पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को देश के सर्वोच्च
सम्मान भारतरत्न से नवाजा गया है. उनके अलावा और दो नाम हैं एक आरएसएस से जुड़े संघ
प्रचारक नानाजी देशमुख(मरणोपरांत) और दुसरे
गीतकार, संगीतकार, गायक भूपेन हजारिका(मरणोपरांत) को भारतरत्न सम्मान की घोषणा की
गयी है. भारतरत्न भारत का सर्वोच्च सम्मान है. यह हर साल अधिक से अधिक तीन
व्यक्तियों को दिया जा सकता है. यहाँ हम प्रणव दा की ही बात करेंगे. प्रणब दा का
भारतीय राजनीति में लंबा रिश्ता रहा है. उन्होंने अपना कैरियर कोलकाता में डिप्टी
अकाउंटेंट जनरल के कार्यालय में क्लर्क के रूप में शुरू किया था लेकिन इसके बाद
अपनी मेहनत और बुद्धिमत्ता से आगे बढ़ते गए.
प्रणव मुखर्जी का जन्म पश्चिम बंगाल के बीरभूम ज़िले के एक छोटे से गांव मिराटी में एक ब्राह्मण परिवार में 11 दिसंबर 1935 में हुआ था. प्रणब मुखर्जी के पिताजी कामदा किंकर मुखर्जी क्षेत्र के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे. आज़ादी की लड़ाई में वो 10 सालों से ज्यादा समय तक ब्रिटिश जेलों में कैद रहे. उनके पिताजी 1920 से इंडियन नेशनल कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे. देश की आजादी के बाद वो 1952 से लेकर 1964 तक पश्चिम बंगाल विधान परिषद के सदस्य रहे. अत: कहा जा सकता प्रणब दा ने राजनीति में प्रवेश पिता के हाथ को पकड़ कर ही किया था.
शुरुआत क्लर्क से करने के बाद वो पत्रकार बने लेकिन साथ-साथ कोलकाता विश्वविद्यालय में आगे की पढाई भी करते रहे. कलकत्ता विश्वविद्यालय से संबंधित सूरी विद्यासागर कॉलेज से स्नातक की परीक्षा पास करने के बाद प्रणब मुखर्जी ने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से ही इतिहास और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर (एम.ए.) की पढ़ाई की. कोलकाता विश्वविद्यालय से क़ानून की उपाधि (लॉ) की शिक्षा के बाद पश्चिम बंगाल के बीरभूम ज़िले के एक कॉलेज में प्राध्यापक (प्रोफेसर) की नौकरी शुरू की. उन्होंने वकील के रूप में भी काम किया. उनकी पैनी बुद्धि का लोहा हर कोई मानता रहा है. अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने लगातार इसका प्रदर्शन किया. राष्ट्रपति बनने से पहले उन्होंने कैबिनेट मंत्री के रूप में इंदिरा गांधी से लेकर मनमोहन सिंह की अगुवाई वाले सरकार में काम किया.
बंगाली परिवार से होने के कारण उन्हें रबिंद्र संगीत में भी खासी रुचि है. प्रणब को पश्चिम बंगाल के अन्य निवासियों की तरह ही माँ दुर्गा का उपासक भी माना जाता है. दुर्गा पूजा के दौरान वे माता की उपासना भी करते हैं. वो मृदुभाषी, गंभीर और कम बोलने वाले है. उन्हें बागवानी, किताबें पढ़ना और संगीत पसंद है. प्रणब दा के बारे में कहा जाता है कि मंत्री और राष्ट्रपति रहते हुए वे भी रोज 18 घंटे काम करते थे. अब वो बेशक रिटायर हो चुके हों लेकिन अब भी सक्रिय हैं. राष्ट्रपति पद से निवृत होने के बाद जून २०१८ में वे आरएसएस मुख्यायालय में भी जाकर अपना संबोधन भी दे चुके हैं.
