Saturday, 21 May 2016

असम चुनाव के रणनीतिकार

चुनाव जीतने के लिए अब केवल राजनीतिज्ञ के कोरे वादे से काम नहीं चलने वाला है. अब तकनीक के साथ कुछ नए नारे बनाने होते हैं। प्रचार में तकनीक का सहारा लेना होता है। सत्तासीन पार्टी की बाल के खा भी उधेड़ने होते हैं! और यही सब काम किया असम चुनाव के इलेक्शन स्ट्रैटेजिस्ट रजत सेठी ने। मोदी को लोकसभा चुनाव में जीत दिलाने वाले प्रशांत किशोर के कांग्रेस से जुड़ने के बाद बीजेपी को नया किंगमेकर मिल गया है। असम में मिली जीत में इलेक्शन स्ट्रैटेजिस्ट रजत सेठी का अहम रोल बताया जा रहा है।  29 साल के ग्रेजुएट रजत ने बीते साल नवंबर में असम के लिए कैम्पेन शुरू किया था। उनकी टीम की मेहनत का नतीजा यह रहा कि बीजेपी अब नॉर्थ ईस्ट में पहली बार किसी राज्य में सरकार बनाने जा रही है। 126 सीटों वाली असम विधान सभा में बीजेपी+ को 86, कांग्रेस को 26, एआईयूडीएफको 13 और अन्य को 1 सीटें मिली हैं। BJP के स्ट्रैटजिस्ट्स की टीम 6 महीने में 6 लोगों के साथ मिलकर 20 घंटे काम कर असम में BJP को दिलाई जीत दिलाई है ऐसा कहा जा रहा है....
कानपुर के रहने वाले रजत सेठी ने आईआईटी खड़गपुर से पढ़ाई की है। बाद में उन्होंने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से पब्लिक पॉलिसी में ग्रेजुएशन किया। उनके परिवार की संघ से करीबी का रिश्ता रहा है। 2012 में पढ़ाई के लिए अमेरिका गए।  2014 में रजत हार्वर्ड इंडिया एसोसिएशन के लिए इवेंट्स कराते थे। एक बार जब राम माधव वहां गए तो वे उनके संपर्क में आए। 2015 में पढ़ाई पूरी करने के बाद माधव के कहने पर रजत भारत लौटे और बीजेपी से जुड़ गए।
रजत ने टीम बनाने की शुरुआत की। 6 लोगों की टीम में 4 IIT खड़गपुर के पास आउट थे। 2 मेंबर ऐसे थे जो प्रशांत किशोर की टीम में रहे थे। उन्होंने नवंबर 2015 से असम में काम शुरू किया। बीजेपी के लिए रजत ने 'असम निर्माण' का नारा दिया। हर दिन 20 घंटे काम करते हुए पूरी टीम राम माधव और अमित शाह के कॉन्टेक्ट में रहती थी। टीम ने पब्लिक के बीच डायलॉग सीरिज चलाई, टी-लेबर्स, एजुकेशन, स्किल डेवलपमेंट और सोशल वेलफेयर जैसे मुद्दों को उठाया। वर्ल्डबैंक में काम कर चुके रजत ने बताया, ''हमारी स्ट्रैटजी थी कि हर दिन कुछ नया करते हुए कांग्रेस या उनके लीडर पर सीधे टारगेट करें। ताकि कांग्रेस बैकफुट पर रहकर सिर्फ जवाब दे सके। इसका फायदा हमें ऐसे मिला कि कांग्रेस का कैम्पेन आचार संहिता लागू होने के सिर्फ एक महीने पहले ही शुरू हो पाया।''  रजत ने बताया कि हार्वर्ड में कोर्स के दौरान प्रोजेक्ट वर्क के लिए उन्होंने कुछ महीनों तक हिलेरी क्लिंटन के लिए कैम्पेन किया है।  उनके कोर्स में कैम्पेन मैनेजमेंट का एक प्रोजेक्ट था। इस दौरान उन्हें अमेरिका के इलेक्शन मैनेजमेंट को समझने का मौका मिला।
कैम्पेन स्ट्रैटजी रजत की 6 लोगों की टीम में आशीष सोगानी, महेंद्र शुक्ला, शुभ्रास्था, शिखा, और आशीष मिश्रा थे। शुभ्रास्था पहले प्रशांत की टीम में थीं। 2015 में बिहार में महागठबंधन को लेकर उनके प्रशांत से मतभेद हुए और फिर वे उनकी टीम से अलग हो गईं। टीम की सीनियर मेंबर शुभ्रास्था ने मीडिया से बातचीत में बताया कि मोदी ने एक बार अपने भाषण में गरीबों को 2 रुपए प्रतिकिलो चावल देने की स्कीम का जिक्र किया था। इस स्कीम की काफी अपील थी। वहीं, अमित शाह ने अपने बयानों में अहम मुद्दे उठाए। ये सारी चीजें हमारी टीम ने ड्राफ्ट की और सजेस्ट की थीं। शुभ्रास्था ने बताया, ''हमने 175 से ज्यादा RTI लगाकर गोगोई के खिलाफ माहौल का फायदा उठाया। पार्टी के टॉप लीडर्स तक हमारे लिए एक मैसेज पर एक्सेस था। इसके चलते हर स्टेप पर मिले उनके सपोर्ट ने विनिंग स्ट्रैटजी को मजबूती दी।''
