Monday, 24 December 2012

कुछ बदलाव होकर रहेगा!

पूरे देश में प्रदर्शन …. लोगों में आक्रोश की झलक और उसका प्रदर्शन …. सरकार की तरफ से प्रतिदिन होती कुछ न कुछ घोषणाएं, अदालत की त्वरित कार्रवाई विलम्ब से ही सही ..पर कुछ तो संकेत दे जाते हैं कि परिवर्तन या बदलाव होकर रहेगा. घटनाएँ उसी रफ़्तार से घट रही हैं पर, रिपोर्टिंग हो रही है पुलिस थानों में केस दर्ज किये जा रहे हैं अधिकतर सम्भ्रांत या चुप रहने वाली महिलाएं अपनी चुप्पी तोड़ रही हैं. चाहे वह हाकी खिलाड़ी हो या अभिनेत्री, कार्यरत्त महिलाये हो या गृहणियां सभी सामने आ रही हैं. फेसबुक, मीडिया, सार्वजनिक स्थानों पर चर्चाएँ, कुछ तो सकारात्मक हो रहा है.

मुझे दुःख है राजनीतिक पार्टियों की अकर्मण्यता पर इतना कुछ होने पर भी न तो सर्वदलीय मीटिंग कराई गयी, न ही संसद का विशेष सत्र बुलाया गया! सत्तापक्ष और विपक्ष सभी टी वी चैनेल और मीडिया में तो बहस कर रहे हैं, संसद में बहस करने को तैयार नहीं दीखते कठोर कानून की मांग सभी कर रहे हैं, पर सक्रिय कदम नहीं उठाये जा रहे. दुर्भाग्य है हमारे देश का जहाँ कुत्सित विचार वाले कर्णधार हैं, जो नहीं चाहते कि कठोर कानून बने! लोकपाल बिल पर सभी पार्टियों का ढुलमुल रवैया पर एफ डी आई पर ऐन केन प्रकारेण बहुमत से पास करा लेना…. पर बाकी जनउपयोगी बिल पर सरकार और विपक्ष का ढुलमुल रवैया आम आदमी को सोचने पर मजबूर करता है कि उनकी मंशा क्या है?
जनता में जागृति आई है और वह अपना आक्रोश या तो सड़कों पर या अन्य संचार माध्यमों के द्वारा ब्यक्त कर रही है ..पर दुर्भाग्य यही कहा जाएगा कि कोई जन-नेता इस भीड़ को न तो नियंत्रित करने पहुँच रहा है, न ही इन्हें दिशा प्रदान कर रहा है……ठंढ के मौसम में पानी की बौछाड़, आंसू गैस के गोले, लाठियों की मार सब कुछ सहते हुए ये लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं. अन्ना हजारे और किरण बेदी भी दूर से तमाशा देख रहे हैं बाबा रामदेव और अरविन्द केजरीवाल थोड़े समय के लिए वहां जरूर गए पर इन लोगों में भी जन समुदाय को दिशा प्रदान करने की क्षमता में कमी नजर आयी….. चर्चाएँ खूब हो रही है ..पर परिणाम कुछ ख़ास निकलता नजर नहीं आ रहा है!जब सभी आरोपी पकडे जा चुके हैं, बहुतों ने अपना जुल्म कबूल कर लिया है पीड़िता के बयान भी कलमबद्ध किये जा चुके हैं, तो ऐसी अवस्था में न्यायालय को छुट्टी मनाना क्या शोभा देता है?..क्यों यह सुनवाई ४ जनवरी तक के लिए टाल दी गयी? त्वरित सुनवाई क्या इसे ही कहते हैं. जब पूरा देश न्याय की गुहार लगा रहा है, तो क्या यह उचित है कि न्यायालय छुट्टी मनाये नौजवान अपनी छुट्टी को तिलांजली देकर सड़क पर इकठ्ठा हैं कुछ स्कूलों के शिक्षक भी अपने छात्रों को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं ..मीडिया दिनरात इन प्रदर्शनों को कव्हर कर रहा है ..ऐसी स्थिति में छुट्टी और नए साल का जश्न मनाना कही से भी जायज नही दीखता
मेरी मान्यता है कि अगर भाजपा को सत्ता में वापस आना है तो ऐसे संवेदनशील मुद्दे को हाथों हाथ लेना चाहिए और आमलोगों की सहानुभूति अर्जित करनी चाहिए या फिर बाबा रामदेव, अन्ना हजारे, केजरीवाल को एकजुट होकर इन आन्दोलनकारियों का साथ देना चाहिए. पुलिस कमिश्नर पर गाज गिराकर आप तत्काल आक्रोश को शांत करना चाह रहे हैं, पर इससे ज्यादा जिम्मेवारी जिनकी बनती हैं वह गृह मंत्रालय, दिल्ली की मुख्यमंत्री, प्रधान मंत्री अपनी बेटियों की गिनती करते नजर आते हैं. उनकी बेटियां सुरक्षित रहेंगी क्योंकि वे मजबूत सुरक्षा घेरे में हैं. जरा सा अपना सुरक्षा घेरा हटाकर तो देखें. (राष्ट्रपति की बेटी भी डर का अनुभव कर रही है, पर राष्ट्रपति चुप हैं!)