प्रणब दा के राजनीतिक जीवन की शुरुआत वर्ष 1969 में हुई, तब वो पहली बार राज्य सभा से चुनकर संसद में आए थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी ने इनकी योग्यता से प्रभावित होकर मात्र 35 वर्ष की अवस्था में, 1969 में कांग्रेस पार्टी की ओर से राज्य सभा का सदस्य बना दिया. उसके बाद वे, 1975, 1981, 1993 और 1999 में राज्यसभा के लिए फिर से निर्वाचित हुए. 1973 में केंद्र सरकार में प्रणब मुखर्जी ने कैबिनेट मंत्री बनाया गया. 1974 में केंद्र सरकार में वित्त राज्य मंत्री बने. प्रणब वर्ष 1982 से 1984 तक कई कैबिनेट पदों के लिए चुने जाते रहे. इसके बाद वो 1984 में वह पहली बार भारत के वित्त मंत्री बने. प्रणब मुखर्जी ने सन 1982-83 के लिए पहला बजट सदन में पेश किया.
प्रणव मुखर्जी का जन्म पश्चिम बंगाल के बीरभूम ज़िले के एक छोटे से गांव मिराटी में एक ब्राह्मण परिवार में 11 दिसंबर 1935 में हुआ था. प्रणब मुखर्जी के पिताजी कामदा किंकर मुखर्जी क्षेत्र के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी थे. आज़ादी की लड़ाई में वो 10 सालों से ज्यादा समय तक ब्रिटिश जेलों में कैद रहे. उनके पिताजी 1920 से इंडियन नेशनल कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता थे. देश की आजादी के बाद वो 1952 से लेकर 1964 तक पश्चिम बंगाल विधान परिषद के सदस्य रहे. अत: कहा जा सकता प्रणब दा ने राजनीति में प्रवेश पिता के हाथ को पकड़ कर ही किया था.
शुरुआत क्लर्क से करने के बाद वो पत्रकार बने लेकिन साथ-साथ कोलकाता विश्वविद्यालय में आगे की पढाई भी करते रहे. कलकत्ता विश्वविद्यालय से संबंधित सूरी विद्यासागर कॉलेज से स्नातक की परीक्षा पास करने के बाद प्रणब मुखर्जी ने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से ही इतिहास और राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर (एम.ए.) की पढ़ाई की. कोलकाता विश्वविद्यालय से क़ानून की उपाधि (लॉ) की शिक्षा के बाद पश्चिम बंगाल के बीरभूम ज़िले के एक कॉलेज में प्राध्यापक (प्रोफेसर) की नौकरी शुरू की. उन्होंने वकील के रूप में भी काम किया. उनकी पैनी बुद्धि का लोहा हर कोई मानता रहा है. अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने लगातार इसका प्रदर्शन किया. राष्ट्रपति बनने से पहले उन्होंने कैबिनेट मंत्री के रूप में इंदिरा गांधी से लेकर मनमोहन सिंह की अगुवाई वाले सरकार में काम किया.
बंगाली परिवार से होने के कारण उन्हें रबिंद्र संगीत में भी खासी रुचि है. प्रणब को पश्चिम बंगाल के अन्य निवासियों की तरह ही माँ दुर्गा का उपासक भी माना जाता है. दुर्गा पूजा के दौरान वे माता की उपासना भी करते हैं. वो मृदुभाषी, गंभीर और कम बोलने वाले है. उन्हें बागवानी, किताबें पढ़ना और संगीत पसंद है. प्रणब दा के बारे में कहा जाता है कि मंत्री और राष्ट्रपति रहते हुए वे भी रोज 18 घंटे काम करते थे. अब वो बेशक रिटायर हो चुके हों लेकिन अब भी सक्रिय हैं. राष्ट्रपति पद से निवृत होने के बाद जून २०१८ में वे आरएसएस मुख्यायालय में भी जाकर अपना संबोधन भी दे चुके हैं.