सबसे पहले इन लोगों ने बूथ से लेकर हर विधान सभा सीट का एनालिसिस किया और वहां के मुददों और जरूरतों को समझकर एक विजन डॉक्युमेंट बनाया। हर सीट के लिए माइक्रो मैनेजमेंट किया। सोशल मीडिया पर ये कांग्रेस से बहुत आगे रहे। फेसबुक के जरिए इन्होंने करीब 30 लाख लोगों तक अपनी पहुंच बनाई और वाट्सएप के जरिए भी यूथ से कॉन्टेक्ट किया। जबकि फेसबुक पर कांग्रेस केवल 5 से 10 हजार लोगों तक सिमटी रही।
एनालिसिस और माइक्रो मैनेजमेंट के बाद ही एजीपी के साथ एलायंस करने का फैसला किया गया। हालांकि असम बीजेपी के लोकल लीडर्स इसके खिलाफ थे। टीम ने एनालिसिस में बताया कि 2014 के लोक सभा चुनाव में एजीपी ने करीब 3 से 4 फीसदी वोट हासिल किया थे। तर्क दिया कि लोक सभा चुनाव में जब ये पार्टी इतना वोट हासिल कर सकती है, तो असेंबली इलेक्शन में तो और भी अच्छा कर सकती है।
चुनावों से पहले सर्बानंद सोनोवाल को सीएम पद का कैंडिडेट बनाया जाना भी इस टीम की स्ट्रैटजी का ही हिस्सा था। असम में बीजेपी पर आरोप लगता था कि यह हिन्दी भाषी स्टेट्स की पार्टी है। इसकी काट के लिए टीम ने एक ट्राइबल लीडर को सीएम पद का चेहरा बनाने की राय दी। तरुण गोगोई के करीबी हिमंता बिस्वा सर्मा को तोड़ना और उनसे जमकर रैली करवाने का फैसला भी बेहद फायदेमंद रहा। हेमंत बिस्वा ने बाद में राहुल गाँधी की खिल्ली भी उड़ाई हेमंत ने कहा – राहुल से मिलना उनके कुत्ते से मिलने के बराबर था 
सर्मा ने 2 हफ्तों में 200 रैलियां की। इन रैलियों में नारा लगाया जाता था कि 'असम में आनंद लाना है, तो सर्बानंद को लाना है'। इसके अलावा बांग्ला देशी मुस्लिमों का मुद्दा उठाना भी फायदेमंद रहा। रजत का कहना है कि इस मुद्दे की वजह से असम के मुस्लिमों का वोट उन्हें मिला।
बीजेपी के स्ट्रैटजिस्ट की टीम में शामिल आशीष मिश्रा ने मीडिया को बताया, ''हमने रोज 20 घंटे तक काम कर डाटा जुटाया। मुद्दे उठाने के लिए कई आरटीआई फाइल कीं। सबसे खास बात यह थी कि इलेक्शन कैम्पेन में सर्बानंद सोनोवाल के पोस्टर के साथ कांग्रेस कैंडिडेट तरुण गोगोई की बजाय कांग्रेस की अलायंस पार्टी AIUDF  के नेता बदरुद्दीन अजमल की फोटो लगाई जाती थी। इसके पीछे स्ट्रैटजी यह थी कि पूरे कैम्पेन में गोगोई को वेटेज न मिले और जनता के बीच उनकी रिकॉल वैल्यू कम रहे।''
शिखा का कहना है, हम यूपी में BJP के लिए कैंपेन के लिए तैयार हैं। आखिरी फैसला पार्टी हाई कमान को करना है। हमारी स्ट्रैटजी थी कि कांग्रेस खुद कुछ नया कैंपेन करने की जगह हमारे कैंपेन का रिस्पॉन्स एंड ही बनी रहे। और ऐसा ही हुआ।
इसके अलावा आरएसएस के समर्पित कार्यकर्ता भी काफी दिनों से असम में भाजपा के लिए जमीन तैयार कर रहे थे. वे जमीनी स्तर के लोगों से मिलकर भाजपा के पक्ष में माहौल बना रहे थे. इन सबका लाभ भाजपा को मिला. प्रधान मंत्री ने रैलियों में असम के वेश भूषा पहनकर वहां के लोगों से आत्मीयता स्थापित की.
अब आइए आपको बताते हैं रजत के बारे में दस बातें- 1. रजत सेठी कानपुर के रहने वाले हैं.
