर जाते हैं। मुख्यमंत्री केजरीवाल ने दिल्ली के लोगों से कहा है कि वे ऑड-ईवन को अपने स्तर पर जारी रखें। क्या वे और उनके मंत्री भी आगे ऑड और ईवन को जारी रखेंगे। कार पूल करेंगे या साइकिल से दफ्तर जाते रहेंगे। क्या वे मिसाल पेश करने के लिए तैयार हैं। कई लोगों को इस योजना से बाहर रखा गया लेकिन हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के कई जजों ने भी इस योजना को अपनाया। वे या तो कार पूल में गए या फिर पैदल भी। अदालत का रुख भी ऑड-ईवन के प्रति सकारात्मक होने लगा और वह इसकी शुरुआती कामयाबी से संतुष्ट होने लगी। यहां तक कि अदालत ने खास श्रेणी की नई डीज़ल कारों के पंजीकरण पर रोक लगा दी। उसे अभी तक नहीं हटाया गया है।
इस अभियान में डॉक्टर नरेश त्रेहान की ट्वीट की हुई उस तस्वीर ने भी बड़ा असर किया था जिसमें दिल्ली और हिमाचल के मरीज के फेफड़े की तुलना की गई थी। दिल्ली के मरीज का फेफड़ा बुरी तरह काला हो चुका था। बाद में दिल्ली सरकार ने भी लोगों के फेफड़ों की जांच शुरू की, अब पता नहीं वह जांच जारी है या नहीं लेकिन फेफड़ों की जांच के नतीजों ने कई लोगों को बुरी तरह हैरान कर दिया। प्रदूषण की वजह से अब साक़िब जैसे 28 साल के युवा का फेफड़ा 20% कम काम कर रहा है। हर तीन में एक दिल्ली वाले का फेफड़ा कमजोर हो गया है। चलिए अब प्रदूषण की बात कर लें। क्योंकि इस मुहिम का असली मकसद प्रदूषण कम करना ही माना जा रहा है। पहले दिन सरकार ने दावा किया कि प्रदूषण का स्तर कम हुआ है। लेकिन विपक्ष ने कहा कि कोई असर नहीं पड़ा है।
दिल्ली सरकार ने प्रदूषण पर अपने आंकड़े रखे हैं। सरकार का दावा है कि दिसंबर में PM 2.5 का स्तर 600 से ज्यादा था। ऑड-ईवन के दौरान PM 2.5 का स्तर 400 से ज्यादा रहा। ऑड-ईवन के दौरान बॉर्डर के इलाकों में प्रदूषण ज्यादा रहा, शहर के अंदर प्रदूषण करीब 20-25% तक कम हुआ है। अगर ऑड-ईवन न होता तो PM 2.5 का स्तर 600 से ज्यादा होता। इन आकंड़ों को अलग-अलग तरीके से देखा जा रहा है। सवाल उठ रहा है कि दुपहिया वाहनों से 30 फीसदी से ज्यादा प्रदूषण होता है। धूल से 56 फीसदी प्रदूषण होता है जबकि गाड़ियों से सिर्फ 9 फीसदी प्रदूषण होता है। तो क्या धूल रोकने के लिए भी सरकार कोई अभियान चलाएगी। कोई सिस्टम कायम करेगी। दिल्ली सरकार ने इन मामलों में एक कार्ययोजना अदालत के सामने रखी है। एनडीटीवी ने अपनी तरफ से एक एंबुलेंस चलाया यह देखने के लिए, एक खास दूरी के बीच एंबुलेंस को कितना समय लगता है। पाया कि पहले दस किमी की दूरी तय करने में जिस एंबुलेंस को 35 मिनट लगते थे अब वह एंबुलेंस 18 मिनट में पहुंच गया। यानी 17 मिनट की बचत हुई। क्या यह वक्त कीमती नहीं है। चार साल से एंबुलेंस चला रहे संजय सिंह ने बताया कि पिछले दो हफ्तों में काफी राहत महसूस हुई है। हमारी गाड़ी जाम में नहीं फंसी है। अन्य लोगों ने भी बताया कि उन्हें भी घर से दफ्तर के बीच फेरे लगाने में पंद्रह से बीस मिनट की बचत हुई है।
ऑड-ईवन स्कीम के खिलाफ हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक याचिका दाखिल की गई। लेकिन हाईकोर्ट ने ऑड-ईवन के नोटिफिकेशन पर रोक लगाने से इनकार कर दिया। हालांकि साथ में यह निर्देश भी दिया कि अगली बार सरकार उन सवालों पर भी जरूर विचार करे जो इस दौरान उठाए गए हैं। वहीं सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी टिप्पणी की। देश के चीफ जस्टिस टीएस ठाकुर ने कहा कि लोग प्रदूषण की वजह से मर रहे हैं और आप इस योजना को चुनौती दे रहे हैं। यहां तक कि खराब हालत के चलते सुप्रीम कोर्ट के जज भी कार पूल कर रहे हैं। तो दिल्ली में ऑड-ईवन प्रयोग का पहला दौर समाप्त हो गया…। कई लोग खुश हो रहे होंगे, नियमों से राहत भी महसूस कर रहे होंगे…लेकिन शायद इसकी सफलता से लग रहा है कि यह जल्दी खत्म हो गया। पिछले 15 दिनों से सड़कों पर भीड़ कम मिलती थी, ट्रैफिक जाम नहीं मिलता था, घर जल्दी पहुंचा जा सकता था। बस में सफर करने वाले भी खुश थे क्योंकि बैठने की जगह मिल जाती थी। प्रदूषण भी कुछ कम हुआ होगा। लेकिन शायद इसमें सबसे खास बात रही कि दिल्ली वासी एकजुट हुए। शहरियों ने भी परेशानियों के बावजूद नियम का पालन किया। दिल्ली पुलिस के लिए भी खासी चुनौती नहीं थी क्योंकि लोग स्वेच्छा से नियम पालन करते हुए दिखे।
एक रिपोर्ट के अनुसार – दिल्ली का बीता पखवाड़ा – एम्बुलेंस का रिस्पांस टाइम सुधरा क्योंकि लालबत्तियों पर 5 से 10 मिनट कम रुकना पड़ा। गाड़ी चलाने वाले खुश थे क्योंकि सड़कों पर कम वाहनों के कारण आधा घंटे जल्दी पहुंच सके। सीएनजी पर अच्छा माइलेज मिला क्योंकि ट्रैफिक कम था। पेट्रोल डीजल की बिक्री में 30 प्रतिशत कमी हुई। बस ड्राइवरों को ज्यादा ट्रिप लगाने का अवसर मिला क्योंकि ट्रैफिक कम था। पार्किंग लॉट 15 से 20 प्रतिशत खाली रहे। एक ऑनलाइन पोल के अनुसार 67 प्रतिशत दिल्ली वासियों ने इस प्रयोग का स्वागत किया है। तो अब जब दिल्ली के प्रदूषण पर थोड़ा बहुत असर भी पड़ा है तो और क्या किया जा सकता है जिससे हवा सुधरे? हालांकि दिल्ली में शहरीकरण देश में सबसे ज्यादा 98 प्रतिशत है लेकिन सार्वजनिक परिवहन सबसे देरी में विकसित हुआ। मुंबई में लोकल ट्रेन 1853 से दौड़ रही है, कोलकाता में मेट्रो 1984 में आ गई थी, जबकि दिल्ली में तो 2002 तक बस सर्विस ही होती थी।
सार्वजनिक परिवहन के विकास से समस्या का निदान संभव – एक रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में दोपहिया वाहनों से 33 प्रतिशत और ट्रकों से 46 प्रतिशत प्रदूषण होता है। इसके अलावा दिल्ली में गाड़ियों की तादाद अन्य बडे़ शहरों के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ रही है। दिल्ली में प्रत्येक 1000 व्यक्तियों में से 451 के पास गाड़ी है। ग्रेटर मुंबई में इस अनुपात में 102, कोलकाता में 110 वाहन हैं। सिर्फ बेंगलुरु ही ऐसा शहर है जहां प्रति हजार व्यक्ति पर दिल्ली से ज्यादा 489 वाहन हैं। अगर हमारा पब्लिक ट्रांसपोर्ट दुरुस्त होगा तो लोग निजी वाहन खरीदने की जरूरत महसूस नहीं करेंगे।
तात्पर्य यह है कि जब समस्या गंभीर हो तो सरकार के साथ जन भागीदारी की भी जरूरत होती है. बिना जन भागीदारी के किसी भी योजना को पूरी तरह सफल नहीं बनाया जा सकता है. स्वच्छता अभियान की भी पूर्णरूपेण सफलता तभी प्राप्त होगी जब उसमे जन भागीदारी होगी और कुछ नियमानुसार फाइन लगाने की भी ब्यवस्था होनी चाहिए.
उधर १७ जनवरी को अरविन्द केजरीवाल जनता को धन्यवाद देने और शायद इसका राजनीतिक लाभ लेने के लिए ही छत्रशाल स्टेडियम में लोगों के बीच बोल रहे थे, तभी भावना नामकी एक युवती ने उनपर स्याही फेंक कर रंग में भंग डालने की कोशिश कर दी. अब केजरीवाल की सुरक्षा को लेकर दिल्ली पुलिस पर जहाँ सवाल उठने लगे वहीं आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने भाजपा की साजिश करार दे दिया. अब यह सब तो आजकल की राजनीति का हिस्सा बन गया है. जनता ही सही मूल्यांकन करती है,जब अपना फैसला सुनाती है. 
– जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर

Saturday, 9 January 2016

पठानकोट से हमने क्या सबक लिया

पठानकोट एयर बेस पर ६ आतंकवादियों द्वारा किया गया बड़ा हमला और घुंसपैठ एक बड़ी साजिश का नतीजा है. इतने सारे विध्वंसक साजो सामान के साथ घुंसपैठ लगातार तीन दिनों तक या उससे भी ज्यादा समय तक सेना से लोहा लेना मामूली वारदात नहीं कही जा सकती. भले ही सेना और सरकार की चुस्ती ने इसे नाकाम कर दिया पर सवाल अनेकों है, जो उठने लाजिम हैं.
यह हमला ठीक उस समय हुआ जब प्रधान मंत्री नवाज शरीफ से बिना कोई तय कार्यक्रम के मिलकर आये थे. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पाकिस्तान दौरा कर NSA स्तर से वार्ता की पृष्ठभूमि तैयार कर रही थी. हर मसलों पर समग्र बात-चीत की पहल के तौर पर इसे देखा जा रहा था, ताकि दोनों देशों के बीच सम्बन्धों में सुधार हो. इसी बीच पठानकोट के एयरबेस पर हमला सारे प्रयासों को जड़ से हिला देता है. यह आतंकी हमला पाकिस्तान आर्मी से समर्थित था, इसके भी सबूत मिल चुके हैं.
हम पाकिस्तान को सबूत पर सबूत भेज रहे हैं, पर पाकिस्तान उसे नाकाफी बता रहा है. पाकिस्तानी मीडिया पहले ही इन सबको ख़ारिज कर चुका है. अमेरिका भी पकिस्तान को आतंकियों पर सही एक्शन लेने की सलाह दे रहा है, पर उसे समय देने की भी वकालत कर रहा है. पाकिस्तानी सेना और आतंकवादी पाकिस्तान में स्वतंत्र एजेंसी की तरह काम करता है और वह हमेंशा भारत के विरुद्ध ही एक्शन में रहता है.
सवाल यह भी उठा है कि इतना बड़ा सुनियोजित और प्रायोजित हमला बिना हमारे लोगों के सहयोग के संभव नहीं था. कई लोगों से पूछताछ जारी है. जब तक हमारे लोग उनको सूचना उपलब्ध नहीं कराएँगे, वे कैसे पायेंगे? आतंकी सरगना तभी कामयाब होते हैं जब हमारे लोग उनके सहारे होते हैं. चाहरदीवारी पर लगे तीन फ्लड लाइट्स का रुख घुमाया किसने? दो लाइटों के वायर काटे हुए मिले. एस. पी. सलविंदर सिंह की भूमिका अभी तक संदेह के घेरे में है. उनकी जांच हो रही है. जांच के बाद कुछ एक्शन लिए जायेंगे तो? सेना के जवानों पर हम सब नागरिकों को ‘नाज’ होता है. अभी तक यह कहा जा सकता है कि सेना के जवान और उस संस्था में काम करने वालों में देश भक्ति कूट-कूट कर भरी हुई होती है. वह जीता है तो देश के लिए मरता है तो देश के लिए. हम उन जवानों को सैलूट करते हैं. उनके शव को तिरंगे में लपेटकर सम्मान दिया जाता है. सेना के जवानों के परिवार भी अपना उदगार जिस प्रकार व्यक्त करते हैं, एक बार हमारी ऑंखें नम हो जाती है. पर क्या इनमे भी कुछ गद्दार हैं, जो जिम्मेदार हैं, इस प्रकार के हमले और आतंकवादियों के घुंसपैठ के लिए. उनकी सजा तो होगी सो होगी पर इनकी जवाबदेही को हम कब मूल्यांकित करेंगे? तथा सुधारात्मक प्रक्रिया कब अपनाएंगे?
गद्दारों के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं ? हम क्यों अपने देश के प्रति खुद्दार नहीं है ? ड्रग्स, नारकोटिक्स का बिजनेस चलनेवाले ही घुंसपैठ कराते हैं. यह भी बातें स्पष्ट हो चुकी है. जिन पर बिश्वास कर हम चैन से सोते हैं, उनमे अगर गद्दार हों तो बहुत दुःख होता है. यह बेईमानी है, इसे हर हाल में रोका जाना चाहिए. हमें अपनी सीमा पर हर हमेशा चौकस निगाह रखनी होगी और हर तरह के घुंसपैठ को नाकाम करने के हर संभव प्रयास करने चाहिए. अपनी सुरक्षा ब्यवस्था को और चुस्त दुरुस्त करने होंगे. रक्षा मंत्री मनोहर परिकर ने भी कुछ कमियों को रेखांकित किया है. हमें उन्हें दूर करने ही होंगे. अब प्रधान मत्री भी पठानकोट का स्वयम दौरा कर चुके हैं. उन्होंने भी कुछ देखा होगा और अपनी कुछ राय दी होगी. निश्चित ही हमें उनके सलाहों पर गौर करनी चाहिए और अपने घर को अपने देश को सुरक्षित रखने के हर संभव प्रयास करने चाहिए.
बहुत पहले राष्ट्रकवि मथिलीशरण गुप्त ने कहा था
‘जिसको न निज भाषा तथा निज देश का अभिमान है।
वह नर नहीं, नर पशु निरा है और मृतक समान है।’ – राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त