प्रणब दा के राजनीतिक जीवन की शुरुआत वर्ष 1969 में हुई, तब वो पहली बार राज्य सभा से चुनकर संसद में आए थे. तत्कालीन प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी ने इनकी योग्यता से प्रभावित होकर मात्र 35 वर्ष की अवस्था में, 1969 में कांग्रेस पार्टी की ओर से राज्य सभा का सदस्य बना दिया. उसके बाद वे, 1975, 1981, 1993 और 1999 में राज्यसभा के लिए फिर से निर्वाचित हुए. 1973 में केंद्र सरकार में प्रणब मुखर्जी ने कैबिनेट मंत्री बनाया गया. 1974 में केंद्र सरकार में वित्त राज्य मंत्री बने. प्रणब वर्ष 1982 से 1984 तक कई कैबिनेट पदों के लिए चुने जाते रहे. इसके बाद वो 1984 में वह पहली बार भारत के वित्त मंत्री बने. प्रणब मुखर्जी ने सन 1982-83 के लिए पहला बजट सदन में पेश किया.
इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात, राजीव गांधी सरकार की
कैबिनेट में प्रणब मुखर्जी को शामिल नहीं किया गया. तब उन्होंने अपनी अलग
राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया. फिर 1989 में राजीव गांधी से विवाद
का निपटारा होने के बाद उन्होंने अपनी पार्टी को राष्ट्रीय कांग्रेस में मिला
दिया. पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव उन्हें पार्टी में दोबारा लेकर आये
थे. प्रणब मुखर्जी पहली बार वह लोकसभा के लिए पश्चिम बंगाल के जंगीपुर निर्वाचन
क्षेत्र से 13 मई 2004 को चुने गए थे. इसी क्षेत्र से दुबारा 2009 में भी लोकसभा के लिए चुने गए. पश्चिम बंगाल में वो
कांग्रेस प्रत्याशी की ओर से सबसे अधिक 1, 28,252 मतों से जीतने वाले सदस्य रहे.
2004 में पार्टी सत्ता में आई तो उन्हें भारत के रक्षा मंत्री के प्रतिष्ठित पद पर पहुंचने में मदद मिली. 24 अक्टूबर 2006 को उन्हें भारत का विदेश मंत्री नियुक्त किया गया. राष्ट्रपति बनने से पहले वो यूपीए सरकार में वित्त मंत्री थे. वो भारत के 13वें राष्ट्रपति बने. भारत रत्न दिए जाने की खबर सुनकर भारत के पूर्व राष्ट्रपति की पहली प्रतिक्रिया थी, 'पता नहीं मैं इसके लायक हूं या नहीं.' लेकिन जब चारों ओर से उन्हें मुबारकबाद के संदेश आने लगे तो उनके मन में उठ रहा यह संदेह जाता रहा.
लेकिन, कांग्रेस के लिए यह बड़ा खट्टा-मीठा अनुभव है. काफी लोगों को लगता है कि प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री बनने के लिए सबसे बेहतर व्यक्ति थे लेकिन सोनिया गांधी ने प्रणब मुखर्जी के बजाय मनमोहन सिंह को चुना, क्योंकि उन्हें ऐसा व्यक्ति चाहिए था जो कि उनकी बात को सुने. इसीलिए मनमोहन सिंह पीएम पद के लिए बेहतर व्यक्ति लगे. माना जाता है कि इस मामले में सोनिया गांधी कभी प्रणब मुखर्जी पर पूरी तरह से भरोसा नहीं कर पाईं.
यह बड़ी अजीब सी स्थिति थी कि कैबिनेट की मीटिंग में प्रणब मुखर्जी को मनमोहन सिंह की बात सुननी पड़ती थी. हालांकि सूत्रों का कहना है कि प्रणब मुखर्जी एकमात्र व्यक्ति थे जिनकी बात कैबिनेट में मनमोहन सिंह सुना करते थे.