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इन्‍होंने आरएसएस के स्‍कूल शिशु मंदिर से पढ़ाई की. 3. आईआईटी खड़गपुर से सेठी ने बीटेक किया. 4. खड़गपुर में इन्‍होंने एक हिंदी सेल की शुरुआत की. 5. इसके बाद अमेरिका में एमआईटी और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से पब्लिक पॉलिसी में इन्‍होंने पढ़ाई की. 6. सेठी ने एक आईटी कंपनी भी डाली, जिसे बाद में इन्‍होंने बेच दिया. 7. राम माधव से मुलाकात के बाद और उनके कहने पर सेठी ने बीजेपी ज्‍वॉइन की. 8. राम माधव ने सेठी को 32 जिलों, 25 हजार बूथों पर काम करने के लिए कहा. 9. सेठी की टीम ने गुवाहाटी को अपना हेडक्‍वार्टर चुना और 20-20 घंटे काम किया. 10. 400 युवाओं को अपनी टीम में इन्‍होंने शामिल किया.
बंगाल में ममता दीदी का गरीबों, मुसलमानों, बंगलादेशियों के प्रति झुकाव और उनके हित में किये गए काम को लोगों ने पसंद किया. यही हाल जयललिता के बारे में भी कहा जाता है. उन्होंने भी तमिलनाडु की जनता के लिए सरकारी खजाने से खोब धन वर्षा की. लोगों को उनके जरूरत के सामन मुहैया कराये. यानी यहाँ ये दोनों नेत्री जनता की पसंद बने और दुबारा चुनकर सत्ता में लौटीं. केरला मे परिवर्तन चाहिए था इसलिए वहां की जनता ने कांग्रेस के बजाय लेफ्ट को चुना. पोंडुचेरी छोटा राज्य है, वहां कांग्रेस अपनी साख बचाने में कामयाब रही.

सारांश यही है कि, एक तो आपको परफॉर्म करना होगा, जनता की आकाँक्षाओं की पूर्ति करनी होगी, दूसरा उनके बीच बिश्वास कायम करना होगा तीसरा उनके बीच जाकर उनकी मांग को सुनना होगा और सत्तारूढ़ दल के विकल्प के रूप में अपने दल को पेश करना होगा आजकल सोसल मीडिया, मीडिया मैनेजमेंट, ओपिनियन पोल सबका अपना अपना अहम रोल है मोदी नीत भाजपा सरकार इन सारी तकनीकों का लाभ ले रही है तभी इनका आत्मबिस्वास बढ़ा है अब आगे यु पी और पंजाब के चुनाव हैं, देखा जाय वहां क्या होता है.... जनता जनार्दन ही सर्वोपरि है मेरा देश बदल रहा है. आगे बढ़ रहा है .... जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर       

Saturday, 14 May 2016

भेदभाव को जड़ से मिटाना होगा

19 फरवरी 2012 को डिसेबल और एक्टीविस्ट जीजा घोष कोलकाता से गोवा एक कांफ्रेंस में हिस्सा लेने जा रही थीं। वे स्पाइस जेट के विमान में सवार हुईं लेकिन उड़ान भरने से पहले उन्हें विमान से उतार दिया गया। बाद में उन्हें पता चला कि कैप्टन ने डिसेबल होने की वजह से उन्हें विमान से उतारने के निर्देश दिए थे। इसकी वजह से वे कांफ्रेंस में भाग नहीं ले पाईं और उन्हें मानसिक रूप से आघात पहुंचा।
देश भर में निःशक्त (डिसएबल्ड) लोगों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने गहरी चिंता जाहिर की है। सुप्रीम कोर्ट ने 2012 में एक निःशक्त कार्यकर्ता को विमान से नीचे उतारने के मामले में स्पाइस जेट को दो माह में दस लाख रुपये का मुआवजा देने के आदेश दिया है।

