Sunday, 26 February 2017

जमशेदजी नुसेरवान जी टाटा : महान दूरदर्शी उद्योगपति

(3 मार्च को उनकी जयंती पर विशेष प्रस्तुति)
जमशेदजी टाटा (३ मार्च १८३९ - १९ मई १९०४) भारत के महान उद्योगपति तथा विश्वप्रसिद्ध औद्योगिक घराने टाटा समूह के संस्थापक थे। उनका जन्म सन् १८३९ में गुजरात के एक छोटे से कस्बे नवसारी में हुआ था, उनके पिता जी का नाम नुसेरवानजी व उनकी माता जी का नाम जीवनबाई टाटा था। पारसी पादरियों के अपने खानदान में नुसेरवानजी पहले व्यवसायी थे। भाग्य उन्हें बम्बई ले आया, जहाँ उन्होंने व्यवसाय (धंधे) में कदम रखा। जमशेदजी १४ साल की नाज़ुक उम्र में ही पिताजी का साथ देने लगे। जमशेदजी ने एल्फिंस्टन कॉलेज (Elphinstone College) में प्रवेश लिया और अपनी पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने हीरा बाई दबू से विवाह कर लिया था। वे १८५८ में स्नातक हुए और अपने पिता के व्यवसाय से पूरी तरह जुड़ गये।
वह दौर बहुत कठिन था। अंग्रेज़ अत्यंत बर्बरता से १८५७ की क्रान्ति को कुचलने में सफल हुए थे। २९ साल की आयु तक जमशेदजी अपने पिताजी के साथ ही काम करते रहे। १८६८ में उन्होंने 21000 रुपयों के साथ अपना खुद का व्यवसाय शुरू किया। सबसे पहले उन्होंने एक दिवालिया तेल कारखाना ख़रीदा और उसे एक रुई के कारखाने में तब्दील कर दिया तथा उसका नाम बदल कर रखा - एलेक्जेंडर मिल (Alexender Mill)। दो साल बाद उन्होंने इसे खासे मुनाफ़े के साथ बेच दिया। इस पैसे के साथ उन्होंने नागपुर में १८७४ में एक रुई का कारखाना लगाया। महारानी विक्टोरिया ने उन्हीं दिनों भारत की रानी का खिताब हासिल किया था और जमशेदजी ने भी वक़्त को समझते हुए कारखाने का नाम इम्प्रेस्स मिल (Empress Mill) (Empress का मतलब महारानी’) रखा।
जमशेदजी एक अलग ही व्यक्तित्व के मालिक थे। उन्होंने न केवल कपड़ा बनाने के नये-नये तरीक़े ही अपनाये बल्कि अपने कारखाने में काम करनेवाले श्रमिकों का भी खूब ध्यान रखा। उनके भले के लिए जमशेदजी ने अनेक नयी व बेहतर श्रम-नीतियाँ अपनाईं। इस नज़र से भी वे अपने समय में कहीं आगे थे। जमशेदजी के अनेक राष्ट्रवादी और क्रान्तिकारी नेताओं से नजदीकी सम्बन्ध थे, इनमें प्रमुख थे,दादाभाई नौरोजी और फिरोजशाह मेहता। जमशेदजी पर और उनकी सोच पर इनका काफी प्रभाव था।
उनका मानना था कि आर्थिक स्वतंत्रता ही राजनीतिक स्वतंत्रता का आधार है। जमशेदजी के दिमाग में तीन बड़े विचार थे - एक अपनी लोहा व स्टील कम्पनी खोलना; दूसरा जगत प्रसिद्ध अध्ययन केन्द्र स्थापित करना; व तीसरा जलविद्युत परियोजना (Hydro-electric plant) लगाना। दुर्भाग्यवश! उनके जीवन काल में तीनों में से कोई भी सपना पूरा न हो सका, पर वे बीज तो बो ही चुके थे, एक ऐसा बीज जिसकी जड़ें उनकी आने वाली पीढ़ी ने अनेक देशों में फैलायीं। जो एक मात्र सपना वे पूरा होता देख सके वह था - होटल ताजमहल। यह दिसम्बर 1903 में 4,21,00,000 रुपये के शाही खर्च से तैयार हुआ। इसमें भी उन्होंने अपनी राष्ट्रवादी सोंच को दिखाया था। उन दिनों स्थानीय भारतीयों को बेहतरीन यूरोपियन होटलों में घुसने नही दिया जाता था। ताजमहल होटल इस दमनकारी नीति का करारा जवाब था।