मेरे विचार से ऐसे समय में कोई भी सार्वजनिक जश्न नहीं मनाया जाना चाहिएफूहड़ फिल्मों, विज्ञापनों पर तत्काल रोक लगा देनी चाहिए अश्लील गाने और कार्यक्रम को बैन कर देना चाहिए!..पर यह क्या हो रहा है आज २५ दिसंबर है, क्रिसमस धूमधाम से मनाया जायेगा…. वनभोज स्थलों पर भी फूहड़ता दिखलाई जायेगी और हमारे बच्चे बच्चियां ठंढ में सिकुड़ते हुए आन्दोलन करने को मजबूर होंगे या ठंढे पर जायेंगे.
जम्मू कश्मीर में ठीक उसी प्रकार की घटना का होना…. देश के अन्य भागों में भी उसी रफ़्तार से अनाचार होना …..आखिर क्या बताता है? …अपराधियों के मन में कानून का खौफ नहीं रह गया है. …. दिल्ली पुलिस जो आन्दोलन को दबाने में सक्रिय है, इन घटनाओं को रोक पाने में विफल है…. जनाक्रोश भी भीड़ में तो दीखता है, पर एक महिला, लडकी, बच्ची को प्रताड़ित होने से बचाने में कोई भी सक्रिय नहीं दीखता …. सार्वजनिक स्थलों पर जहाँ खुलेआम फब्तियां कसी जाती हैं या छेड़-छाड़ की घटनाएँ होती हैं, उसे रोकने के लिए कितने कदम आगे बढ़ते हैं? थानों में शिकायत दर्ज कराने में या उसपर त्वरित कार्रवाई कराने में कितने लोग सक्रिय होते हैं ? हमें इन सब पर ध्यान देने की जरूरत है. अगर जुल्म करते हुए हमारा बेटा पकड़ा जाय तो हम हर सम्भव कोशिश करेंगे उसे बचाने को और अगर शिकार हमारी बच्ची होगी तो चाहेंगे न्याय मिले या लोकलाज के भय से मामला को दबाने का हरसंभव प्रयास करेंगे!फेसबुक पर एक वाक्य पढने को मिला – “एक बलात्कार के बहाने लाखों लोग अपने को पाक-साफ़ दिखाने की कोशिश कर रहे हैं”. क्या हम वाकई पाक-साफ़ हैं क्या हमने कभी किसी लडकी, अभिनेत्री, वेश्या को बुरी नजर से नहीं देखा???
प्रश्न बहुत हैं समाधान आचार ब्यवहार में परिवर्तन, सदाचार के नींव की मजबूती, हमारी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति का अनुकरण, पाश्चात्य सभ्यता के अन्धानुकरण से बचना आदि हो सकता है. पर उससे भी ज्यादा जरूरी है, हमारे मन की पवित्रता जो आध्यात्मिक सोच से ही आ सकती है. हमें अपने आप को ज्यादा से ज्यादा समय रचनात्मक कार्यों में लगाना होगा, नहीं तो हम सभी जानते हैं कि खाली मन शैतान का घर होता है. मनुष्य पशु बन जाता है, जब वह शराब आदि का नशा करता है यह सब पूर्णत: प्रतिबंधित होना चाहिए! केवल वैधानिक चेतावनी, समाधान नहीं है. ज्यादातर दुष्कर्म शराब के नशे में होते हैं. इन्हें रोकने के लिए हम क्या कर रहे हैं? बल्कि यह दिन प्रतिदिन फैशन बनता जा रहा है और आधुनिकता की पहचान भी. हमारे कालेजगामी बच्चे, उच्च शिक्षण संस्थान में पढनेवाले किशोर और किशोरियां क्लबों में या पबों में समय बिताते हुए पाए जाते हैं. वहां भी बहुत कुछ होता है. ….तब इसे कोई नया आधुनिक जामा पहना दिया जाता है. हम केवल सरकार को दोष नहीं दे सकते क्योंकि वह हमारी ही चुनी हुई सरकार है! पूरी ब्यवस्था परिवर्तन के लिए हमारे अपने आप की सोच को बदलनी होगी! ॐ शांति!