सुप्रीम कोर्ट ने अमेरिकी किताब ‘NO PITY’ का जिक्र किया, जिसमें कहा गया है कि ‘Non disabled Americans don’t understand disable ones’, (वह अमेरिकन जो निःशक्त नहीं है, किसी निःशक्त व्यक्ति की समस्या को नहीं समझ सकता।) लेकिन यह बात पूरी दुनिया पर लागू होती है। हिंदी में भी कहावत है – जाके पैर न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीड़ पराई । भारत में निःशक्त लोगों को लेकर कई कानून हैं और कई मानवाधिकार संस्थाएं काम कर रही हैं, लेकिन अब भी इसको लेकर काफी सुधार की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि डिसेबल लोगों को भी वही अधिकार हैं जो सामान्य लोगों को हैं, लेकिन ज्यादातर सामान्य लोगों को लगता है कि वे बोझ हैं और कुछ कर नहीं सकते। जबकि हकीकत यह है कि निःशक्त होने के बावजूद वे अपनी जिंदगी जीते हैं और किसी पर बोझ नहीं बनते। उन्हें भी आम लोगों की तरह अपना जीवन गौरवपूर्ण तरीके से जीने का हक है। जीजा घोष इसी का उदाहरण हैं कि डिसेबल होते हुए भी वे एक्टीविस्ट के तौर पर काम कर रही हैं।
स्पाइसजेट ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी थी कि जीजा ने नियमों का पालन नहीं किया था। टिकट बुकिंग के वक्त ही यात्री को बताना चाहिए कि वह डिसेबल है लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि वैसे तो डिसेबल के लिए कमेटी ने अपनी सिफारिशें दी हैं लेकिन कोर्ट को लगता है कि इसमें सुधार की जरूरत है। कोर्ट की राय है कि सरकार को सभी हवाई अड्डों पर निःशक्त लोगों के लिए तमाम आधुनिक और स्टेंडर्ड सामान लगाना चाहिए। इसके अलावा व्हील चेयर को विमान के भीतर भी जाने की अनुमति मिलनी चाहिए। इसके अलावा क्रू को भी सही ट्रेनिंग देनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद पत्रकारों ने जब जीजा घोष से संपर्क किया और उसकी प्रतिक्रिया जाननी चाही – तो जीजा घोष का यही कहना था कि – जिन्दगी में कठिनाइयाँ आती हैं, पर उन कठिनाइयों का सामना करना चाहिए, उनपर विजय प्राप्त करने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। किसी भी हालत में हार नहीं माननी चाहिए। यह सबक है उन सभी लोगों के लिए जो छोटी-मोटी कठिनाइयों से हार मान जाते हैं और आत्म-हत्या जैसा कायराना कदम उठा लेते हैं।
ऐसे बहुत सारे उदाहरण है – जिनमे नृत्यांगना सोनल मान सिंह, सुधा चंद्रन, संगीतकार रविंदर जैन (जो देख नहीं सकते) प्रमुख है। इन्होने अपनी कमजोरी को कभी जाहिर ही नहीं होने दिया। राष्ट्रीय स्तर की वोलीबाल खिलाड़ी अरुणिमा सिन्हा को कुछ लुटेरों ने ट्रेन से नीचे फेंक दिया था, जिसके चलते उसका एक पैर नकली लगाया गया फिर भी उसने २१ मई २०१३ को एवरेस्ट फतह कर ली। पिछले साल UPSC की परीक्षा में विकलांग इरा सिंघल ने टॉप किया था। कहा जाता है कि वैज्ञानिक आइन्स्टीन मी मानसिक रूप से मंद बुद्धि ही थे।
तात्पर्य यही है कि बहुत सारे मानसिक या शारीरिक विकलांग लोग कई क्षेत्रों में ख्याति अर्जित कर चुके हैं। हमारा समाज उन्हें उपेक्षित नज़रों से देखता है, जो किसी भी तरह से जायज नहीं है। हमारे प्रधान मंत्री श्री मोदी ने हाल ही में कहा है कि जो भी अशक्त लोग हैं उनमे एक विशेष प्रतिभा होती है, इसीलिए उन्होंने अशक्तों/विकलांगों को नया नाम दिया – दिव्यांग!
हमारे समाज में भेदभाव की भी पुरानी परंपरा रही है। जाति, लिंग, धर्म, भाषा, रंग, कर्म, क्षेत्र आदि के नाम पर भेदभाव किया जाता रहा है। शिक्षित और विकसित जगहों में ये भेदभाव कम हुए हैं। विभिन्न सामाजिक/राजनीतिक स्तर पर भी इनपर समय-समय पर सुधार के प्रयास किये गए हैं, पर कुछेक तत्व बीच-बीच ऐसे मुद्दे उभार देते हैं। इसे किसी भी तरीके से सही नहीं ठहराया जा सकता है।
