Sunday 13 September 2015

दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन



दसवें विश्व हिंदी सम्मलेन की शुरुआत ‘हिंदी का जयघोष गुंजाकर’ कबतक गूंजेगा? पता नहीं, पर कुछ बातें इसमें कही गयी है जो तथ्यात्मक रूप से सत्य है. और भी बातें जोड़ी जा सकती थी. जैसे सोसल साइट्स में हिंदी का उपयोग अब काफी हद तक होने लगा है. हिंदी में ब्लॉग भी काफी लिखे जाने लगे हैं. अपने विचार को अपनी मातृभाषा में व्यक्त करने का बहुत बड़ा सशक्त माध्यम बन गया है.
महेश श्रीवास्तव द्वारा रचित इस गीत पर भी एक नजर –
भाषा संस्कृति प्राण देश के, इनके रहते राष्ट्र रहेगा।
हिन्दी का जय-घोष गुँजाकर, भारत माँ का मान बढ़ेगा।।
हिन्दी का अमृत ओंठों पर, वाणी में हो उसका वंदन।
मन में लेखन में हिन्दी हो, प्रेम भाव हो और समर्पण।।
भारत में जन्मी हर भाषा, जननी का अर्न्तमन पहने।
हिन्दी की बहनें प्यारी सब, भारत माता के हैं गहने।।
हिन्दी भाषा के गौरव से, युवा सभी ऊर्जामय होंगे।
देवनागरी होगी व्यापक, कम्प्यूटर हिन्दीमय होंगे।।
शुरू स्वयं से करें, त्याग दें, हीन ग्रन्थि से भरा मन।
भर दें हिन्दी भाव भक्ति से, पूरे भारत का जन गण मन।
भारत संस्कृति प्राण देश के ….
स्वागत भाषण में शिवराज सिंह चौहान ने हिंदी को गुजरात से जोड़ा पहले महात्मा गांधी और अब मोदी. मतलब साफ़ है! रही-सही कसर सुषमा जी ने पूरी कर दी. उन्होंने भी प्रधान मंत्री का जमकर स्तुति-गान किया. जब प्रधान मंत्री ने माइक सम्हाला तो लगता था माइक को छोड़ेंगे ही नहीं. ‘हवाबाज’ से ‘हवालाबाज’ शब्दों का प्रयोग भी हिंदी के मंच से किया. राजनीतिक भाषणों में नए-नए शब्दों का प्रचलन आम बात है. इन सबसे हिंदी समृद्ध ही होनेवाली है. हिंदी की कमजोरी यही है कि हम संस्कृत के तत्सम शब्दों पर ही निर्भर रहते हैं. न तो नए शब्दों का सृजन करते हैं न ही अन्य भाषाओँ के शब्दों को आत्मसात कर जाते हैं. जबकि अंग्रेजी इनमे माहिर है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश की हर भाषा को अमूल्य बताते हुए कहा कि भारत में भाषाओं का अनमोल खजाना है और अगर इन्हें हिंदी से जोड़ा जाए तो मातृभाषा मजबूत होगी। ‘‘भाषा की भक्ति बहिष्कृत करने वाली नहीं होनी चाहिए बल्कि यह सम्मिलित करने वाली, सबको जोड़ने वाली होनी चाहिए।’’ देश की एकता के लिये हिन्दी सहित देश की भाषाओं की समृद्धि के लिये कभी हिन्दी-तमिल, कभी हिन्दी-बांग्ला, कभी हिन्दी-डोगरी की कार्यशालाएं आयोजित की जानी चाहिये। इससे हिन्दुस्तान की सभी बोलियों और भाषाओं में जो उत्तम है उन्हें हिन्दी को उन्नत बनाने में मदद मिलेगी और ऐसे प्रयास समय समय पर होते रहने चाहिये। भाषाशास्त्रियों का मानना है कि 21वीं सदी के अंत तक विश्व की 6,000 में से 90 प्रतिशत भाषाएं लुप्त हो सकती हैं। ‘‘आने वाले दिनों में डिजिटल दुनिया में अंग्रेजी, चीनी और हिन्दी का दबदबा बढ़ने वाला है।’’ महात्मा गांधी, विनोबा भावे और राजगोपालाचारी आदि के इस प्रयास को अगर आगे बढ़ाया गया होता तो राष्ट्र की एकता के लिये देश की सभी भाषाओं में समन्वय का काम हो चुका होता। उन्होंने कहा कि हिन्दी भाषा का आंदोलन देश के गैर हिन्दी भाषी लोगों ने चलाया। भाषा जड़ नहीं हो सकती, जीवन की तरह भाषा में भी चेतना होती है। उन्होंने कहा कि किसी चीज के लुप्त हो जाने पर उसके मूल्य का पता चलता है। इसलिये हर पीढ़ी का दायित्व है कि वह अपनी भाषा को समृद्ध करे और संजोये। भारत का कद बढ़ने के साथ हिन्दी के प्रति दुनिया में बढ़ते रुझान का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि जिस भी देश में मैं जाता हूं वहां के लोग उनसे ‘सबका साथ, सबका विकास’ का जिक्र करते हैं।