भारतीय औद्योगिक क्षेत्र में जमशेदजी का योग असाधारण महत्त्व रखता है। इन्होंने भारतीय औद्योगिक विकास का मार्ग ऐसे समय में प्रशस्त किया, जब उस दिशा में केवल यूरोपीय, विशेषत: अंग्रेज ही कुशल समझे जाते थे। इंग्लैड की प्रथम यात्रा से लौटकर इन्होंने चिंचपोकली के एक तेल मिल को कताई-बुनाई मिल में परिवर्तित कर औद्योगिक जीवन का सूत्रपात किया। किन्तु अपनी इस सफलता से उन्हें पूर्ण सन्तोष न मिला। पुन: इंग्लैंड की यात्रा की। वहाँ लंकाशायर से बारीक वस्त्र की उत्पादन विधि और उसके लिए उपयुक्त जलवायु का अध्ययन किया। इसके लिए उन्होंने नागपुर को चुना और वहाँ वातानुकूलित सूत मिलों की स्थापना की।
औद्योगिक विकास कार्यों में जमशेदजी यहीं नहीं रूके। देश के सफल औद्योगीकरण के लिए उन्होंने इस्पात कारखानों की स्थापना की महत्त्वपूर्ण योजना बनायी। ऐसे स्थानों की खोज की जहाँ लोहे की खदानों के साथ कोयला और पानी सुविधा प्राप्त हो सके। अंतत: आपने बिहार के जंगलों में सिंहभूमि(अब झारखण्ड) जिले में वह स्थान (इस्पात की दृष्टि से बहुत ही उपयुक्त) खोज निकाला।
जमशेदजी की अन्य बड़ी उल्लेखनीय योजनाओं में पश्चिमी घाटों के तीव्र जलप्रपातों से बिजली उत्पन्न करनेवाला विशाल उद्योग है, जिसकी नींव ८ फ़रवरी १९११ को लानौली में गवर्नर द्वारा रखी गयी। इससे बम्बई की समूची विद्युत आवश्यकताओं की पूर्ति होने लगी।
इन विशाल योजनाओं को कार्यान्वित करने के साथ ही टाटा ने पर्यटकों की सुविधा के लिए बम्बई में ताजमहल होटल खड़ा किया जो पूरे एशिया में अपने ढंग का अकेला है।
सफल औद्योगिक और व्यापारी होने के अतिरिक्त सर जमशेदजी उदार चित्त के व्यक्ति थे। वे औद्योगिक क्रान्ति के अभिशाप से परिचित थे और उसके कुपरिणामों से अपने देशवासियों, विशेषत: मिल मजदूरों को बचाना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने मिलों की चहारदीवारी के बाहर उनके लिए पुस्तकालयों, उद्दानों (पार्कों), आदि की व्यवस्था के साथ-साथ दवा आदि की सुविधा भी उन्हें प्रदान कीं।
टाटा स्टील (पूर्व में टाटा आयरन ऐंड स्टील कंपनी लिमिटड) अर्थात टिस्को के नाम से जाने जाने वाली यह भारत की प्रमुख इस्पात कंपनी है। जमशेदपुर स्थित इस कारखाने की स्थापना १९०७ में की गयी थी। यह दुनिया की पांचवी सबसे बडी इस्पात कंपनी है जिसकी वार्षिक उत्पादन क्षमता २८ मिलियन टन है। कम्पनी का मुख्यालय मुंबई में स्थित है। यह बृहतर टाटा समूह की एक अग्रणी कंपनी है। कंपनी का मुख्य प्लांट जमशेदपुर, झारखण्ड में स्थित है हलाकि हाल के अधिग्रहणो के बाद इसने बहुराष्ट्रीय कम्पनी का रूप हासिल कर लिया है जिसका काम कई देशों में होता है। वर्ष २००० में इसे दुनिया में सबसे कम लागत में इस्पात बनाने वाली कंपनी का खिताब भी हासिल हुआ। २००५ में इसे दुनिया में सर्वश्रेष्ट इस्पात बनाने का खिताब भी मिला था। वर्ष २००७ के आंकडो के अनुसार इसमें लगभग ८२,७०० कर्मचारी कार्यरत थे।