हम सबको प्रकृति ने समान अवसर प्रदान किये हैं, फिर भी किसी कारण वश हम प्रकृति का पूरा लाभ नहीं ले पाते, कभी आकस्मिक दुर्घटना/ बीमारी के शिकार होकर असामान्य स्थिति में पहुँच जाते हैं। कुछ लोग विकलांग ही पैदा भी होते हैं, पर इसं सबमे उनका अपना दोष क्या है, जिन्हें हम भेदभाव या हीन नजरों से देखते हैं। एक बात और सोचने समझने वाली है हमारी पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं हैं, पर जब ये आपस में मिल जाती हैं तो मुट्ठी बन जाती हैं और तब इनमे ज्यादा ताकत आ जाती है। उसी प्रकार हमारे समाज में विभिन्न तबके के लोग हैं जिनसे मिलकर ही हमारा समाज समृद्ध बनता है। हमारे अपने शरीर में ही विभिन्न प्रकार के अंग हैं और सबका अपना अलग महत्व है। परिवार में भी कोई सदस्य कमजोर होता है। हमारे माता पिता भी वृद्धावस्था में कमजोर हो जाते । उन्हें भी सहारे की जरूरत होती है, शारीरिक के साथ साथ मानसिक रूप से भी।
महिलाओं को सबसे पहले कमजोर समझा गया और उन्हें दबाकर रखने का हर संभव प्रयास हुआ, पर आज देखिये उन सफल महिलाओं को जो हर क्षेत्र में अपना परचम लहरा रही हैं। रंग के आधार पर भी बहुत बार भेदभाव होता रहा है। गोरे लोग काले लोगों को पसंद नहीं करते। अब जरा सोचिये दिन के उजाले में हम सारा उपयोगी काम करते हैं, पर आराम से सोने के लिए अंधेरी काली रात ही चाहिये। कर्म के आधार पर विभिन्न जातियों का सृजन हुआ, पर सबका अपना अपना अलग महत्व है. सभी जातियों से मिलकर ही एक सम्पूर्ण समाज बनता है, नहीं? भाषा और बोलियाँ भी हमारी अपनी-अपनी पहचान है। अलग-अलग क्षेत्र, समतल मैदान, खेत, नदियाँ, पहाड़, जंगल, उपवन सबकुछ हमारी जरूरत के हिशाब से ही बने और बनाये गए हैं। इसके अलावा एक और भेद इधर विकसित हुआ है। वह है राष्ट्र-भक्ति का भाव। निश्चित ही हम सबके अन्दर राष्ट्र और मातृभूमि के प्रति प्रेम होना चाहिए। प्रेम प्रदर्शन करने का तरीका अलग अलग हो सकता है। पर एक ख़ास तरीका जो एक वर्ग, समुदाय कहे वही बेहतर या सर्वश्रेष्ठ है, उस पर बहस और विचार विमर्श की गुंजाईश है। हमारे विचार अलग अलग हो सकते हैं। हमारी मान्यताएं भी अलग अलग हो सकती हैं, पर सबका उद्देश्य एक ही होना चाहिए। वह है मानव प्रेम, देशप्रेम और वसुधैव कुटुम्बकम का भाव, विश्व बंधुत्व का भाव, सर्वे भवन्तु सुखिन: का भाव, भाईचारा और आपसी प्रेम का भाव।
अगर कोई कमजोर है, अशक्त है उसे हमारी मदद की जरूरत है तो मदद की जानी चाहिए. बच्चे को गोद में उठाने के लिए माँ को झुकना पड़ता है. उसी तरह निशक्तों, दलितों, पिछड़ों को उठाने के लिए हमें थोड़ा सा त्याग करना होगा। नियम-कानून हैं, पर हमारे अन्दर वह भाव भी होने चाहिए। अंत में एक मशहूर गीत की पंक्तियाँ – तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो. तुमको अपने आप ही सहारा मिल जाएगा.
- जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.

Sunday, 8 May 2016

लोकतंत्र बचाओ अभियान



कुछ खबरे ज्यादा प्रकाश में आती हैं, अखबारों की हेड लाइन बनती हैं, टी वी चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज़ बनती हैं, तो कुछ अखबारों के किसी कोने में सिसकती रहती हैं …। आज उसी पर चर्चा करेंगे। लातूर के सूखे को अगर टी वी पर प्रमुखता से न दिखाया जाता तो शायद रेल मंत्री उतने सक्रिय न होते। अब वे इतने सक्रिय हो गए हैं कि खाली वैगन लेकर महोबा पहुँच गए । वहां की सरकार के पास खाली या भरे वैगनों के पानी रखने की जगह ही नहीं है। उन्हें तो केंद्र सरकार से पैसे चाहिए ताकि वे पानी रखने के कंटेनर खरीद सकें, सूखे से निपट सकें। तब वे केंद्र सरकार के पानी को स्वीकार करेंगे। बड़े लोगों की बड़ी बात ! 