भारत में 32 साल बाद हो रहे विश्व हिन्दी सम्मेलन में लगभग 40 देशों के प्रतिनिधियों ने भागीदारी की। तीन दिवसीय सम्मेलन के उद्घाटन समारोह में मोदी के अलावा विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी, गोवा की राज्यपाल मृदुला सिन्हा, केन्द्रीय मंत्रियों में रविशंकर प्रसाद, हर्षवर्धन, वी के सिंह, किरण रिजीजू, और मॉरीशस की शिक्षा मंत्री लीला देवी आदि मंच पर उपस्थित थीं। हिंदी के विद्वान के रूप में श्री अशोक चक्रधर की उपस्थिति मात्र ही नजर आयी.
10वां विश्व हिंदी सम्मेलन हिंदी के सरकारीकरण, साहित्य और भाषा को लेकर सरकार की ‘विभाजनकारी’ नीति के कारण किसी तरह का असर छोड़ने में नाकाम होता नजर आया। लेखकों का मानना है कि यह आयोजन हिंदी के विस्तार से ज्यादा उसके शुद्धीकरण की कवायद है। हिंदी के लेखकों का यह भी कहना है कि इस सरकारी आयोजन से लेखकों को इसलिए दूर रखा गया कि सभी भाषाओं के ज्यादातर लेखक रूढ़िवादी और कट्टरपंथी नहीं हैं और ऐसे लोग उनके लिए अनुकूल नहीं बैठते। मालूम हो कि हिंदी सम्मेलन की पूर्व संध्या पर विदेश राज्य मंत्री वीके सिंह ने लेखकों के शराब पीने को लेकर कथित तौर पर कड़ी टिप्पणी ही नहीं की, बल्कि यह भी कहा कि ऐसे लेखकों को सम्मेलन में नहीं बुलाया गया। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर साफ कहा कि यह सम्मेलन साहित्य केंद्रित नहीं, भाषा केंद्रित है और प्रधानमंत्री ने इसकी पुष्टि की। विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी को लेकर किसी तरह की गंभीर चर्चा की उम्मीद उसी वक्त खत्म हो गई जब विचार-विमर्श के विषयों की फेहरिस्त सामने आई थी। सम्मेलन के दौरान जिन विषयों पर अलग-अलग सत्र रखे गए उनमें प्रशासन में हिंदी, गिरिमिटिया देशों में हिंदी, विज्ञान के क्षेत्र में हिंदी, संचार और सूचना प्रौद्योगिकी में हिंदी, बाल साहित्य में हिंदी जैसे विषय शामिल थे। इससे स्पष्ट होता है कि यह केवल सरकार के कामकाज में हिंदी को बढ़ावा देने तक सीमित है। भोपाल में तमाम सत्रों में चर्चा भी इसी दृष्टि से हुई। गुरुवार को एक सत्र के दौरान सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कंप्यूटर और स्मार्ट फोन के उपयोग के मामले में देश के लोगों को आगे बताते हुए कहा कि हमें छोटे कामगारों को स्मार्ट फोन के जरिए रोजगार उपलब्ध कराने होंगे। उन्होंने यह भी बताया कि उनके विभाग ने हिंदी के कौन-कौन से ‘ऐप्स’ तैयार किए हैं। उद्घाटन भाषण में प्रधानमंत्री ने हिंदी में दूसरी भाषाओं के शब्दों को लेने पर जोर दिया। उन्हें स्पष्ट करना चाहिए था कि दूसरी भाषाओं के शब्द क्या बाबू लोग सरकारी कामकाज की हिंदी में इस्तेमाल करेंगे? जहां तक हिंदी साहित्य का सवाल है, प्रधानमंत्री के सलाहकारों