आगामी 3 मार्च को स्वर्गीय जे एन टाटा की १७८ वीं जयंती समारोह के दिन उन्हें श्रद्धांजलि दी जायेगी। मुख्य समारोह टाटा स्टील, जमशेदपुर के मुख्य गेट के सामने मनाया जाता है। जहाँ कारखाने के सभी कर्मचारी, अधिकारी, टाटा समूह के निदेशक मंडल के सदस्य गण के साथ टाटा समूह के नवनियुक्त चेयरमैन श्री एन चंद्रशेखर के साथ रतन टाटा मुख्य अतिथि के रूप में टाटा साहब की प्रतिमा के सम्मुख  अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे। मुख्य गेट के आगे ही जमशेदपुर का मुख्य डाकघर है वहां भी टाटा साहब की प्रतिमा लगाई गयी है। जमशेदपुर के गणमान्य और सामान्य नागरिक भी वहां अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे। इसके अलावा जमशेदपुर के जुबिली पार्क जिसे दुलहन की तरह सजाय जाता है वहां भी जमशेदपुर और आस पास के लोग टाटा साहब की विशालकाय प्रतिमा के सामने अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे। लगभग पांच दिन तक उत्सव का माहौल रहेगा। इस अवसर पर विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम और खेलकूद प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं, जिसमे सभी वर्ग के लोग अपनी भागीदारी निभाते हैं।
टाटा साहब के अन्दर लिंग, जाति, धर्म, भाषा आदि किसी भी आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव नहीं था, जो आज भी कंपनी की विरासत है। विश्वस्तरीय प्रतिस्पर्धा के दौर में आज भी कंपनी अपने मूल्यों से समझौता नहीं करती। अपने कर्मचारियों के साथ-साथ आस पास के हर समुदाय के लोगों के कल्याण के लिए वह दिन रात प्रयासरत रहती है। जमशेदपुर ऐसा शहर है जहाँ आज भी नगरपालिका या नगरनिगम नहीं है पर टाटा प्रबंधन ही यहाँ के नागरिकों को जन सुविधा उपलब्ध कराती है। उद्योग एवं वाहनों से होने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करने का हर संभव प्रयास करती है।     

टाटा द्वारा सुनियोजित कॉलोनियों में हर जाति सम्प्रदाय और क्षेत्र के लोग साथ-साथ रहते हैं और हर एक के पारंपरिक त्योहार में एक दूसरे का साथ निभाते हैं। यहाँ पर्याप्त मात्रा में शिक्षण-संस्थान हैं, अस्पताल हैं, पार्क हैं, खेल-कूद के मैदान भी है। गोशालाएं हैं, फल सब्जियों के लिए भी खेतों में उत्तम ब्यवस्था है। सब्जी मंडी के साथ-साथ कृषि उत्पादन बाजार समिति की भी मंडियां हैं। यहाँ मंदिर, मस्जिद, गुरद्वारा, गिरजाघर और फायर टेम्पल भी है। यहाँ कब्रिस्तान और श्मशान का कोई झगड़ा नहीं है। बिजली सड़क पानी की ब्यवस्था सर्वसुलभ है। हर प्रकार के आस्थावान लोगों के प्रमुख त्योहारों में अबाधित बिजली-पानी की सुविधा प्रदान की जाती है। हम सभी जमशेदपुर वासियों को ऐसे दूरदर्शी महान व्यक्तित्व पर गर्व की अनुभूति होती है। एक बार पुन: हम सबकी ओर से संस्थापक टाटा साहब को भावभीनी श्रद्धांजलि ! – जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर। 

Sunday, 19 February 2017

पर्यावरण संरक्षण: बेहद जरूरी

हमारे प्रधान मंत्री कई मौकों पर यह विचार रखते आये हैं कि विश्व की अनगिनत समस्याओं में दो प्रमुख समस्याएं ऐसी हैं जिनपर तत्काल कुछ नहीं किया गया तो फिर काफी देर हो जायेगी। एक है पर्यावरण संरक्षण(ग्लोबल वार्मिंग) और दूसरा है आतंकवाद!