कुछ बदलाव होकर रहेगा!

पूरे देश में प्रदर्शन …. लोगों में आक्रोश की झलक और उसका प्रदर्शन …. सरकार की तरफ से प्रतिदिन होती कुछ न कुछ घोषणाएं, अदालत की त्वरित कार्रवाई विलम्ब से ही सही ..पर कुछ तो संकेत दे जाते हैं कि परिवर्तन या बदलाव होकर रहेगा. घटनाएँ उसी रफ़्तार से घट रही हैं पर, रिपोर्टिंग हो रही है पुलिस थानों में केस दर्ज किये जा रहे हैं अधिकतर सम्भ्रांत या चुप रहने वाली महिलाएं अपनी चुप्पी तोड़ रही हैं. चाहे वह हाकी खिलाड़ी हो या अभिनेत्री, कार्यरत्त महिलाये हो या गृहणियां सभी सामने आ रही हैं. फेसबुक, मीडिया, सार्वजनिक स्थानों पर चर्चाएँ, कुछ तो सकारात्मक हो रहा है.

मुझे दुःख है राजनीतिक पार्टियों की अकर्मण्यता पर इतना कुछ होने पर भी न तो सर्वदलीय मीटिंग कराई गयी, न ही संसद का विशेष सत्र बुलाया गया! सत्तापक्ष और विपक्ष सभी टी वी चैनेल और मीडिया में तो बहस कर रहे हैं, संसद में बहस करने को तैयार नहीं दीखते कठोर कानून की मांग सभी कर रहे हैं, पर सक्रिय कदम नहीं उठाये जा रहे. दुर्भाग्य है हमारे देश का जहाँ कुत्सित विचार वाले कर्णधार हैं, जो नहीं चाहते कि कठोर कानून बने! लोकपाल बिल पर सभी पार्टियों का ढुलमुल रवैया पर एफ डी आई पर ऐन केन प्रकारेण बहुमत से पास करा लेना…. पर बाकी जनउपयोगी बिल पर सरकार और विपक्ष का ढुलमुल रवैया आम आदमी को सोचने पर मजबूर करता है कि उनकी मंशा क्या है?
जनता में जागृति आई है और वह अपना आक्रोश या तो सड़कों पर या अन्य संचार माध्यमों के द्वारा ब्यक्त कर रही है ..पर दुर्भाग्य यही कहा जाएगा कि कोई जन-नेता इस भीड़ को न तो नियंत्रित करने पहुँच रहा है, न ही इन्हें दिशा प्रदान कर रहा है……ठंढ के मौसम में पानी की बौछाड़, आंसू गैस के गोले, लाठियों की मार सब कुछ सहते हुए ये लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं. अन्ना हजारे और किरण बेदी भी दूर से तमाशा देख रहे हैं बाबा रामदेव और अरविन्द केजरीवाल थोड़े समय के लिए वहां जरूर गए पर इन लोगों में भी जन समुदाय को दिशा प्रदान करने की क्षमता में कमी नजर आयी….. चर्चाएँ खूब हो रही है ..पर परिणाम कुछ ख़ास निकलता नजर नहीं आ रहा है!जब सभी आरोपी पकडे जा चुके हैं, बहुतों ने अपना जुल्म कबूल कर लिया है पीड़िता के बयान भी कलमबद्ध किये जा चुके हैं, तो ऐसी अवस्था में न्यायालय को छुट्टी मनाना क्या शोभा देता है?..क्यों यह सुनवाई ४ जनवरी तक के लिए टाल दी गयी? त्वरित सुनवाई क्या इसे ही कहते हैं. जब पूरा देश न्याय की गुहार लगा रहा है, तो क्या यह उचित है कि न्यायालय छुट्टी मनाये नौजवान अपनी छुट्टी को तिलांजली देकर सड़क पर इकठ्ठा हैं कुछ स्कूलों के शिक्षक भी अपने छात्रों को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं ..मीडिया दिनरात इन प्रदर्शनों को कव्हर कर रहा है ..ऐसी स्थिति में छुट्टी और नए साल का जश्न मनाना कही से भी जायज नही दीखता