को पता होना चाहिए कि हिंदी दूसरी भाषाओं और खास तौर पर बोलियों से लिए गए शब्दों के कारण की समृद्ध हुई है और इनका हिंदी के विकास में पहले ही बड़ा योगदान रहा है। वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडेय ने कहा कि ये सब लोग (भाषा की बात करने वाले भाजपा के लोग) न तो भाषा जानते हैं और न साहित्य। इनसे कोई पूछे कि वाल्मीकि, व्यास, भवभूति और कालिदास को अलग कर क्या संस्कृत का कोई अस्तित्व होगा? इसी तरह साहित्य को छोड़ कर हिंदी क्या होगी? उन्होंने कहा कि हिंदी के लिए लड़ने का काम हिंदी के साहित्यकारों ने किया। भारतेंदु, रामचंद्र शुक्ल और महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी की लड़ाई लड़ी। इसलिए इन्हें हिंदी भाषा से अलग कैसे किया जा सकता है? पांडेय ने कहा कि भाषा का व्यवस्थित और परिष्कृत रूप साहित्य में ही व्यक्त होता है। नेताओं की हिंदी से तो गाय पर निबंध भी नहीं लिखा जा सकता। सवाल है कि एक तरफ भाजपा और राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ संस्कृतनिष्ठ हिंदी की बात करते हैं तो दूसरी ओर अरबी, फारसी, अंग्रेजी और अन्य भारतीय भाषाओं व बोलियों के शब्दों को क्या कामकाज और बोलचाल में खुले मन से स्वीकार करेंगे? विश्व हिंदी सम्मेलन में इसी रवैये के कारण सरकारी से लेकर निजी टीवी चैनलों और राष्ट्रीय अखबारों में सम्मेलन की चर्चा नाममात्र की है। इससे ज्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भोपाल पहुंच कर हिंदी सम्मेलन से पूर्व की गई ‘हवालाबाज’ वाली टिप्पणी हिट रही. वरिष्ठ कथाकार और ‘समयांतर’ के संपादक पंकज बिष्ट का कहना है कि भाषा को बनाने में लेखकों का योगदान टकसाली भाषा बनाने वालों से अलग है। साहित्यकारों ने सांस्कृतिक-सामाजिक जरूरतों के हिसाब से शब्दों (आंचलिक) का इस्तेमाल किया। इस मामले में उन्होंने फणीश्वरनाथ रेणु और शैलेश मटियानी के साहित्य का उल्लेख किया। पश्चिम पंजाब से बंगाल तक हिंदी का विस्तार यों ही नहीं हो गया। प्रधानमंत्री के अपने वक्तव्य में इस बात को बड़े गर्व से कहा था कि हिंदी भाषा एक बहुत बड़ा बाजार बनने वाली है। सरकार को यह भी तय करना होगा कि हिंदी को बाजार बनाना है या उसे समृद्ध भाषा बनाना है। बाजार बनाने से हिंदी वह भाषा कभी नहीं रहेगी जिसकी शुद्धता की वकालत भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस करते हैं। वह विज्ञापनों वाली खिचड़ी भाषा बन कर रह जाएगी। ओम थानवी ने मोदी के भाषण में कुल ५६ अंग्रेजी के शब्दों को ढूंढ निकाला तो जापान के प्रोफ़ेसर टोमियो ने भी मोदी के भाषण को इसलिए पसंद नहीं किया क्योंकि वे अंग्रेजी के शब्दों का धरल्ले से इस्तेमाल कर रहे थे. टोमियों की नजर में भारतीय लोग अंग्रेजी को ज्यादा महत्व देते हैं. कुल मिलाकर यह सम्मलेन सरकारी आयोजन बन कर रह गया. हिंदी के विद्वानों, पत्रकारों को भी इस सम्मलेन से दूर रक्खा गया. इसलिए भी उद्घाटन भाषण के बाद के किसी कार्यक्रम की विशेष चर्चा नहीं हुई. फिर कैसे इसे भारत में आयोजित “विश्व हिंदी का सम्मलेन” कहा जाय?
– जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.

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