कुछ और विश्लेषण पत्रकार रवीश कुमार के शब्दों में – “लेफ़्टिनेंट कर्नल सहित सात जवान शहीद हुए हैं। एक कृतज्ञ राष्ट्र को क्या करना चाहिए? क्या उसे चुप रहकर शोक जताना चाहिए या बोलने के नाम पर चैनलों पर बोलने की असभ्यता के हर चरम को छू लेना चाहिए? ऐसा लगता है कि हम आक्रामक होने के बहाने शहादत का अपमान कर रहे हैं। इन पाकिस्तानी मेहमानों के ज़रिये कहीं पाकिस्तान विरोधी कुंठा को हवा तो नहीं दी जा रही है। इस कुंठा को हवा तो कभी भी दी जा सकती है लेकिन ऐसा करके क्या हम वाक़ई शहादत का सम्मान कर रहे हैं? क्या ये पाकिस्तानी मेहमान कुछ नई बात कह रहे हैं? चैनलों पर पाकिस्तान से कौन लोग बुलाये जा रहे हैं? क्या वही लोग हैं जो इधर के हर सवाल को तू-तू मैं-मैं में बदल देते हैं और इधर के वक़्ता भी उन पर टूट पड़ते हैं। कोई किसी को सुन नहीं रहा। कोई किसी को बोलने नहीं दे रहा। इस घटना पर दोनों देशों के जिम्मेदार लोग बोल रहे होते तो भी बात समझ आती लेकिन वही बोले जा रहे हैं, जिन्हें घटना की पूरी जानकारी तक नहीं। जिनका मक़सद इतना ही है कि टीवी की बहस में पाकिस्तान को अच्छे से सुना देना। किसी की शहादत पर गली मोहल्ले के झगड़े सी भाषा उसका सम्मान तो नहीं है? उनका परिवार टीवी देखता होगा तो क्या सोचता होगा।
क्या यही एकमात्र और बेहतर तरीका है? अपनी कमियों और चूक पर कोई सवाल क्यों नहीं है? क्या इस सवाल से बचने के लिए मुंहतोड़ जवाब और बातचीत के औचित्य के सवाल को उभारा जा रहा है? दो दिन से पठानकोट एयरबेस में गोलीबारी चल रही है लेकिन आप देख सकते हैं कि गृहमंत्री का असम दौरा रद्द नहीं होता है। बेंगलुरु जाकर प्रधानमंत्री योग पर लेक्चर देते हैं। सबका ज़रूरी काम जारी है। टीवी पर इनके इधर उधर से बाइट आ जाते हैं। उन्हें सुनकर तो नहीं लगता कि कोई गंभीर घटना हुई है। बस नाकाम कर दिया और जवाब दे दिया। क्या नाकाम कर दिया? दो दिनों से वे हमारे सबसे सुरक्षित गढ़ में घुसे हुए हैं। हम ठीक से बता नहीं पाते कि पांच आतंकवादी शनिवार को मारे गए या रविवार को पांचवा मारा गया। ख़ुफ़िया जानकारी के दावे के बाद भी वो एयरबेस में कैसे घुस आए?
कहीं इस आतंकी हमले से जुड़े सवालों से भागने का प्रयास तो नहीं कर रहे? हम अपनी बात क्यों नहीं करते? क्या ये चैनल भारत सरकार के कूटनीतिक चैनलों से ज़्यादा पाकिस्तान को प्रभावित कर सकते हैं? हम सीमा पार से बुलाये गए नकारे विशेषज्ञों और पूर्व सैनिकों को बुलाकर क्या हासिल कर रहे हैं? वो तो हमले को ही प्रायोजित बता रहे हैं। क्या उनके दावों को भारत सरकार गंभीरता से लेती है? एंकर भले उन पाकिस्तानी वक्ताओं पर चिल्ला दे लेकिन क्या हम इतने से ही संतुष्ट हो जाने वाले पत्थर दिल समाज हो गए हैं? मैं कभी युद्ध की बात नहीं करता लेकिन निश्चित रूप से शहादत पर शोक मनाने का यह तरीका नहीं है।
हम सबको गर्व है लेकिन क्यों इस गर्व में किसी के जाने का दुख शामिल नहीं है? क्या ग़म उनकी शहादत के गौरवशाली क्षण को चैनलों की तू-तू मैं-मैं वाली बहसों से अलंकृत कर रहे हैं? हम कहां तक और कितना गिरेंगे? क्या इस तरह से लोक विमर्श बनेगा। हम रात को टीवी के सामने कुछ दर्शकों की कुंठा का सेवन कर क्या कहना चाहते हैं? इन नक़ली राष्ट्रवादी बहसों से सुरक्षा से जुड़े सवालों के जवाब कब दिये जायेंगे। सोशल मीडिया पर इस घटना के बहाने मोदी समर्थक मोदी विरोधियों का मैच चल रहा है। उनकी भाषा में भी शहादत का ग़म नहीं है। गौरव भी कहने भर है। कोई राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को हटाने का हैशटैग चला रहा है तो कोई मोदी का पुराना ट्वीट निकाल रहा है। सवालों की औकात इतनी ही है कि पूछे ही जा रहे हैं। जवाब देने की ज़िम्मेदारी और शालीनता किसी में नहीं।”
अभी पठानकोट के आग से धुँआ निकलना बंद भी नहीं हुआ कि मालदा में कुछ नासमझ लोग हुडदंग करने लगे, जिसकी तपिस पूर्णिया तक पहुँच गयी. सोसल मीडिया पर उनपर बेवजह वक्त जाया किया जा रहा है. इस तरह के अप्रिय वारदातों पर रोक लगाने की जरूरत है न कि उसे हवा देकर सांप्रदायिक माहौल में अपनी रोटी सेंकने का काम करने लग जाएँ. हम एक रहेंगे तो देश मजबूत होगा वरना अपने घर की फूट का फायदा पड़ोसी दुश्मन उठाएंगे ही. हम सभी को देश के जिम्मेदार नागरिक की भूमिका निभाने की जरूरत है. हम सुधरेंगे जग सुधरेगा … जग सुधरे या न सुधरे, कम से कम हमारे क्रियाकलाप ऐसे होने चाहिए, जिससे समाज और देश का भला हो और नुकसान तो कत्तई न हो. तभी होगा असली जय हिन्द, जय भारत और विश्वगुरु भारत.
- जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर

Saturday, 2 January 2016

मानवता के शत्रु


पठानकोट के भीषण मुठभेड़ में रविवार शुबह तक  हमारे सात सुरक्षाकर्मी शहीद हो गए जबकि पांच घुसपैठिए मारे गए। NSG का एक कमांडो भी जख्मी हुआ. कई नागरिक भी गोलियों के शिकार हुए. एयरफोर्स स्टेशन के अन्दर एक IED को निष्क्रिय करते समय उसके फट जाने से लेफ्टिनेंट कर्नल निरंजन कुमार भी शहीद हो गए. अब पूरे देश के प्रमुख शहरों में हाई अलर्ट घोषित कर दिया गया. खतरा टला नहीं है, बल्कि एक डर का वातावरण ही पैदा हो गया है. धमाके हो रहे हैं और अलग अलग जगहों बम की अफवाह भी फ़ैल रही है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि भारत की प्रगति को पचा न पाने वाले 'मानवता के शत्रुओं' ने पठानकोट में हमला किया। पीएम मोदी ने आश्वासन दिया कि रक्षा बलों के पास हमारे शत्रुओं के नापाक इरादों को परास्त करने की ताकत है। 'हमारे सुरक्षा बलों ने उन्हें सफल नहीं होने दिया। अपने जवानों और सुरक्षा बलों पर हमें गर्व है।' उन्होंने पंजाब के पठानकोट में भारतीय वायु सेना के ठिकाने पर शनिवार को तड़के पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा किए गए हमले का उल्लेख करते हुए यह बात कही। उन्होंने आगे कहा, मैं अपने देशवासियों को यह आश्वस्त करना चाहता हूं कि हमारे सशस्त्र बलों के पास हमारे शत्रुओं के नापाक इरादों को परास्त करने की ताकत है। देश की रक्षा के लिए सदैव तैयार रहने वाले सशस्त्र बलों को बधाई देते हुए उन्होंने कहा कि अगर देश एक स्वर में बोलता है तो हमारे शत्रुओं की बुरी इच्छा का नाश हो जाएगा। यह आतंकवादी हमला पीएम मोदी की अचानक हुई पाकिस्तान यात्रा के कुछ ही दिन बाद हुआ है। बहुत सारे लोग इसे मोदी जी की ‘कूटनीति’ की विफलता भी मान रहे हैं. हालाँकि पकिस्तान की आधिकारिक रिपोर्ट में इस घटना की निंदा की गई है.
वायुसेना ने कहा, समय पर कार्रवाई से आतंकवादियों के मंसूबे नाकाम
वायुसेना ने शनिवार को दावा किया कि सही समय पर खुफिया सूचना मिलने और त्वरित कार्रवाई से पठानकोट वायुसेना स्टेशन में उसकी महत्वपूर्ण परिसंपत्तियों को नष्ट करने की आतंकवादियों की संभावित योजना विफल हो गई। फिर भी सुरक्षा में चूक से नाकारा नहीं जा सकता.
पाकिस्तान सीमा से करीब 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पठानकोट वायुसेना केंद्र वायुसेना के मिग-21 जंगी विमानों और एमआई-25 जंगी विमानों का अड्डा है। इस वायुसेना केंद्र पर हथियारबंद पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा धावा बोले जाने के करीब 15 घंटे बाद एक बयान में वायुसेना ने कहा कि उसे खुफिया सूचना मिल गई थी कि ऐसा हमला होगा।
बयान में कहा गया है, ‘आतंकवादियों द्वारा पठानकोट इलाके में सैन्य प्रतिष्ठानों पर घुसपैठ करने की आतंकवादियों की संभावित कोशिश के बारे में खुफिया सूचना उपलब्ध थी। जवाब में वायुसेना ने ऐसे किसी भी प्रयास को विफल करने के लिए अपनी पूरी तैयारी कर रखी थी। वायुसेना ने कहा कि जैसे ही आतंकवादियों का यह समूह पठानकोट वायुसेना केंद्र पर पहुंचा, प्रभावी तैयारी तथा सभी सुरक्षा एजेंसियों के समन्वित प्रयास की वजह से हवाई निगरानी प्लेटफार्म के जरिए उसका पता चल गया।
त्वरित कार्रवाई से संपत्तियां नष्ट होने से बचीं
पंजाब के पठानकोट एयरबेस पर हुए आतंकी हमले की साजिश पाकिस्‍तान अधिकृत कश्‍मीर (पीओके) में रची गई थी, जोकि दिसंबर के पहले हफ्ते में हुई थी। उच्‍च ख़ुफ़िया सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, इस बैठक में बैठक में जैश, लश्कर, हिज्बुल के आतंकी शामिल थे। ख़ुफ़िया सूत्रों के मुताबिक, पाकिस्‍तान के बहावलपुर की अल रहमत ट्रस्ट पर इन आतंकियों को मदद देने का शक है। इस ट्रस्‍ट के मुखियाओं के नाम अशफाक अहमद और अब्‍दुल शकुर हैं।
सूत्रों ने बताया, अल रहमत ट्रस्‍ट आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्‍मद का संचालन केंद्र है। इसका गठन जैश-ए-मोहम्‍मद को सहायता देने के लिए किया गया है। पाकिस्‍तान में साल 2002 में जैश पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद, उसने अपने ऑपरेशन चलाने के लिए अल रहमत ट्रस्‍ट को मुखौटा संगठन बना लिया।
सेना से जुड़े खुफिया सूत्र बताते हैं कि हमले से पहले आतंकवादियों ने पाकिस्तान में अपने आकाओं अशफाक़ अहमद और अब्दुल शकूर से बातचीत की थी। बातचीत में उनका लहजा पाकिस्तान के दक्षिण पंजाब का था। ख़ास बात यह है कि इस हमले में जैश के ही मुखौटा संगठन अल रहमत का हाथ है। यह ट्रस्ट अफगानिस्तान और पाकिस्तान में आतंकवादी गतिविधियों के लिए वित्तीय और ढांचागत सहायता मुहैया करवाता है। साल 2002 में जैश पर प्रतिबंध के बाद इसका गठन किया गया था। यह ट्रस्ट आतंकवादियों के परिवारों के लिए लोगों से पैसा भी इकट्ठा करता है। साथ ही पाकिस्तान की मस्ज़िदों और मदरसों में बच्चों के दिमाग़ों में जेहाद ज़हर भी भरता है। इस संगठन का मुखिया भी मौलाना मसूद अज़हर अल्वी है जिसको नेपाल में IC-814 के अपहरण के बाद रिहा किया गया था।
उधर शिवसेना ने पठानकोट में पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा किए गए आतंकवादी हमले की निंदा करते हुए शनिवार को कहा कि आतंकवाद और शांतिवार्ता साथ-साथ नहीं चल सकती।शिवसेना ने इस बात को लेकर चिंता जताई कि यह हमला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बिना किसी पूर्व कार्यक्रम के लाहौर यात्रा के सप्ताह भर के भीतर हुआ है।
हमला कहां से हुआ, बताने की जरूरत नहीं शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत ने यहां कहा, ‘जब भी हमारे ऊपर कोई हमला होता है, यह कहने की जरूरत नहीं कि उसके पीछे कौन है। हम आंख बंद करके भी कह सकते हैं कि हमलावर पाकिस्तान से हैं।
मोदी की पाकिस्तान यात्रा के बाद हमला
राउत ने कहा कि यह हमला पिछले सप्ताह बिना किसी पूर्व कार्यक्रम के प्रधानमंत्री के लाहौर में रुकने के बाद हुआ है। उन्होंने कहा, ‘हम राजनीति नहीं करना चाहते लेकिन यह तथ्य है कि द्विपक्षीय शांतिवार्ता और आतंकवादी हमले साथ-साथ हो रहे हैं। यह नहीं चलेगा।उन्होंने कहा कि शांति वार्ता और आतंकवाद साथ-साथ नहीं चल सकते और यह शिवसेना का शुरू से ही रुख रहा है। शिवसेना भाजपा की प्रमुख सहयोगी पार्टी के साथ ही केंद्र की राजग सरकार का हिस्सा भी है।
मुंहतोड़ जवाब कब देंगे गृह मंत्री?
राउत ने सवाल किया, ‘केवल यह कहना पर्याप्त नहीं कि ऐसे हमलों पर भारत की ओर से मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा। केंद्रीय गृह मंत्री एक गंभीर व्यक्ति हैं और हम उनका सम्मान करते हैं। लेकिन हम पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब कब देंगे?’ राउत की यह टिप्पणी गृह मंत्री के उस बयान के मद्देनजर आई है जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत की धरती पर यदि कोई आतंकवादी हमला हुआ तो वह करारा जवाब देगा। लेकिन करारा जवाब है क्या अभी तक हम रक्षात्मक कार्रवाई ही कर रहे हैं हमारे सेना के जवान और अधिकारी लगातार शहीद हो रहे हैं.