मेरी मान्यता है कि अगर भाजपा को सत्ता में वापस आना है तो ऐसे संवेदनशील मुद्दे को हाथों हाथ लेना चाहिए और आमलोगों की सहानुभूति अर्जित करनी चाहिए या फिर बाबा रामदेव, अन्ना हजारे, केजरीवाल को एकजुट होकर इन आन्दोलनकारियों का साथ देना चाहिए. पुलिस कमिश्नर पर गाज गिराकर आप तत्काल आक्रोश को शांत करना चाह रहे हैं, पर इससे ज्यादा जिम्मेवारी जिनकी बनती हैं वह गृह मंत्रालय, दिल्ली की मुख्यमंत्री, प्रधान मंत्री अपनी बेटियों की गिनती करते नजर आते हैं. उनकी बेटियां सुरक्षित रहेंगी क्योंकि वे मजबूत सुरक्षा घेरे में हैं. जरा सा अपना सुरक्षा घेरा हटाकर तो देखें. (राष्ट्रपति की बेटी भी डर का अनुभव कर रही है, पर राष्ट्रपति चुप हैं!)
मेरे विचार से ऐसे समय में कोई भी सार्वजनिक जश्न नहीं मनाया जाना चाहिएफूहड़ फिल्मों, विज्ञापनों पर तत्काल रोक लगा देनी चाहिए अश्लील गाने और कार्यक्रम को बैन कर देना चाहिए!..पर यह क्या हो रहा है आज २५ दिसंबर है, क्रिसमस धूमधाम से मनाया जायेगा…. वनभोज स्थलों पर भी फूहड़ता दिखलाई जायेगी और हमारे बच्चे बच्चियां ठंढ में सिकुड़ते हुए आन्दोलन करने को मजबूर होंगे या ठंढे पर जायेंगे.
जम्मू कश्मीर में ठीक उसी प्रकार की घटना का होना…. देश के अन्य भागों में भी उसी रफ़्तार से अनाचार होना …..आखिर क्या बताता है? …अपराधियों के मन में कानून का खौफ नहीं रह गया है. …. दिल्ली पुलिस जो आन्दोलन को दबाने में सक्रिय है, इन घटनाओं को रोक पाने में विफल है…. जनाक्रोश भी भीड़ में तो दीखता है, पर एक महिला, लडकी, बच्ची को प्रताड़ित होने से बचाने में कोई भी सक्रिय नहीं दीखता …. सार्वजनिक स्थलों पर जहाँ खुलेआम फब्तियां कसी जाती हैं या छेड़-छाड़ की घटनाएँ होती हैं, उसे रोकने के लिए कितने कदम आगे बढ़ते हैं? थानों में शिकायत दर्ज कराने में या उसपर त्वरित कार्रवाई कराने में कितने लोग सक्रिय होते हैं ? हमें इन सब पर ध्यान देने की जरूरत है. अगर जुल्म करते हुए हमारा बेटा पकड़ा जाय तो हम हर सम्भव कोशिश करेंगे उसे बचाने को और अगर शिकार हमारी बच्ची होगी तो चाहेंगे न्याय मिले या लोकलाज के भय से मामला को दबाने का हरसंभव प्रयास करेंगे!फेसबुक पर एक वाक्य पढने को मिला – “एक बलात्कार के बहाने लाखों लोग अपने को पाक-साफ़ दिखाने की कोशिश कर रहे हैं”. क्या हम वाकई पाक-साफ़ हैं क्या हमने कभी किसी लडकी, अभिनेत्री, वेश्या को बुरी नजर से नहीं देखा???