2004 में पार्टी सत्ता में आई तो उन्हें भारत के रक्षा मंत्री के प्रतिष्ठित पद पर पहुंचने में मदद मिली. 24 अक्टूबर 2006 को उन्हें भारत का विदेश मंत्री नियुक्त किया गया. राष्ट्रपति बनने से पहले वो यूपीए सरकार में वित्त मंत्री थे. वो भारत के 13वें राष्ट्रपति बने. भारत रत्न दिए जाने की खबर सुनकर भारत के पूर्व राष्ट्रपति की पहली प्रतिक्रिया थी, 'पता नहीं मैं इसके लायक हूं या नहीं.' लेकिन जब चारों ओर से उन्हें मुबारकबाद के संदेश आने लगे तो उनके मन में उठ रहा यह संदेह जाता रहा.
लेकिन, कांग्रेस के लिए यह बड़ा खट्टा-मीठा अनुभव है. काफी लोगों को लगता है कि प्रणब मुखर्जी प्रधानमंत्री बनने के लिए सबसे बेहतर व्यक्ति थे लेकिन सोनिया गांधी ने प्रणब मुखर्जी के बजाय मनमोहन सिंह को चुना, क्योंकि उन्हें ऐसा व्यक्ति चाहिए था जो कि उनकी बात को सुने. इसीलिए मनमोहन सिंह पीएम पद के लिए बेहतर व्यक्ति लगे. माना जाता है कि इस मामले में सोनिया गांधी कभी प्रणब मुखर्जी पर पूरी तरह से भरोसा नहीं कर पाईं.
यह बड़ी अजीब सी स्थिति थी कि कैबिनेट की मीटिंग में प्रणब मुखर्जी को मनमोहन सिंह की बात सुननी पड़ती थी. हालांकि सूत्रों का कहना है कि प्रणब मुखर्जी एकमात्र व्यक्ति थे जिनकी बात कैबिनेट में मनमोहन सिंह सुना करते थे.
तो सवाल है कि बीजेपी आखिर प्रणब मुखर्जी को यह
पुरस्कार देकर क्या साबित करना चाहती है? पहला- आज नहीं तो कल बीजेपी इस बात को ज़रूर कहेगी कि
कांग्रेस योग्यता को महत्व नहीं देती जबकि बीजेपी योग्यता का सम्मान करती है.
दूसरा- बीजेपी, कांग्रेस पर आरोप लगाएगी कि उसने कभी प्रणब मुखर्जी का सम्मान नहीं किया पर बीजेपी ने किया. ये
कुछ वैसा ही तर्क है जो बीजपी सरदार पटेल को लेकर देती आई है. बीजेपी को लगता है
कि प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न देकर आगामी लोक सभा चुनाव में पार्टी बंगाल में
बेहतर प्रदर्शन कर पाएगी. बीजेपी को उम्मीद है कि इससे बंगाल के पढ़े-लिखे लोगों में इसकी पैठ बढ़
जाएगी. हालांकि, पीएम मोदी उस वक्त भी प्रणब मुखर्जी की तारीफ करते रहे हैं जब वो कांग्रेस
पार्टी में सक्रिय तरीके से काम कर रहे थे. यहाँ पर यह सवाल बिलकुल ही नहीं है कि
प्रणव दा भारत रत्न सम्मान के काबिल नहीं थे. बल्कि यह महत्वपूर्ण है कि मोदी जी
की मेहरबानी समयानुकूल रहती है.
अब एक दूसरा वाक्या पद्म पुरस्कारों से सम्बंधित ---
गीता मेहता ने पद्मा अवार्ड लेने से मना कर दिया, लेकिन उन्हें दिया ही क्यूँ जा रहा था....??????