पहले हम पर्यावरण संरक्षण पर बात कर लें-
पर्यावरण शब्द परि+आवरण के संयोग से बना है। 'परि' का आशय चारों ओर तथा 'आवरण' का आशय का  परिवेश है। दूसरे शब्दों में कहें तो पर्यावरण अर्थात वनस्पतियों, प्राणियों, और मानव जाति सहित सभी सजीवों और उनके साथ संबंधित भौतिक परिसर को पर्यावरण कहतें हैं वास्तव में पर्यावरण में वायु, जल, भूमि, पेड़-पौधे, जीव-जंतु, मानव और उसकी विविध गतिविधियों के परिणाम आदि सभी का समावेश होता हैं।
विज्ञान के क्षेत्र में असीमित प्रगति तथा नये आविष्कारों की स्पर्धा के कारण आज का मानव प्रकृति पर पूर्णतया विजय प्राप्त करना चाहता है। इस कारण प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया है। वैज्ञानिक उपलब्धियों से मानव प्राकृतिक संतुलन को उपेक्षा की दृष्टि से देख रहा है। दूसरी ओर धरती पर जनसंख्या की निरंतर वृध्दिऔद्योगीकरण एवं शहरीकरण की तीव्र गति से जहाँ प्रकृति के हरे भरे क्षेत्रों को समाप्त किया जा रहा है वहीं हरियाली और पेड़ पौधों के उचित रख-रखाव और प्रबंधन के समुचित उपाय भी नहीं किये जा रहे।
पर्यावरण संरक्षण का समस्त प्राणियों के जीवन तथा इस धरती के समस्त प्राकृतिक परिवेश से घनिष्ठ सम्बन्ध है। आज प्रदूषण के कारण सारी पृथ्वी दूषित हो रही है और निकट भविष्य में मानव सभ्यता का अंत दिखाई दे रहा है। इस स्थिति को ध्यान में रखकर सन् 1992 में ब्राजील में विश्व के 174 देशों का पृथ्वी सम्मलेन आयोजित किया गया।
इसके पश्चात सन् 2002 में जोहान्सबर्ग में पृथ्वी सम्मलेन आयोजित कर विश्व के सभी देशों को पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान देने के लिए अनेक उपाय सुझाए गये। 2015 के संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में भी पेरिस में आयोजित किया गया जिसमे विश्व के लगभग सभी देशों के प्रतिनिधियों सिरकत की और पर्यावरण संरक्षण पर विशेष चर्चा की। सभी देशों की भागीदारी भी सुरक्षित की गयी। वस्तुतः पर्यावरण के संरक्षण से ही धरती पर जीवन का संरक्षण हो सकता है, यह बात सभी जानते भी हैं और मानते भी हैं पर सम्मलेन के बाद लिए गए निर्णयों का कितना क्रियान्वयन हुआ इसका लेखा-जोखा का भी तो होना चाहिए।
आधुनिकता के साथ विकास जरूरी है और विकास के लिए औद्योगीकरण, शहरीकरण भी उतना ही जरूरी है। पर संतुलन सबसे ज्यादा जरूरी है। बड़े-बड़े शहरों में, महानगरों में जहाँ खूब विकास हुआ है, वातावरण उतना ही प्रदूषित हो गया है। वायु और जल खतरनाक स्तर तक प्रदूषित हो गए हैं। सड़कों को चौड़ा करने में काफी बड़े-बड़े पेड़ों की कटाई हुई है और उस अनुपात में पेड़ लगाये नहीं गए। पेड़ लगाने के लिए जगह भी नहीं बचे। फिर दिन रात चलती हुई गाड़ियों से निकलते धुंए, कारखानों के धुंए वातावरण को प्रदूषित कर रहे हैं तो कारखानों और शहरों की नालियों से निकलने वाले गंदे और रसायनयुक्त द्रव के कारण सारी नदियाँ प्रदूषित हो रही है।
विकसित देशों ने काफी कुछ कदम उठाए हैं पर भारत जैसे विकासशील देशों में अभी बहुत कुछ करना बाकी है। हमारे यहाँ भी योजनायें अनेक हैं। परिणाम क्या निकला? - एक बड़ी ख़ामोशी। गंगा प्रदूषण नियंत्रण से लेकर नमामि गंगे परियोजना के भी परिणाम अभी तक उल्लेखनीय नहीं है। यमुना आरती भी की गयीनर्मदा सेवा यात्रा भी निकाली गयी है इन  सबका केवल प्रचार-प्रसार और फोटो-सेशन के अलावा अभीतक कुछ परिणाम नहीं निकला है। सभी योजनाओं में धन का भी खूब अपव्यय होता है पर परिणाम - ढाक के तीन पात!    