प्रश्न बहुत हैं समाधान आचार ब्यवहार में परिवर्तन, सदाचार के नींव की मजबूती, हमारी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति का अनुकरण, पाश्चात्य सभ्यता के अन्धानुकरण से बचना आदि हो सकता है. पर उससे भी ज्यादा जरूरी है, हमारे मन की पवित्रता जो आध्यात्मिक सोच से ही आ सकती है. हमें अपने आप को ज्यादा से ज्यादा समय रचनात्मक कार्यों में लगाना होगा, नहीं तो हम सभी जानते हैं कि खाली मन शैतान का घर होता है. मनुष्य पशु बन जाता है, जब वह शराब आदि का नशा करता है यह सब पूर्णत: प्रतिबंधित होना चाहिए! केवल वैधानिक चेतावनी, समाधान नहीं है. ज्यादातर दुष्कर्म शराब के नशे में होते हैं. इन्हें रोकने के लिए हम क्या कर रहे हैं? बल्कि यह दिन प्रतिदिन फैशन बनता जा रहा है और आधुनिकता की पहचान भी. हमारे कालेजगामी बच्चे, उच्च शिक्षण संस्थान में पढनेवाले किशोर और किशोरियां क्लबों में या पबों में समय बिताते हुए पाए जाते हैं. वहां भी बहुत कुछ होता है. ….तब इसे कोई नया आधुनिक जामा पहना दिया जाता है. हम केवल सरकार को दोष नहीं दे सकते क्योंकि वह हमारी ही चुनी हुई सरकार है! पूरी ब्यवस्था परिवर्तन के लिए हमारे अपने आप की सोच को बदलनी होगी! ॐ शांति!

Monday, 10 December 2012

राजनीति है क्या भला! भाग -२

गतांक से आगे)
पिछले भाग में मैंने कहना चाहा था – भाजपा वाले, अभी भी वक्त है, सम्हल जाओ आत्म-मंथन, आत्म चिंतन, संघ शरणम जो भी करो, पर अपने पर न कतरो…… कांग्रेस से सब परेशान हैं, पर विकल्प बनने की कोशिश तो करो. संसद ठप्प करके क्या साबित करना चाहते हो?
अब जबकि सारा देश देख चुका है – एफ डी आइ के मामले में भाजपा के सारे तर्क बेकार हो गए जब माया और मुलायम ने अपना रास्ता चुन लिया! यह भी हम देख चुके हैं कि कांग्रेस तभी नियम १८४ के तहत चर्चा को तैयार हुई, जब वह दोनों सदनों में अपना बहुमत का अंकगणित तैयार कर चुकी थी! अब आप इसे ‘मैनेजमेंट’ कहें या ‘जुगाड़’ … जीत तो ‘जीत’ ही होती है, वह भी लोकतान्त्रिक तरीके से!
इन चार दिनों के बहस और परिणाम के बाद जो मुझे समझ आया, वह कुछ इस प्रकार है! भाजपा को अगर दुबारा सत्ता में आना है तो -
१. भाजपा को अपनी ‘साम्प्रदायिक’ छवि के ‘दाग’ को मिटाना होगा. मुस्लिमों के ह्रदय में जगह बनानी होगी! कुछ मुस्लिम नेताओं को पार्टी में शामिल कर उन्हें ‘जिम्मेदार’ पद देना होगा.
२. पिछड़े और दलित वर्गों में भी अपनी पैठ बनानी होगी. कल्याण सिंह और उमा भारती पिछड़े वर्ग के नेता हैं. इनका उपयोग माया और मुलायम के विरुद्ध किया जा सकता है!…. पर केवल चुनाव के वक्त नहीं! …जहाँ, यानी जिस राज्य में आपका शाशन है, वहां पिछड़े तबके के नेता को भी प्रमुखता देनी होगी!
इस देश में सारी राजनीति, धर्म और जाति को लेकर होती रही है, इसे मिटाना आसान नहीं है! विकास अंतिम ब्यक्ति तक पहुंचना चाहिए! …यह दिखना भी चाहिए! मनरेगा में चाहे जितना भी भ्रष्टाचार हो, कुछ लोग तो इससे लाभान्वित हो ही रहे हैं! अब सब्सिडी वाले मामले को ही ले लीजिये. जिस गरीब के हाथ ने पैसा देखा नहीं, अब उसके बैंक खाते में जायेगा तो वह अपनी खुशी का इजहार करेगा ही और कांग्रेस को इसका लाभ मिलना तय है.