स्वाभाविक है कि ऐसे मौके पर विभिन्न प्रकार के बयान आयेंगे. भाजपा बिरोधी दल चुटकी भी ले सकते हैं. पर यह देश का मामला है. प्रधान मंत्री और गृह मंत्री का साधा हुआ बयान है और हमें यानी भारतीय जनता को सरकर के साथ पूर्ण सहमति ब्यक्त करनी चाहिए. शान्ति-वार्ता कायम रहे यह दोनों देश के हुक्मरान चाहते हैं. पर शांति और अमन के दुश्मन कभी नहीं कहेंगे कि भारत पाक संबंधों में मधुरता आये. ‘युद्ध’ किसी समस्या का हल नहीं हो सकता बल्कि लोकतान्त्रिक तरीके से मसाले को सुलझा लिया जाय वही बेहतर है. हाँ हमें चौकस रहना पड़ेगा और अपने ख़ुफ़िया तंत्र को और ज्यादा मजबूत करना होगा, ताकि जान-माल की बर्बादी को बचाया जा सके. दूसरे शक्तिशाली देश, यु. एन. ओ. ने भी प्रधान मंत्री के पकिस्तान दौरे की तारीफ की है, तो छोटे-मोटे संगठन के हमलों और नापाक इरादों से घबराने की जरूरत नहीं है, ऐसा मेरा मानना है. अमन पसंद लोग कभी भी युद्ध नहीं चाहेंगे क्योंकि युद्ध हर हाल में बरबादी लेकर ही आता है. अभी हमें अपनी अर्थ ब्यवस्था को मजबूत कर भारत को संपन्न राष्ट्र बनाने की आवश्यकता है, जिसके लिए प्रधान मंत्री दिन-रात अनवरत प्रयासरत हैं. पर, सजगता और एकजुटता जरूरी है. हर हाल में हमें अपने देश को सुरक्षित रखना है और विकास के पथ पर दौड़ाना है.  निश्चित ही बड़े अधिकारी और नेता इस तरफ अपना ध्यान केन्द्रित रक्खे होंगे, इसीलिये प्रधान मंत्री और गृह मंत्री ही आधिकारिक बयान दे रहे हैं. ऐसे मौके पर मीडिया को भी बहुत ज्यादा सम्हल कर रिपोर्टिंग करनी चाहिए. अगर हमारा देश सुरक्षित है, तो हम सभी सुरक्षित हैं. सेना के हौसले को सलाम और जयहिन्द! जय भारत ! 
– जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर. 

Saturday, 26 December 2015

२५ दिसंबर यानी बड़ा दिन!


२५  दिसंबर यानी बड़ा दिन! बड़ा दिन का काम भी बड़ा होना चाहिए. कहते हैं जाड़ों में दिन छोटे हो जाते हैं और भौगोलिक गणना के अनुसार २२ दिसंबर को सबसे छोटा दिन और सबसे बड़ी रात होती है. यानी कि २३ दिसंबर के बाद दिन फिर से बढ़ने लगता है. पर ठंढ में यह महसूस जल्द नहीं होता है. अचानक ही एक गड़ेरिये के घर में कुमारी मरियम के गोद में भगवान इशू मसीह का जन्म, एक नयी आशा और उमंग का संचार लेकर आता हैं. तभी से संभवत: इस दिन को ‘बड़ा दिन’ के रूप में मनाने लगे हैं. वैसे तो यह इसाई धर्म अवलम्बियों के लिए यह बहुत बड़ा त्योहार है, पर विश्व के हर कोने में यह त्योहार धूम-धाम से मनाया जाता है. स्कूलों, दफ्तरों में छुट्टियाँ होती है. काफी लोग इस दिन सैर सपाटे, पिकनिक आदि के लिए निकल पड़ते हैं. अब चूंकि यह बड़ा दिन है, इस दिन अनेक महान  हस्तियों का जन्म हुआ है. महामना मदन मोहन मालवीय और अटल बिहारी बाजपेयी के साथ पकिस्तान के पहले प्रधान मंत्री मोहम्मद अली जिन्ना और वर्तमान प्रधान मंत्री नवाज शरीफ का भी जन्म इसी दिन हुआ है.
अब बड़ा दिन है तो काम भी बड़े होने ही चाहिए जैसे कि हमारे प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी करते आये हैं. इसी २५ दिसंबर को श्री मोदी ने अफगानिस्तान के काबुल में नाश्ता करते हुए नवाज शरीफ को फोन पर उनके जन्म दिन की बधाई दी तो उन्होंने कहा – ‘प्लीज आइये न!’ और मोदी पहुँच भी गए उनके जन्म दिन की बधाई देने के साथ उनकी नातिन की सगाई में भी हिस्सा लिया, आशीर्वाद दिया और शाम को पहुँच गए श्री अटल बिहारी बाजपेयी के घर और उन्हें भी दी उनके जन्म दिन की बधाई! मोदी जी के इस ‘अनूठे पहल’ से पूरी दुनिया आश्चर्यचकित है तो अमेरिका ने इसे सकारात्मक करार दिया. भारत में भी पक्ष-विपक्ष के अपने-अपने तर्क हैं. पाकिस्तानी मीडिया और हाफिज सईद जैसे लोगों को भी यह मुलाकात रास नहीं आया. अब आइये जानते हैं एनडीटीवी के प्रख्यात पत्रकार रवीश कुमार क्या कहते हैं, इस मुलाकात पर...  
“कई बार किसी कदम की पहली प्रतिक्रिया भी देखी जानी चाहिए। जैसे ही खबर आई कि प्रधानमंत्री मोदी लाहौर जा रहे हैं, सुनकर ही अच्छा लगा। दुश्मनी हो या दोस्ती भारत-पाकिस्तान संबंधों में हम बहुत औपचारिक हो गए थे। पाकिस्तान को धमकाना चुनावी नौटंकी तो दो-चार नपे तुले वाक्यों में दोस्ती की बात उससे भी ज्यादा नकली लगने लगी थी। मोदी ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में पाक प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को बुलाकर ही संदेश दे दिया कि वे भारत-पाक संबंधों में एलान-वेलान का सहारा नहीं लेंगे। औपचारिक की जगह आकस्मिक नीति पर चलेंगे। फिर भी लोग औपचारिकता का ही रास्ता देखते रहे। संबंधों में कितना सुधार हुआ या हो रहा है यह तो अब नरेंद्र-नवाज़ ही जानें लेकिन दोनों ने मीडिया संस्थानों में भारत-पाकिस्तान बीट को मिट्टी में मिला दिया है!