सरकार और नागरिक का रिश्ता बड़ा ही नाज़ुक होता है। विश्वास का भी होता है और अविश्वास का भी। समर्थन का भी होता है और विरोध का भी। लोकतंत्र में मतदान करना और चुनाव के बाद सरकार बना लेने भर से एक नागरिक का लोकतांत्रिक कर्तव्य समाप्त नहीं हो जाता है। उसका असली संघर्ष सरकार बनने के बाद शुरू होता है जब वह अपनी मांगों को लेकर सरकार के सामने अपनी दावेदारी करता है। कई प्रदर्शन इस आस में समाप्त हो जाते हैं कि काश कोई पत्रकार आएगा और हमारी तस्वीर दिखाएगा। कई प्रदर्शन इस बात की चिन्ता ही नहीं करते हैं। उन्हें पता है कि जब वे प्रदर्शन करेंगे तो कैमरे वाले आएंगे ही आएंगे। कांग्रेस और बीजेपी के प्रदर्शनों को बाकी प्रदर्शनों से ज्यादा सौभाग्य प्राप्त है।
शुक्रवार ६ मई को भाजपा सांसद संसद परिसर के भीतर बनी गांधी प्रतिमा के सामने प्रदर्शन कर रहे थे। मांग कर रहे थे कि इटली की अदालत में जिन लोगों ने पैसा खाया, देश की जनता जानना चाहती है कि घूस किसने ली है। भाजपा की सरकार है फिर भी वे प्रदर्शन कर रहे हैं। संसद में अगुस्ता मामले पर बहस हो रही है और बीजेपी के सांसद बाहर धरने पर बैठे हैं। उधर जंतर मंतर पर कांग्रेस लोकतंत्र बचाओ प्रदर्शन कर रही थी। कांग्रेस के प्रदर्शन में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी आए। कम से कम एक ईमानदार चेहरा तो होना ही चाहिए। बेचारे की उम्र हो गयी है। पुलिस उन्हें भी धकिया रही थी और सोनिया गाँधी उन्हें धक्के से बचा रही थी। उधर सांसद में ज्योतिरादित्य सिंधिया सोनिया जी को शेरनी की उपाधि से सुशोभित कर रहे थे ।
जंतर मंतर का प्रदर्शन चैनलों पर खूब लाइव दिखाया गया। कांग्रेस के नेता मंच से बोल रहे थे कि देश में लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है। संस्थाओं पर संघ का कब्ज़ा हो रहा है। सोनिया गांधी से लेकर सभी नेताओं ने अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने को लेकर मोदी सरकार की आलोचना की। सोनिया गांधी ने कहा कि वे किसी से डरने वाली नहीं हैं। मनमोहन सिंह ने कहा कि मैं मोदी सरकार से कहना चाहता हूं कि कांग्रेस बहती गंगा की तरह है। आप चाहे इसे बदनाम कीजिए या कुछ कीजिए यह अपना रास्ता नहीं बदलेगी। गंगा के रूपक ने भी बीजेपी को मौका दे दिया। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने जवाब दे दिया कि आप क्यों चिन्तित हैं। मैंने तो किसी का नाम नहीं लिया। आप ही जानते होंगे कि गंगा कहां जा रही है। त्यागी और खेतान तो छोटे लोग हैं जिन्होंने बस बहती गंगा में हाथ धोया है। लोकसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री मोदी गंगा को लेकर भावुक होते थे, चुनाव हारने के बाद मनमोहन सिंह गंगा को लेकर भावुक हुए। उत्तराखंड को लेकर कांग्रेस का यह प्रदर्शन था तो बीजेपी का अगुस्ता वेस्टलैंड को लेकर। बीजेपी कांग्रेस के समय में लगे आपातकाल से लेकर राष्ट्रपति शासनों की याद दिलाने लगी। इसी बीच सुप्रीम कोर्ट से फैसला आया कि दस मई को दो घंटे के लिए राष्ट्रपति शासन हटेगा और उत्तराखंड की विधानसभा में हरीश रावत को अपना बहुमत साबित करना होगा। बहुमत की प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होगी। 9 बागी विधायक विश्वास मत में हिस्सा नहीं ले सकेंगे। इससे कांग्रेस उत्साहित हो गई। हालाँकि अभी भी इस मामले में हाई कोर्ट का फैसला ९ मई सोमवार को आना है और मंगलवार को शक्ति परीक्षण है। कांग्रेस और बीजेपी ने फैसले का स्वागत किया । दोनों की अपनी अपनी रणनीति होगी।
इन प्रदर्शनों से मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी कुछ कहने का मौका मिल गया। पहली बार की सरकार में जब मुख्यमंत्री रहते हुए केजरीवाल धरने पर बैठे थे, तब काफी आलोचना हुई थी और मजाक भी उड़ा था कि कहीं सीएम भी धरने पर बैठता है। कांग्रेस, बीजेपी के धरना प्रदर्शन से केजरीवाल को मौका मिला। कहने लगे- बीजेपी और कांग्रेस दोनों धरना पार्टी हैं। आज बीजेपी अपने ही खिलाफ धरने पर है। सिर्फ आप है जो गर्वेनंस पर खरे उतर रही है। लेकिन इतने पर संतोष कहाँ हुआ? आम आदमी पार्टी भी शनिवार को प्रदर्शन करने लगी । धरना-प्रदर्शन से पता चलता है कि हमारा लोकतंत्र कितना जीवंत है।