••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••
सूत्रों से प्राप्त समाचार के अनुसार - गीता मेहता (उड़ीसा के मुख्य मंत्री नवीन पटनायक की बहन) और उनके पति भारत में नहीं बल्कि अमेरिका में रहते हैं। PMO से एक फ़ोन उनके भारतीय निवास पर आता है। घर का नौकर ख़ुश है कि उसे ख़ुद मोदी जी फ़ोन करते हैं। PMO नौकर से नम्बर माँगता है, जो उसके पास नहीं होता। एंबेसी से नम्बर निकलता है, गीता मेहता को मिलने के लिए बुलाया जाता है। प्राइम मिनिस्टर से लम्बी मीटिंग होती है। (क्या किसी और अवार्ड विनर से इतनी लम्बी मीटिंग की मोदी जी ने?) आख़िरकार डेढ़ घंटे मोदी जी से बात करने के बाद गीता ख़ुद उठ जाती हैं ये कहकर कि - आप पीएम हैं, काफ़ी काम होगा आपको....
अब एक दूसरा वाक्या पद्म पुरस्कारों से सम्बंधित ---
गीता मेहता ने पद्मा अवार्ड लेने से मना कर दिया, लेकिन उन्हें दिया ही क्यूँ जा रहा था....??????
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सूत्रों से प्राप्त समाचार के अनुसार - गीता मेहता (उड़ीसा के मुख्य मंत्री नवीन पटनायक की बहन) और उनके पति भारत में नहीं बल्कि अमेरिका में रहते हैं। PMO से एक फ़ोन उनके भारतीय निवास पर आता है। घर का नौकर ख़ुश है कि उसे ख़ुद मोदी जी फ़ोन करते हैं। PMO नौकर से नम्बर माँगता है, जो उसके पास नहीं होता। एंबेसी से नम्बर निकलता है, गीता मेहता को मिलने के लिए बुलाया जाता है। प्राइम मिनिस्टर से लम्बी मीटिंग होती है। (क्या किसी और अवार्ड विनर से इतनी लम्बी मीटिंग की मोदी जी ने?) आख़िरकार डेढ़ घंटे मोदी जी से बात करने के बाद गीता ख़ुद उठ जाती हैं ये कहकर कि - आप पीएम हैं, काफ़ी काम होगा आपको....
इसके
बावजूद उन्हें अवार्ड दे दिया जाता है, जिसे
वो ये कहकर ठुकरा देती हैं, कि
ऐन चुनाव से पहले इस तरह के अवार्ड लेना या देना लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं। अब
सवाल ये उठता है कि गीता मेहता में PMO का
इतना इंटरेस्ट क्यूँ?????
क्यूँकि
गीता मेहता के पतिदेव सोनी मेहता Knopf Doubleday Publishing Group के चेयरमैन हैं, जो
सिर्फ़ ओबामा और बुश जैसे दिग्गजों की किताबें और जीवनियाँ ही छापते हैं....
सूत्रों के अनुसार केंद्र सरकार का यह
फैसला ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को लोकसभा चुनाव 2019 से पहले खुश करने के लिए किया गया है. हालांकि दूसरी तरफ बीजेपी बीजू जनता दल पर
लगातार हमला तेज कर रही है. उधर गीता मेहता दंपत्ति का यह भी कहना है कि नरेंद्र मोदी शायद अपनी कहानी
उनसे लिखवाना चाहते हैं.
अब इससे आगे क्या कहने की जरूरत है. मोदी
जी कितने चतुर(होशियार) इन्सान हैं, यह बात सबको समझ लेनी चाहिए. फिर भी अगर उनकी
चतुराई(होशियारी) से देश का भला होता है तब तक ठीक है. पर वे केवल अपने आपको अति
महत्वाकांक्षी साबित करने में लगे हैं और इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं.
फैसला जनता को करना है. गणतंत्र और जनतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है. कुछ भी हो, देश
और देश के नागरिक का भला हो यही तो हम सभी
चाहते हैं न! जयहिन्द !
- जवाहर लाल सिंह,
जमशेदपुर
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