साम, दाम, दंड, भेद का प्रयोग ही तो राजनीति है. कट्टरता राजनीति को शोभा नहीं देती! शिव सेना, बजरंग दल, आर एस एस आदि को भी अपनी छवि सुधारनी होगी. प्रतिद्वंदी (दुश्मन) को भी पुचकार कर ही वश में किया जा सकता है. आप अगर उसकी औकात बतायेंगे तो वह भी अपनी औकात में आयेगा ही! सुषमा जी और जेटली बड़े अच्छे वक्ता हैं, पर थोड़ी सी चूक या शब्दों का गलत इस्तेमाल उन्हें मौका दे देता है, पलट वार करने का! आज मीडिया भी नुक्ता-चीनी कर रहा है, मीन-मेख निकाल रहा है, तो शब्दों को ही ढो रहा है!
फेसबुक पर आपने जी भरकर कांग्रेस और सपा-बसपा को कोसा – उससे आम जनता पर क्या फर्क पड़ता है! फेसबुक इस्तेमाल करने वाले बहुत कम वोट देने जाते हैं, ऐसा आंकड़ा बताता है. हमारे यहाँ शिक्षा का स्तर अभी उतना आगे नहीं बढ़ा, जिससे फेसबुक या एस एम एस के जरिये सर्वे कर नतीजा निकाल लेंगे! बल्कि हम देख रहे हैं कि इधर जितना गाली या अपशब्दों (कार्टूनों) का इस्तेमाल इंटरनेट पर होने लगा है, उससे कांग्रेस का कुछ भी नहीं बिगड़ा! नहीं भाजपा को बहुत फायदा ही होता हुआ दिख रहा है! २०१४ में क्या होगा, यह हम नहीं जानते, पर … आसार अच्छे नजर नहीं आ रहे हैं! भाजपा नेतृत्व किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में अवश्य दिख रही है! अगर एफ डी आई पर सुषमा जी का प्रस्ताव नहीं गिरता तो स्थिति कुछ दूसरी नजर आ सकती थी. अब रह गया है गुजरात और हिमाचल प्रदेश का चुनाव परिणाम!… पर इससे देश का आम चुनाव कितना प्रभावी होगा कहना मुश्किल है! अन्ना और बाबा रामदेव नेपथ्य में चले गए हैं .. अरविन्द अकेले क्या कर लेंगे? अभी उनको बहुत तैयारी करनी है ….. संगठन का विस्तार नहीं हो रहा है… ले देकर ‘दिल्ली से दिल्ली तक’ तो नहीं पहुंचा जा सकता??

Thursday, 6 December 2012

राजनीति है क्या भला!


राजनीति (Politics) वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोगों का कोई समूह निर्णय लेता है। सामान्यत: यह शब्द असैनिक सरकारों के अधीन व्यवहार के लिये प्रयुक्त होता है किन्तु राजनीति मानव के सभी सामूहिक व्यवहारों (यथा, औद्योगिक, शैक्षणिक एवं धार्मिक संस्थाओँ में) में सदा से उपस्थित तत्व रहा है। राजनीति उन सामाजिक सम्बन्धों से बना है जो सत्ता और शक्ति लिये होते हैं।
राजनीति शब्द का विश्लेषण करें तो यह दो शब्दों, ‘राज’ और ‘नीति’ से बना है. राज मतलब राजा अथवा राज्य …. पहले पहल राजा, रजवारे हुआ करते थे और वे एक निश्चित भौगोलिक सीमा में बंधे भूभाग पर राज्य करते थे. अपने राज्य की प्रजा और अपना सिंहासन सुरक्षित रखना उनका परम कर्तव्य होता था. अपनी शक्ति विस्तार के लिए वे अगल बगल के राजाओं (राज्यों के नेता) से या तो सामान्य आग्रह कर अपने अधीन करना चाहते थे या फिर शक्तिबल, युद्ध कर के अपने अधीन कर लेते थे. थोड़ा और विश्लेषण करें तो साम दाम दंड भेद का इस्तेमाल कर अपनी ताकत को बढ़ाते थे. इसे फिर कूटनीति भी नाम दिया गया. अच्छा राजा वह है जो युद्ध नहीं, अपनी कूट नीति (कुटिल बुद्धि ) का इस्तेमाल कर अन्य राज्यों यथा राजाओं को अपने अधीन रखे!समझ में नहीं आ रहा शुरू कहाँ से करूँ?