गांव भी शहर में तब्दील होने लगे हैं, फलस्वरूप गाँव का वातावरण भी धीरे-धीरे प्रभावित हो रहा है। फिर भी छोटे शहर और गाँव अभी भी काफी हद तक साफ़ और प्रदूषण-मुक्त हैं। अभी हाल ही में मैं पश्चिम बंगाल के दौरे पर गया था। वहां दूर-दराज में देखा हवा काफी साफ़ है। ऐसा लगता है शुद्ध ऑक्सीजन का भण्डार वहीं है। गंगा, हुगली आदि नदियों का जल काफी साफ़ है। पेड़ पौधे भी पर्याप्त मात्रा में है। ट्रैफिक भी कोलकाता की अपेक्षा कम है और बैटरी से चलनेवाले काफी रिक्शे हैं जिनसे प्रदूषण नहीं होता। नगरपालिकाओं द्वारा साफ सफाई का ध्यान रक्खा जाता है और लोगों में कचड़ा प्रबंधन के प्रति जागरूकता है।
प्रधान मंत्री श्री मोदी के महत्वाकांक्षी योजनाओं में एक स्वच्छ भारत अभियान भी है। इसके भी अपेक्षित परिणाम आने अभी बाकी हैं।
सवाल है कि सरकारी योजनाएँ तो बनती ही है – पर हमारी सरकारें, सरकार के अधिकारी/कर्मचारी गण क्या उतने ही गंभीर हैं, योजनाओं को जमीनी-स्तर तक पहुँचाने में। आम नागरिक रूप में हमारी क्या भूमिका है और क्या होनी चाहिए। क्या सरकार के साथ हमारी जिम्मेवारी नहीं है कि पर्यावरण संरक्षण में हम भी अपना कर्तव्य का भली भाँती निर्वाह करें? अपने आस-पास के वातावरण को साफ़ रखना क्या हमारी जिम्मेवारी नहीं है?  
शुरुआत अपने घर से ही करें। घर से बाहर और आस पास तक पहुंचे, कई गैर सरकारी संस्थाएं भी इस तरह के कार्यक्रम में अपनी भूमिका निभा रही है हम भी उनका सहयोग तो कर ही सकते हैं।
पर्यावरण का एक दुश्मन प्लास्टिक और पॉलिथीन की थैलियां हैं जिनका इस्तेमाल हम सभी कमो-बेश करते ही हैं। इनके उपयोग पर सरकारी नियंत्रण हमेशा खोखला साबित हुआ है। इसे हम ही नियंत्रण कर सकते हैं। कम से कम प्रयोग कर और उसे उचित निस्तारण से। टाटा की अनुषंगी इकाई जुस्को ने बेकार प्लास्टिक को पिघलाकर सड़क बनाने के लिए इस्तेमाल शुरू किया है। इसे कोलतार की जगह इस्तेमाल किया जाता है और यह सड़कें कोलतार की सड़कों से ज्यादा टिकाऊ होती हैं। वर्षा जल के प्रवाह को भी यह कोलतार की अपेक्षा ज्यादा सहन कर सकती है। 
इसके बाद आते हैं नदियों के प्रदूषण पर – नदियों में कारखाने में उपयोग किये गे जल और नगरपालिका की नालियों का गन्दा पानी प्रवाहित करने के लिए छोड़ दिया जाता है। इन्ही नदियों का पानी पीने के लिए इस्तेमाल होता है। साफ़ करने के बाद भी अनगिनत रसायन और बैक्टीरिया पानी में रह जाते हैं जो कई तरह की बीमारियाँ पैदा करती है। यह काम और सरकार का है। पर हम लोग भी नदियों को गन्दा करने में कम योगदान नहीं करते हैं क्या? पूजा के बाद अवशिष्ट सामग्री, मूर्तियाँ जिन्हें बनाने में धरल्ले से विभिन्न हनिकारका रसायनों का इस्तेमाल होता है नदियों में ही प्रवाहित करते हैं। अगर सरकारी पर्तिबंध लगा तो धरम और आस्था का मामला हो जाता है। समय के साथ सोच में परिवर्तन लाना निहायत ही जरूरी है। शव को जलाने की परंपरा हिंदु संस्कृति में है। शव जलने में ढेर सारी लकड़ियों का इस्तेमाल होता है।  