लाहौर जाकर नरेंद्र मोदी ने दोस्ती की चाह रखने वाले दिलों को धड़का दिया है। जो लोग भारत-पाकिस्तान को भावुकता के उफान में देखते हैं उन्हें लाहौर जाकर प्रधानमंत्री ने करारा जवाब दिया है। प्रधानमंत्री ने खुद को भी करारा जवाब दिया है। उनके राजनैतिक व्यक्तित्व की धुरी में पाकिस्तान भी रहा है। लोकसभा चुनावों के दौरान इंडिया टीवी के मशहूर शो आपकी अदालत में कहा था कि पाकिस्तान के साथ यह लव लेटर लिखना बंद होना चाहिए। पाकिस्तान को उसी की भाषा में जवाब देना होगा। सबको लगा था कि लव लेटर वाला नहीं बल्कि लेटर बम वाला नेता मिल गया है!
मुल्कों की कोई एक भाषा नहीं होती। समय-समय पर भाषा का संदर्भ बदल जाता है। प्रधानमंत्री का लाहौर जाना मेरे लिए तो लव लेटर लिखने जैसा ही है। हर लिहाज़ से अच्छा है। जैसे ही खबर सुनी कि प्रधानमंत्री लाहौर उतरने वाले हैं, पहली बार लगा कि काश मैं भी होता उनके साथ! पाकिस्तान की उनकी नीति को जो लोग हमेशा उनके चुनावी भाषणों के फ़्रेम में देखने के आदी रहे हैं वे गलती कर रहे हैं। उन्होंने तब भी गलती की जब वे इन धमकियों को गंभीरता से ले रहे थे! अब भी गलती कर रहे हैं जो लाहौर यात्रा को लेकर बातचीत का ड्राफ्ट मांग रहे हैं।
लाहौर जाकर प्रधानमंत्री ने उन न्यूज एंकरों को भी समझा दिया है जो शहीद परिवारों और जवानों के प्रवक्ता बनकर अपने आपको सीमा पर खड़े जवान का दिल्ली में प्रहरी समझ रहे थे। दर्शक भी देख रहे होंगे कि यह लोग पाकिस्तान को लेकर नकली राष्ट्रवादी उन्माद फैला रहे थे। जिसके प्रभाव में सुषमा ने एक सर के बदले दस सर का बयान दिया था। अब कोई शहीदों के गांव घर जाकर भावुकता का उन्माद नहीं फैलाएगा। टीआरपीवादी की शक्ल में राष्ट्रवादी बनकर हर शहादत पर अवार्ड वापसी की बात करने की बचकानी हरकत नहीं करेगा। प्रधानमंत्री मोदी ने इन सबको अच्छा पाठ पढ़ाया है।
ठीक है कि सीमा पर होने वाली शहादत को लेकर राजनीतिक रूप से बीजेपी भी भाषाई उन्माद फैलाने में लगी थी लेकिन क्या यह बातचीत की बात करने वालों और उन्माद का विरोध करने वालों की जीत नहीं है। क्या बीजेपी आज पहले से बेहतर नहीं महसूस कर रही होगी? बिल्कुल उसे भी अच्छा लगा है कि उनके नेतृत्व में आगे बढ़ने की चाहत है। हम तो तब भी कहते थे कि सीमा पर गोलीबारी और आतंकवादी घटनाओं को उन्माद के प्रभाव में नहीं देखा जाना चाहिए। जो लोग चुनावी रैलियों में पाकिस्तान को सबक सिखाने वाला भाषण सुनकर लौटे थे उनके लिए यह कितना अच्छा मौका है। सीखने, समझने और सुधरने का मौका है कि चुनावी भाषणों पर ताली बजाने का सुख और राज चलाने की व्यावहारिकता का सुख-दुख अलग होता है। उन्हें कुछ वक्त के लिए अकेलापन लगेगा लेकिन वे भी समझ जाएंगे कि उनके नेता ने अच्छा कदम उठाया है।
प्रधानमंत्री मोदी की लाहौर यात्रा का स्वागत होना चाहिए। उन्होंने मीडिया, सोशल मीडिया और राजनीतिक समाज से पाकिस्तान को लेकर उन्माद फैलाने वालों को किनारे लगाने का सुनहरा मौका दिया है। मनमोहन सिंह में यह साहस नहीं था। वे बीजेपी के हमलों के आगे झुक गए। बिरयानी वाले संवाद से ऐसे डर गए जैसे पाकिस्तान में बिरयानी ही न बनती हो। जैसे पाकिस्तानी तभी बिरयानी खाते हैं जब हिंदुस्तानी खिलाते हैं ! प्रधानमंत्री मोदी साहसिक हैं। जोखिम लिया है तो कुछ भी हो सकता है। अच्छा भी हो सकता है।
पाकिस्तान और भारत के बीच कुछ तो चल रहा है। हो सकता है कोई पर्दे के पीछे से चला भी रहा हो। युद्ध विकल्प नहीं है वरना पश्चिमी ताकतें अफगानिस्तान, सीरिया और इराक जैसे हालात इधर भी पैदा कर देंगी। भारत-पाकिस्तान के बीच कुछ भी अचानक और आमूलचूल नहीं होगा। यही क्या कम है कि दोनों नेता जब चाहें एक दूसरे के यहां आने जाने लगें। बस जरा स्टील कारोबारी की मध्यस्थता या उपस्थिति की बात खटकती है। जिस मसले के लिए सीमा पर हमारे जवान रोज शहीद हो रहे हैं उसके लिए गुप्त रूप से किसी कारोबारी की जरूरत पड़े, थोड़ा ठीक नहीं लगता। अगर कारोबारी यह काम कर सकते हैं तो कूटनीति वाले विद्वानों को कुछ दिन के लिए आराम देने में कोई हर्ज नहीं !
बेशक चुनौतियां आएंगी तब हो सकता है कि भारत-पाकिस्तान को लेकर फिर से सवाल बदल जाएं। लेकिन इसी अंदेशे में नकारात्मक हुआ जाए यह ठीक नहीं। जब ऐसी कोई चुनौती आएगी तो प्रधानमंत्री जवाब देंगे कि उन्हें ऐसा क्या लगा था कि वे पाकिस्तान पर भरोसा करने लगे। लाहौर जाने लगे। अगर आप इस सवाल का जवाब चाहते ही हैं तो किसी बिजनेस बीट के पत्रकार से पूछ लीजिएगा। भारत-पाक और कश्मीर बीट के प्रोफेसर हो चुके पत्रकारों को तो यही समझ नहीं आ रहा कि पीएम जो भी कर रहे हैं उन्हें खबर क्यों नहीं लग पाती! – रवीश कुमार.
इसीलिए मैंने शुरू में ही लिखा था, बड़ा दिन में बड़ा काम. बड़े-बड़े लोग बड़ी-बड़ी बातें. हमलोगों को इन सबमे ज्यादा सर नहीं खपाना चाहिए. हमलोगों को अपने काम से काम रखना चाहिए. हमें ये उम्मीद करनी चाहिए कि भारत का औद्योगिक विकास बुलेट ट्रेन की स्पीड से होगा. नौजवानों को रोजगार मिलेगा. देश के किसान भी आधुनिक तरीके से खेती करेंगे. और आत्महत्या के बारे में तो कोई सोचेगा भी नहीं. उनके उत्तराधिकारी बच्चे भी चमकती दुनिया के सपन नहीं देखेंगे बल्कि खेती को पुस्तैनी कारोबार को ही आगे बढ़ाएंगे. दलहन तेलहन प्याज और खाद्यान्नों की कमी होगी ही नहीं. बुन्देलखंड के लोग घास और जंगली पौधों में पौष्टिकता ढूंढ ही लेंगे. आदिवासियों, बनवासियों, बेरोजगारों को कोई भड़काकर नक्सली या आतंकवादी नहीं बनाएगा. सभी मिलकर देश का विकास करेंगे यानी ‘सबका साथ सबका विकास’ यही तो मूल मन्त्र है ! बस इस मन्त्र का जाप करते रहें, और मन में राम माधव की तरह पाकिस्तान, भारत, बंगला देश एक होने का सपना देखते रहें! जेटली, कीर्ति, शत्रु आदि घर की बात है इसे मिल बैठकर सुलझा/समझा लेंगे. जयहिंद!
-    जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर  