जंतर मंतर पर गुरुवार(५ मई २०१६) को आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं ने प्रदर्शन किया था। मगर इनका लाइव कवरेज नहीं हुआ। दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, यूपी, राजस्थान से सैकड़ों आंगनवाड़ी वर्कर आईं थीं। इनकी मांग है आंगनवाड़ी वर्करों को स्थाई किया जाए और सरकारी कर्मचारी का दर्जा मिले। वर्कर को 24 हजार का वेतन मिले और हेल्पर को 18 हजार महीना। शुक्रवार को भी आईटीओ पर दिल्ली के आंगनवाड़ी वर्करों ने प्रदर्शन किया। पता चला कि पिछले चालीस साल से देश भर में आंगनवाड़ी महिलाएं अपनी मांगों को लेकर धरना प्रदर्शन कर रही हैं। राज्यों की राजधानी में धरना होता है। दिल्ली आकर भी धरना होता है। समाज व बाल कल्याण मंत्री को ज्ञापन दिया जाता है और उसके बाद फिर अगले प्रदर्शन की तैयारी शुरू हो जाती है। आंगनवाड़ी भारत ही नहीं, दुनिया का एक बड़ा सामाजिक कार्यक्रम है। आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं की कमाई 3000 रुपया मात्र महीने का है। अलग-अलग राज्यों में अलग अलग वेतन हैं, अलग-अलग शर्तें हैं। केरल में दस हजार वेतन मिलता है तो कई राज्यों में न्यूनतम मजदूरी से भी कम 3000 रुपये। देश भर में आंगनवाड़ी के 14 लाख केंद्र हैं और 27 लाख वर्कर हैं। आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को सामाजिक कल्याण विभाग इंटरव्यू के बाद अस्थाई तौर पर नियुक्ति करता है। वर्कर के लिए 12 वीं पास होना जरूरी है। सभी महिलाएं होती हैं। बच्चों को टीके लगाना, खाना खिलाना, महिलाओं को पोषक तत्वों की जानकारी देना, यह सब इनका काम है। चालीस साल तक प्रदर्शन करें तो उनका साथ देना चाहिए और उस साधना के मर्म को समझना चाहिए। दिक्कत यह है कि जब तक मामला भावुक नहीं होता, उसमें राष्ट्रवाद या देशभक्ति के नाम पर या कांग्रेस बनाम बीजेपी के नाम पर कुतर्क करने की संभावना नहीं होती मीडिया, सरकार, समाज प्रदर्शनों को कमतर निगाह से देखते हैं।
अब देखिए फरवरी और मार्च महीने में जेएनयू को लेकर कितना हंगामा हुआ। आज उसी जेएनयू में उसी आंदोलन का अगला चरण चल रहा है। कई दिनों से लेफ्ट और एबीवीपी के छात्र अनशन पर बैठे हैं मगर कोई सुनवाई नहीं। छात्रों की हालत भी बिगड़ रही है। तब भी कोई हलचल नहीं। भारत विरोध के नारे सुनाई पड़ते हैं, अनशन का पता भी नहीं चलता जेएनयू में छात्रों के अनशन के मुद्दे पर शाम में लेफ्ट, कांग्रेस और जेडीयू के नेता राष्ट्रपति से मिले। इन्होंने राष्ट्रपति से अपील की कि इस मामले में दखल दें। सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा कि कन्हैया कुमार एम्स में हैं, बाकी छात्रों की हालत भी बिगड़ रही है, इसलिए राष्ट्रपति को दखल देना चाहिए। उन्होंने कहा कि जो मामला कोर्ट में है उस पर इस तरह यूनिवर्सिटी का फैसला ठीक नहीं है। कांग्रेस का भी कहना है कि कन्हैया पर कोई भी आरोप साबित नहीं हुआ है।
आशा कार्यकर्ता का भी लगभग वही हाल है। ये प्राइमरी स्वास्थ्य केंद्रों तक गर्भवती महिलाओं को पहुंचाने का कार्य करती हैं। हर बार चेकअप के लिए ले जाना ताकि गर्भवती महिला और बच्चे की सही देखरेख हो सके। हमारे देश में जन्म से पहले, जन्म के दौरान और जन्म के बाद बच्चों के मरने की संख्या काफी ज्यादा है। जाहिर है आशा वर्कर की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है। नाम आशा है मगर इनकी निराशा को कोई नहीं समझने वाला। शुक्रवार को यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव फिरोजाबाद पहुंचे तो आशा वर्कर मुर्दाबाद करने पहुंच गईं। पुलिस लाइन में मुख्यमंत्री करोड़ों की योजनाओं का लोकार्पण कर रहे थे तभी 100 आशा महिलाएं पहुंच गईं। सिस्टम के प्रति आशा की भी हद होती है। वहां पानी नहीं मिला तो कई आशा महिलाएं बेहोश हो गईं। इनकी मांग थी कि गांव-गांव जाकर महिलाओं को प्रसव के लिए जिला अस्पताल तक लाती हैं। इसके लिए सौ रुपये प्रतिदिन मिलते हैं। बार-बार आश्वासन दिया गया कि स्थाई किया जाएगा, मगर अभी तक अस्थाई नौकरी पर हैं। भत्ता बढ़ाने की मांग भी पूरी नहीं होती। किसी राज्य में इन्हें पांच सौ रुपये प्रति दिन मिलते हैं तो किसी राज्य में तीन सौ भी। मेघालय में 1000 रुपया प्रतिदिन मिल रहा है।
तात्पर्य यही है कि आँगनबाड़ी से लेकर आशा कार्यकर्ता, पारा शिक्षक और पारा मेडिकल स्टाफ की भी अपनी-अपनी समस्याएं हैं, सुनता है कौन? जब तक कि ये लोग भी वोट बैंक नहीं बन जाते ।
- जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर

माँ की ममता!