इससे लकड़ियाँ तो अनावश्यक रूप से जलाई ही जाती है ऊपर से प्रदूषण हवा में ही फैलता है आस-पास खड़े लोगों के फेफड़ों में भी वही प्रदूषित हवा सांसों के द्वारा शरीर में जाती है। अब शहरों में काफी जगह विद्युत शवदाह गृह बनाये गए हैं हम उनमे भी शव को जला सकते हैं जिनसे कम समय भी लगता है और हवा कम प्रदूषित होती है साथ ही लकड़ियों की भी बचत होती है।
शादी-विवाह के अलावा अन्य अवसरों पर भोज का आयोजन कराया जाता है। हम से अधिकांश लोग वहां खाना को बर्बाद करते हैं। जगह को गन्दा कर छोड़ देते हैं। यहाँ जागरूकता और चेतना की जरूरत है। खाद्य सामग्री बरबाद करने की क्या आवश्यकता है। आज भी अनेक गरीब लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। जमशेदपुर में Voice of Humanity (मानवता की आवाज) नामक स्वनियंत्रित संस्था काम कर रही है जो नौजवानों का समूह है। यह बचे हुए भोजन सामग्री को जमकर गरीबों को भोजन करती है इसके अलावा कई अन्य सामाजिक काम भी यह संस्था करती है।
इसके अलावा विलासिता से सम्बंधित बहुत सारी वस्तुओं का कम उपयोग कर हम वातावरण को कम प्रदूषित कर सकते हैं। जैसे छोटी-छोटी दूरी को पैदल चलकर, सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग करके, दूसरों को प्रशिक्षित/जागरूक कर हम अपना योगदान तो कर ही सकते हैं।
आइये पर्यावरण को कल के लिए बचाकर रक्खें और इसके लिए संकल्पित हों। अपना सुधार समाज की सबसे बड़ी सेवा है। 

-    जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर।

Tuesday, 14 February 2017

उत्तर प्रदेश के दूरस्थ गांव

यूपी में विधानसभा चुनाव जारी है और तमाम पार्टियों के उम्मीवदवारों के चुनावी वादों का दौर भी जारी है. अमरोहा संसदीय क्षेत्र के धनौरा विधानसभा क्षेत्र में स्थित चकनवाला इलाके में गंगा की एक नहर पर आज तक कोई भी सरकार एक पुल नहीं बना सकी और लोगों को पंटून पुल का इस्तेकमाल करना पड़ता है. वादे तो सभी ने किए लेकिन काम किसी ने नहीं किया. १९८९ से यही स्थिति बनी हुई तब से अबतक कितनी सरकारें आईं और गईं. वहां के लोगों का कहना है- सभी दल के लोग आते हैं, वादा करके जाते हैं “पुल बन जायेगा” पर आजतक नहीं बना. सभी पार्टियों के विधायक चुने गए, यहाँ तक कि निर्दलीय विधायक भी बने पर इस पुल को बनाने की जहमत किसी ने नहीं उठाई. लोग तकलीफ में हैं तो हैं वोट तो मिल ही जाता है. नहर के आस-पास इलाके पर पैदावार भी अच्छी होती है. कभी-कभी बाढ़ आदि की वजह से भले फसलें बर्बाद हो जाती है, पर बाकी के समय में सभी फसलें हो ही जाती है.