पौराणिक युग की बात करूँ, तो इसमें सबसे पहले देवासुर संग्राम की चर्चा करनी होगी – पौराणिक कथा के अनुसार देवता लोग तो स्वयम स्वर्ग का सुख भोगते थे और असुरों को हमेशा निकृष्ट मानकर उसे पृथ्वी लोक पर राज करने के लिए, या कहें कि नाना प्रकार के कष्ट भोगने के लिए प्रतारित भी करते रहते थे. असुरों में चेतना लौटी तो वे भी स्वर्ग के सिंहासन के लिए देवताओं से युद्ध करने लगे! देवता पराजित होकर भगवान विष्णु के पास गए और उनके परामर्श अनुसार समुद्र मंथन हुआ और उससे निकले अमृत को बाँटने में भी कूटनीति का इस्तेमाल हुआ….
देवासुर संग्राम में ही देवाताओं की तरफ से लड़ने गए थे, राजा दशरथ और अपनी महारानी कैकेयी को दो वरदान दे दिए. फलस्वरूप राम को वनगमन करना पड़ा और सीता हरण के बाद रावण को मारने के लिए ‘विभीषण’ की सहायता लेनी पड़ी.
अब आते हैं महाभारत काल में – जन्म से अंधे होने के कारण धृतराष्ट्र बड़े होने के बावजूद राजा नहीं बनाये गए, जिसके संताप को वे जीवन भर न भुला सके और अपने साले शकुनी और पुत्र दुर्योधन के कुटिल चालों से पांडवों को समाप्त करने में कोई कसर न छोड़ी और अंत में वे श्री कृष्ण की कूटनीति के आगे हार गए!
ये सब बहुत पुरानी बाते हैं जो कुछ सिखाती है – पर हम सबक कहाँ लेते हैं ? फिर वही कुटिलता का सहारा लेकर अपनी सार्वभौमिकता को प्राप्त करने में सतत लगे रहते हैं.
इतिहास की बात करें तो भारत में सिन्धु घाटी सभ्यता और आर्यों की सभ्यता से प्रारंभ माना जाता है! हिन्दू लोग हमेशा से सहिष्णु, और स्वतंत्रता में बिस्वास रखने वाले थे. फलस्वरूप वे आपस में ही बनते रहते थे जिसका फायदा पहले मुगलों ने उठाया फिर अंग्रेजों ने! सोने की चिड़िया कहा जाने वाला देश परकटा पंछी बन फड़फड़ाता रहा. आजादी के बाद भी जिन्ना और नेहरू की कूटनीति ने इसे दो हिस्सों में बाँट दिया, जिसकी त्रासदी आज भी हमसब ‘युधिष्ठिर’ की भांति झेल रहे हैं.
कहते हैं नेहरू और नेहरू खानदान ने इसे जी भरकर चूसा और आजतक चूस रहे हैं. दोष किसका? प्रजातंत्र में राजतंत्र की भांति एक ही खानदान के इशारों पर चलने को मजबूर हैं…… इसमे दोष किसका है????
कांग्रेस से जो भी अलग हुए उनका नामोनिशान मिट गया या घूम फिरकर उसी पार्टी में आ मिले.

कांग्रेस विचारधारा से अलग होकर श्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने राष्ट्रिय स्वयम सेवक संघ के सरसंघचालक श्री गुरू गोलवलकर जी से परामर्श करने के बाद 21 अक्तूबर, 1951 को दिल्ली में भारतीय जनसंघ की नींव रखी और वे इसके पहले अध्यक्ष बने. फिर राष्ट्रिय जनतांत्रिक पार्टी और भारतीय जनता पार्टी आज भी मुख्य विपक्षी दल के रूप में है. श्री अटल बिहारी के नेतृत्व में भाजपा 19 मार्च, 1998 से 13 मई, 2004 तक भारत की सत्ता में रही!श्री अटल बिहारी बाजपेयी का करिश्माई व्यक्तित्व अपने गठबंधन को बांधे रहने में सफल साबित हुआ, फिर भी ममता, जयललिता और समता (वर्तमान जे डी यु) आदि उन्हें बीच बीच में उद्वेलित करते रहने की हर संभव कोशिश से बाज नहीं आई. अन्दर अन्दर लालकृष्ण आडवाणी की महत्वाकांक्षा आड़े आती रही हालाँकि वे ‘उप प्रधान मंत्री’ थे और बाजपेयी जी के साथ ही संसद में बैठते थे. वही आडवाणी जी तब नरेन्द्र मोदी को समर्थन करते दिखे, जब बाजपेयी जी ने कहा था (गुजरात दंगो के बाद)-राज धर्म का पालन नहीं हुआ! वही आडवाणी जी अन्दर ही अन्दर मोदी जी के जड़ में गरम पानी डालने का कोई भी मौका गंवाना नहीं चाहते – चाहे वह नीतीश जी के बहाने हो या शत्रुघन सिन्हा के बहाने!