मातृ दिवस के अवसर पर माँ के प्रति उदगार!
इस मंच पर और अन्य मंचों पर माँ की महानता का इतना जिक्र और चर्चा हुई कि सभी जीवित और स्वर्गवाशी माँ सामजिक मंचों पर जरूर आई होंगी अपने अपने लाल को देखने, माथा चूमने, गोद में खेलाने, बलैया लेने और क्या क्या कहूँ…...
बस मैं अपने अनुभव को ही साझा करने की कोशिश करता हूँ.
जब तक मैं पढ़ रहा था, माँ के साथ ही रह रहा था प्रतिदिन उनके हाथ का बनाया हुआ खाना से ही पेट भर रहा था ! मुझे तो कभी भी भोजन कम स्वादिष्ट न लगा. मुझे खिलाने के बाद माँ जब स्वयं खाती तो उसे अंदाजा हो जाता था कि आज किस व्यंजन में क्या कमी रह गयी है और उसे जबतक फिर से और अच्छे तरीके से बनाकर मुझे खिला नहीं लेती उसे चैन नहीं होता था .
मेरी माँ साग और सब्जी तो अच्छा बनाती ही थी. पेड़े, निमकी, लाई, लड्डू, हलवा, मुर्रब्बा, पूआ, ठेकुआ आदि भी बड़े चाव से बनाती थी और इन सब सामग्रियों को खिलाने में उसे बड़ा मजा आता था.
हाँ खाने वाले से तारीफ सुनना भी जरूर चाहती थी.
जब मैं नौकरी करने लगा तो माँ से दूर हो गया और कुछ महीनों के अन्तराल पर मिलने लगा !
हर पर्व त्यौहार पर मैं जा नहीं पता था, पर जब भी जाता बीते पर्व का खास ब्यंजन या तो बना बनाया मिल जाता या फिर से बनाकर अवश्य खिलाती थी . शायद इसीलिये मैं आज भी चटोर और पेटू हूँ!

सबसे महत्वपूर्ण बात जो अब मैं बताने जा रहा हूँ – मेरी माँ धीरे धीरे कमजोर होने लगी थी, इसलिए मै उसे अपने पास ही रखने लगा था. संयोग से मेरी पत्नी माँ के मन लायक मिली थी और वह भी भरपूर सेवा-भाव से उनका आदर करती और शिकायत का कोई मौका न छोड़ती! तब तो वह मुझसे ज्यादा अपनी बहू को ही मानने लगी थी. यहाँ तक कि दूसरों से यह भी कहने में न चूकती कि बेटा से भी अच्छी मेरी बहू है !
एक बार माँ को साथ लेकर गाँव जान पड़ा, उस समय मेरे गाँव तक जाने के लिए सड़कें नहीं थी किसी तरह पगडंडियों के रास्ते पैदल ही पांच – छ: किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती थी.
खैर किसी तरह हमलोग गाँव पहुँच गए. मैं तो थक कर चूर हो गया था. माँ भी थक गयी होगी, पर माँ की हिम्मत और ममता देखिए ! उसने खाना बनाया, मुझे खिलाया फिर खुद खाई और उसके बाद उसने सरसों का तेल लेकर मेरे पैरों की मालिश की मेरे पूरे शरीर की मालिश की, तबतक जबतक मैं सो नहीं गया ! मुझे याद नहीं है, मैंने उतनी तल्लीनता से माँ के पांव दबाये होंगे. हाँ यह काम मेरी पत्नी कर दिया करती थी. अंतिम समय में हम दोनो ने उनकी भरपूर सेवा की जिसका उन्होंने दिल खोलकर आशीर्वाद दिया!
तो ऐसी होती है माँ और माँ की ममता !
अंत में सिर्फ चार पंक्तियां.
शब्द सभी अब अल्प लगेंगे, देवी जैसी मेरी माँ.
पेड़े को रखती सम्हाल कर, दीवाली में मेरी माँ.
जब भी ज्यादा जिद करता था, थपकी दे देती थी माँ.
सत्यम शिवम सुंदरम है वो, सपनों में मिलती अब माँ.

माँ का बेटा जवाहर