जहाँ और सभी चैनेल के पत्रकार स्टूडियो में, विभिन्न शहरों के सभागारों में, काशी के गंगा किनारे से साजो-सामान के साथ चुनाव की कवरेज दिखला रहे हैं, तो वहीं NDTV इंडिया के पत्रकार रवीश कुमार, एक नई पत्रकार अनुप्रिया सांगवान, एक कैमरा मैन को साथ लेकर यु पी के दूरस्थ गांवों का दौरा कर वहां से लाइव रिपोर्टिंग कर रहे हैं. यु पी के कुछ गांव तो काफी विकसित है, पर दूर के कुछ ‘शीशोंवाली’ जैसे गांव भी हैं, जहाँ लोग बड़ी दयनीय स्थिति में रहते हैं. रहने लायक स्थिति तो नहीं है, पर लोग रहते हैं. जर्जर कच्चे घर मकान, बहती हुई नालियां, नही सड़क, नही बिजली, न सही ढंग का शौचालय. मुख्य रूप से खेतों में ही लोग काम करते हैं, जमीन का भी पता नहीं गंगा से निकली हुई नहर के किनारे रेत पर ही तरबूज-खरबूज उपजाते हैं. खेतों में मिहनत मजदूरी करते हैं. किसी तरह गुजारा करते हैं. गांव में एक स्कूल है, जहाँ एक वृद्ध महिला खाना(मिड डे मील) बनाती है. बच्चो को खाने के बाद जो खाना बच जाता है, वही खा लेती है. शाम को भी वही बचा हुआ खाना घर ले आती है. उसको शाम को खा लेती है. किसी दिन नहीं बचा तो भूखे ही सो जाती है. रहने को घर के नाम पर एक टूटी खाट है. उस पर मैला कुचैला बिस्तर बिछा है और ऊपर झोपड़ी जैसा बना है. उस वृद्धा को नहीं वृद्धा पेंसन मिलता है, न ही कोई सरकारी सुविधा… फिर भी जिन्दा है. लोग चाहते हैं ये बुढ़िया मर जाय! पर कैसे मरे मौत आये तब न! स्कूल का खाना खाती है तब भी लोग उसे ताना मारते हैं – बुढ़िया हरामखोर है, हराम की खाती है. हम क्या करें बाबु? कहाँ जाएँ? क्या करें? मेरा कोई नहीं है!
रवीश कुमार भावुक हो जाते हैं वृद्धा के कंधे पर दोनों हाथ रखकर उसे ढाढ़स बंधाते हैं – कहते हैं, “नहीं आप हराम की नहीं खाती हैं, आप तो वहां खाना बनाती हैं, वहां का खाना सरकार के पैसे से बनता है. सरकार पैसे भेजती है. सरकार का काम है हर आदमी को भोजन देना. आप वहीं खायेंगी.” कुछ नेता टाइप के लोगों से/पढ़े लिखे लोगों से आग्रह करते हैं कि इस गाँव की बेहतरी के लिए कुछ कीजिये. चूंकि यह राष्ट्रीय चैनेल है और काफी लोग प्राइम टाइम को देखते हैं तो शायद सरकारी अधिकारियों और नेताओं की ऑंखें खुले. योजनायें तो बनती ही है, पर दूर दराज के गांवों तक पहुंचते-पहुचते दम तोड़ देती है.
सुविधा के नाम पर गांव में एक प्राइमरी स्कूल भर है. अस्पताल, बैंक, बाजार सब कुछ काफी दूर जाने के लिए वही पंटून-पुल जिसपर साइकिल/मोटर साइकिल किसी तरह चल जाता है. बैलगाड़ी भी चलती है. एक ट्रक को देखा ऊपर चढ़ती है फिर नीचे फिसल जाती है. पता नहीं चलता आ रही है या जा रही है. उसे किसी तरह एक ट्रैक्टर से बाँध कर खींचा कर ऊपर चढ़ाया जाता है.
गांव के लोगों का आधार कार्ड बना है, राशन कार्ड भी है … राशन के नाम पर कभी कभी ५ किलो अनाज मिल जाता है. वह भी सबको नहीं जिसके पास कार्ड और आधार है उसे ही मिल सकता है.