Saturday, 19 December 2015

बचाव की मुद्रा में भाजपा

कहते हैं, गेंद कभी कभी लौटकर अपने ही खेमे में गोल कर देता है. इस बार ऐसा ही कुछ हुआ..अरविन्द केजरीवाल के मुख्य सचिव राजेन्द्र कुमार के दफ्तर पर छापामारी करते हुए CBI मुख्य मंत्री के ऑफिस में भी फाइलें तलाशा करने लगी. बस फिर क्या था. केजरीवाल ने इसे मुद्दा बना लिया और गेंद को अरुण जेटली की तरफ उछाल दिया. DDCA में कथित घोटाले की फाइल अभी मुख्य मंत्री के दफ्तर में थी. केजरीवाल के अनुसार जेटली फंसते हुए नजर आ रहे थे कि उन्होंने CBI को मुख्या मंत्री दफ्तर में भेज दिया. केजरीवाल को जैसे ही मालूम हुआ ट्वीट पर ट्वीट करते हुए उन्होंने प्रधान मंत्री को कायर और मनोरोगी तक कह दिया. हालाँकि उनके इन शब्दों की चारो तरफ निंदा हुई है पर उन्हें अफ़सोस कम हुआ है, कहने लगे 'मेरे तो शब्द ख़राब हैं तुम्हारे तो कर्म ही ख़राब है. तुम अपने कर्मों की माफी मांग लो मई अपने शब्दों के लिए माफी मांग लूँगा'. प्रधान मंत्री पर निशाना साधने का बस मौका चाहिए था. वह मिल गया.
वे DDCA की वित्तीय अनियमितता को लेकर अरुण जेटली को घेरते रहे और अरुण जेटली पहले तो हलके में लिया और इसे बकवास बताया बाद में कई भाजपा नेता /नेत्रियों ने उनका बचाव किया. खुद ब्लॉग लिखकर सफाई दी. तब भी मन नहीं माना तो प्रेस कांफ्रेंस के जरिये अपने को पाक-साफ़ साबित करने की कोशिश की. पर काफी सालों से पीछे पड़े कीर्ति आजाद  को स्वर्णिम मौका मिल गया. कीर्ति आजाद ने तब भी जेटली पर हमला किया था, जब सुषमा स्वराज ललितगेट मामले में  फंसी थी.  अब तो वे कह रहे हैं की अरविन्द केजरीवाल को तो १५% मालूम है बाकी का ८५% का खुलासा वे करेंगे. यहाँ तक कि अमित शाह के हिदायत को भी नहीं माना और रविवार को प्रेस कांफ्रेंस करने की ठान ली है. पहले से ही बागी तेवर वाले शत्रुघ्न सिन्हा ने भी कीर्ति आजाद का समर्थन कर दिया.
इधर आप ने शुक्रवार को प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से जेटली से पांच सवालों का जवाब पुछा है. 'आप' के 5 सवाल ये रहे -
१.      अरुण जेटली ने कहा, मेरे ऊपर कोई व्यक्तिगत आरोप नहीं है जबकि कीर्ति आजाद ने आपको ही 13 सितंबर को पत्र लिखकर आरोप लगाए।
२.      क्या ये सही नहीं कि आपने ओएनजीसी पर दबाव देकर 5 करोड़ रुपये हॉकी इंडिया को दिलवाए, क्या ये कनफ्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट नहीं है?
३.      'आप' ने कहा, 114 करोड़ स्टेडियम बनाने वाली कंपनी को दिए, लेकिन उस कंपनी को केवल 57 करोड़ ही मिले, किसको दिए बाकी 57 करोड़, उन कंपनियों से आपका क्या रिश्ता है?
४.       9 कंपनियां ऐसी हैं जिनका पता भी एक है, क्या ये फर्ज़ी नहीं? क्या आपने इन पर कोई कार्रवाई की अध्यक्ष होने के नाते?
५.      आपने माना कि डीडीसीए में अनियमितता थी, लेकिन वह कानून के हिसाब से दंडनीय है। आपने ये क्यों नहीं लिखा, क्यों आपने पूरा सच नहीं बताया?
गौरतलब है कि गुरुवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस करके आम आदमी पार्टी ने इस घोटाले पर पूरा ब्यौरा दिया और जेटली पर कई गंभीर आरोप लगाए। हालांकि जेटली और बीजेपी दोनों ने इन आरोपों को सिरे से नकार दिया।
उधर नेशनल हेराल्ड केस में फंसे कांग्रेस अध्यक्ष और उपाध्यक्ष सोनिया और राहुल कोर्ट का सामना कर बेल पर छूट भी गए, वह भी केवल पचास हजार के निजी मुचलके पर...  स्वामी की मांग के अनुसार इनका पासपोर्ट भी जब्त नहीं हुआ. पर स्वामी खुश हैदोनों को कोर्ट के अपराधी वाले कटघरे में खड़ा करा दिया. इतनी बेइज्जती ही काफी है. सुब्रमण्यम स्वामी ने ऐसे समय में ललकारा कि संसद सत्र कई दिनों तक बाधित रहा. अब जेटली वाला मामला आ गया. विपक्ष को मौका चाहिए और संसद में अँटके हुए बिल न पास होने से प्रधान मंत्री की क्षमता पर सवाल उठना लाजिमी है. विकास के कदम थमे हैं, उन्हें कौन आगे बढ़ाएगा.
वरिष्ठ पत्रकार हरिशंकर ब्यास केजरीवाल के द्वारा प्रयुक्त अपशब्द के बारे में लिखते हैं- 