आज भाजपा आत्ममंथन करने के बजाय अपने पाँव को घायल करने में लगी है. अभी आपने रामजेठमलानी को निकाला फिर क्या यशवंत सिन्हा और शत्रुघन सिन्हा को भी निकालेंगे? फिर और विरोधी सुर पैदा न होंगे, यह कैसे जानते हैं? कांग्रेस खुश है और मजे ले रही है. आप संसद नहीं चलने देते, भारत बंद कराते हैं, पर ममता के अविश्वास प्रस्ताव के साथ खड़े नहीं होते? फिर यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि ममता आगे आपको समर्थन करेगी. ममता को धोखा देने के लिए मुलायम सिंह भी तैयार रहते हैं और प्रधान मंत्री बनने के मंसूबे पाल लेते हैं. पूरे परिवार मिलकर भी उत्तर प्रदेश तो सम्हाल नहीं पा रहे, देश सम्हालेंगे?
भाजपा, कांग्रेस आलाकमान सोनिया जी के विदेशी दौरों का तो हिशाब मांगती हैं, पर गडकरी की पूर्ती में आपूर्ति करती रहती हैं!…..भाजपा वाले, अभी भी वक्त है, सम्हल जाओ आत्म-मंथन, आत्म चिंतन, संघ शरणम जो भी करो, पर अपने पर न कतरों…… कांग्रेस से सब परेशान हैं, पर विकल्प बनने की कोशिश तो करो. संसद ठप्प करके क्या साबित करना चाहते हो? लोकपाल बिल के समय भी अपनी कलई खोल चुके हो. अरविन्द केजरीवाल से अभी भले न डरो, पर एक समय आ सकता है, कि जनता उसके समर्थन में उठ खड़ा हो. मीडिया अभी तक केजरीवाल के साथ है और आज के समय में मीडिया का बड़ा रोल है!… हम कांग्रेस को जितना भी गाली दे लें, पर जबतक सशक्त विकल्प बनकर नहीं उभरेंगे, जनता क्या करेगी? हो सकता है तबतक सब्सिडी वाले गैस सिलिंडर की संख्या में बढ़ोत्तरी कर, पेट्रोल डीजल के मूल्यों में कटौती कर, मूल्यवृद्धि में लगाम लगाकर तात्कालिक सहानुभूति बटोर ले. कम से कम कांग्रेस में सभी एक रिमोट कंट्रोल पर एकमत तो हैं!

चाणक्य ने नंदवंश का नाश करने के लिए ‘चन्द्रगुप्त’ का सहारा लिया, ‘उसे’(चन्द्रगुप्त को) युद्ध कौशल सिखाने के लिए सिकन्दर की सेना में शामिल कराने से भी परहेज नहीं था. वो कहते हैं न ‘युद्ध और प्यार में सब जायज है’. फिर दुविधा क्यों? ‘चाल’ ‘चरित्र’ और ‘चेहरा’ का नारा किस दिन के लिए. ‘ए पार्टी विथ डिफरेंस’ कहने से नहीं होता, साबित करना पड़ता है. आडवाणी जी ने दो दो बार यह साबित किया है. उमा भारती और कल्याण सिंह को फिर से मौका दो, शायद कुछ ‘कल्याण’ हो जाय! सुषमा जी और अरुण जेटली विद्वान और प्रखर नेता हैं, इनकी धारा को कुमार्ग पर मत मोड़ो!
राजनीति का कुछ भी अनुभव न होने के बावजूद मैंने बहुत सारे सुझाव दे डाले. यह सब समय की मांग के अनुसार मैंने अपनी अभिब्यक्ति दी है. आम आदमी और क्या कर सकता है. आम आदमी की ही तो बात कर सकता है. वैसे देश तो चलता रहेगा – या तो अमेरिका के इशारे पर या फिर पकिस्तान का डर दिखाकर! हम सब देश के आगे कुर्बान हो जायेंगे.’सर कटा सकते हैं, लेकिन सर झुका सकते नहीं’!