पत्रकार को देखकर लोग ऐसे गिड़गिड़ाते हैं जैसे वह सरकारी अधिकारी हो. उससे लोग बहुत उम्मीद बाँध लेते हैं. शायद टी वी पर दिखलाने के बाद नेताओं अधिकारियों की ऑंखें खुले … गांव में भाजपा के कमल का ही झंडा दिखता है, बाकी किसी पार्टी का झंडा भी नहीं है. खड्गवंशी समाज के लोग वहां रहते हैं. समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, कांग्रेस, भाजपा आदि सभी की सरकारें उत्तर प्रदेश में बनी हैं, पर विकास नहीं पहुंचा है यहाँ तक. नरक में कीड़े मकोड़ो की तरह रहते हैं यहाँ के लोग. बिजली के खम्भे हैं, पर बिजली नहीं है. कुछ लोगों ने सोलर पैनेल अपने पैसे से लगा रक्खे हैं. फसल बीमा से भी वे लोग परिचित नहीं हैं. कुछ शौचालय कहने को बने हैं, पर उनका इस्तेमाल भी ठीक ढंग से लोग नहीं करते. इतना पिछड़ा और ख़राब हालत में और भी गाँव होंगे. सरकारों को और अधिकारियों/ग्राम प्रधानों को जरूर इसके बारे में सोचना चाहिए.
और भी कई गांवों का दौरा रवीश कुमार कर चुके हैं. हर तरफ हरियाली अच्छी है. लोग-बाग़ मिल-जुल कर रहते हैं. जाति-धर्म का उतना भेद नहीं है, जितना बतलाया जाता है. बल्कि आपसी भाईचारा अच्छा है. किसी-किसी गांव में नवयुवक दिल्ली से भागकर आ गए हैं. नोट्बंदी के समय ही उनका काम मिलना बंद हो गया तो गांव में आकर खेती-बारी ही करने लगे हैं.
तात्पर्य यही है कि जैसा कि मोदी जी जनसभाओं में कहते हैं- पिछले सत्तर सालों में विकास के नाम पर बहुत कम काम हुआ है तो लगता है ठीक ही कहते हैं. अभी बहुत कुछ करना बाकी है. उसमे मूलभूत आवश्यकता रोटी, कपड़ा, मकान, बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य जरूरी है. इसके बाद हर हाथ को काम और उसको उचित मजदूरी भी जरूरी है तभी हम कह सकेंगे कि हम विकास की राह पर चल पड़े हैं और अब आगे और आगे जाना है, जिनमे शहरों को चाहे स्मार्ट सिटी में बदलना हो या बुलेट ट्रेन चलाना हो. हवाई सफ़र आसान करना हो या ट्रेन की स्पीड बढ़ानी हो, पर जो ट्रेने चल रही हैं, जो बसें चल रही है उसमे सुविधाएं बढ़ाई जाय. संचार के माध्यमों को चुस्त दुरुस्त किया जाय. उन्नत ढंग से खेती की जाय ताकि उत्पादकता बढ़े और सबको भरपेट भोजन मिले.
सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में बन्दर-बाँट न हो, भ्रष्टाचार का समूल खात्मा हो, लोग इमानदारी से टैक्स अदा करें, तभी तो होगा सर्वांगीण विकास. हमारी धरती सस्य-श्यामला है रत्नगर्भा है. जरूरत है उसका समुचित उपयोग हो और समुचित बंटवारा भी. हाल ही में रिपोर्ट आयी थी कि कुछ ही लोगों के पास अधिकांश संसाधनों पर कब्ज़ा है. कुछ लोग बहुत ही बेहाल स्थिति में हैं तभी आतंकवादी/नक्सलवादी ऐसे लोगो के पास आते हैं और भोले-भाले नवयुवकों को अपने जाल में फंसाकर ले जाते हैं. वे ही सरकार और समाज के नाक में दम करने लगते हैं. तब सरकार इन लोगों पर गोली चलवाती हैं और गोली चलानेवाली रक्षाकर्मियों को भी इनकी गोलियों का शिकार होकर अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है. देश के सभी शिक्षित समाज, पत्रकार, शिक्षाविद, अर्थशास्त्री, जनप्रतिनिधि आदि सबको मिलकर सोचना ही होगा कि विकास का लाभ कैसे जन-जन तक पहुंचे और हमारा देश का हर नागरिक खुशहाल हो और देश को और आगे बढ़ाने की तरफ सोचे.
उम्मीद है हमारे जन प्रतिनिधि चुनाव प्रचार के लिए जितना खर्च करते हैं अगर उसका कुछेक हिस्सा जनकार्यों में लगायें तो शायद प्रचार की जरूरत ही न पड़े. काम अगर बोलेगा तो मुंह से बोलने और विज्ञापन करने की जरूरत ही न पड़ेगी.
सकारात्मक सोच के साथ जयहिंद और जय हिन्द के लोग!
- जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.