“बहुत खराब हो रहा है, कुछ भी हो जा रहा है! बानगी दिल्ली मुख्यमंत्री के दफ्तर में सीबीआई का छापा है और उस पर केजरीवाल का नरेंद्र मोदी को मनोरोगीबताना है। इंदिरा गांधी से ले कर आज तक कभी यह नहीं सुना कि सीबीआई मुख्यमंत्री दफ्तर में छापा मारने गई। न यह सुना कि किसी नेता ने, मुख्यमंत्री ने भारत के प्रधानमंत्री को मनोरोगीकहा! इन दोनों बातों का गहरा, दीर्घकालीन असर होना है। पता नहीं मोदी सरकार में किस रणनीतिकार ने केजरीवाल के सचिवालय में सीबीआई भेजने का आईडिया दिया पर जिसने भी दिया उसने मोदी सरकार के तमाम विरोधियों को एकजुट बनवाया। जब संसद चल रही है। जब सरकार को जीएसटी बिल पास कराने के संसद में लाले पड़े हुए हैं, ऐसे वक्त केजरीवाल को बकझक करने, विपक्ष को गोलबंद बनवाने का मौका देने की भला क्या तुक थी? इस पर जितना सोचेंगे, दिमाग चकरा जाएगा। यही निष्कर्ष बनेगा कि नरेंद्र मोदी का समय खराब है। एक के बाद एक गलतियों का, विनाशकाले विपरीत बुद्धि का फेर बना है।
वही नरेंद्र मोदी को मनोरोगीबताने वाली केजरीवाल की पंगेबाजी का जहां सवाल है वह केजरीवाल की धूर्तता, महत्वकांक्षा की हकीकत लिए हुए है। मतलब अरविंद केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी को कायर, मनोरोगी बता कर अपने को मनोरोगी बताया है।
अपने को याद नहीं पड़ता कि इमरजेंसी में भी किसी ने इंदिरा गांधी को मनोरोगी बताया हो। भारत के इतिहास में प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को सायकोपैथ, मनोरोगी या पागल करार देने का काम सेकुलर जमात का ही नरेंद्र मोदी के खिलाफ रहा है। 2002 के दंगों के बाद सेकुलर मीडिया व आशीष नंदी, एमजे अकबर आदि टीकाकारों ने जरूर नरेंद्र मोदी को ले कर ऐसे तल्ख शब्द लिखे थे। बाद के गुजरात चुनाव में सोनिया गांधी की जुबां से मौत का सौदागर शब्द निकला था। मगर आज प्रधानमंत्री के पद पर नरेंद्र मोदी हैं। ऐसे में नरेंद्र मोदी के लिए अरविंद केजरीवाल का मनोरोगी शब्द का उपयोग धूर्त राजनीति है। धूर्तता के साथ उनकी मोदी के आगे पोजिशनिंग है। अरविंद केजरीवाल ने भावावेश में नहीं बल्कि सोच समझ कर ट्वीट करके नरेंद्र मोदी पर हमला बोला। केजरीवाल पहले दिन से मोदी के आगे अपनी पोजिशनिंग चाहते रहे हैं। वे मानते हैं कि 2012 के अन्ना आंदोलन से उन्होंने ही कांग्रेस विरोधी माहौल बनवाया। वे जनता के आगे विकल्प थे लेकिन नरेंद्र मोदी कूद पड़े। उस नाते 2012 के आंदोलन के वक्त से केजरीवाल मनोरोगी हैं। मनोरोगी का मतलब पागलपन की हद तक का महत्वकांक्षी भी होता है। अरविंद केजरीवाल 2012 में अन्ना हजारे से अलग होने, आप पार्टी बनाने के वक्त से सत्ता की महत्वकांक्षा के मनोरोगी हैं और शायद 2019 तक रहेंगे। उन्होंने अपनी महत्वकांक्षा में दस तरह के झूठ बोले। झूठे वादे किए। साथियों को धोखा दिया। प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव आदि को पार्टी से बाहर निकाला। तमाम तरह के नाटक किए। मैं सच्चा, मैं ईमानदार, मैं काबिल, मैं गरीब पैरोकार, मैं जनप्रिय की अहमन्यता में केजरीवाल ने देश भर में अपनी पार्टी को लोकसभा चुनाव लड़वा डाला तो खुद भी नरेंद्र मोदी के आगे चुनाव लड़ने के लिए वाराणसी पहुंचे। जुम्मे-जुम्मे चार दिन में केजरीवाल ने अपने को प्रधानमंत्री की दौड़ में तब उतारा था।
सो नरेंद्र मोदी को अब केजरीवाल को जवाब देना है। केजरीवाल ने हल्ला बोल अपने को मैदान में जैसे उतारा है उसकी कल्पना मोदी सरकार के रणनीतिकारों को शायद नहीं रही होगी। पर बात अब रणनीतिकारों की नहीं रही। सीधे नरेंद्र मोदी बनाम अरविंद केजरीवाल के मध्य का आगे मुकाबला है। इसमें आगे बहुत कुछ होगा।“ - हरिशंकर व्यास

सोनिया और मनमोहन सिंह को चाय पिलाने से भी कोई फायदा नजर नहीं आया और GST बिल के लटक जाने की पूरी पूरी संभावना दीख रही है. सबका साथ सबका विकास, से अलग अपने ही दगा देते नजर आये. बड़ी मुश्किल है! मोदी चाहे अपना जितना गुणगान कर लें, पर उनके ही समर्थकों या अंध भक्तों की करनी का फल है कि उनकी लोकप्रियता में लगातार गिरावट जारी है. बिहार चुनाव के बाद, गुजरात के निकाय चुनाव में ग्रामीण इलाकों में भाजपा पिछड़ती नजर आयी और अब झारखण्ड के लोहरदगा में विधान सभा के उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी की जीत. खलबली तो मची है. अभी भाजपा बचाव की मुद्रा में है और कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दल आक्रामक... - जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर