महान दार्शनिक स्वामी विवेकानंद की 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में हुआ था. स्वामी
विवेकानंद का वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था. स्वामी विवेकानंद ने न सिर्फ
भारत के उत्थान के लिए काम किया बल्कि लोगों को जीवन जीने की कला भी सिखाई. स्वामी
विवेकानंद का जीवन बड़ा ही संघर्षमयी था.
मात्र 25 साल की उम्र में अपने गुरु से
प्रेरित होकर उन्होंने सांसारिक मोह-माया त्याग दी और संन्यासी बन गए. स्वामी
विवेकानंद जीवन भर संन्यासी रहे और अपनी आख़िरी सांस तक वह समाज की भलाई के लिए
काम करते रहे. स्वामी विवेकानंद की कही बातें दुनिया भर के लोगों को प्रेरणा देती
हैं.
श्री नरेंद्रनाथ दत्त ने बेहद कम उम्र में ही वेद और दर्शन
शास्त्र का ज्ञान हासिल कर लिया था. उनके
पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के वकील थे, जबकि
मां भुवनेश्वरी देवी धार्मिक विचारों वाली महिला थीं. साल 1884 में पिता की मौत के बाद परिवार
की जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर आ गई. स्वामी विवेकानंद बड़े अतिथि-सेवी थे, वह खुद भूखे रहकर अतिथियों को
खाना खिलते थे. नरेंद्रनाथ 1871 में
आठ साल की उम्र में स्कूल गए. 1879 में
उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज की प्रवेश परीक्षा में पहला स्थान हासिल किया.
रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद की मुलाकात 1881 कलकत्ता के दक्षिणेश्वर के
काली मंदिर में हुई थी. परमहंस ने उन्हें शिक्षा दी कि सेवा कभी दान नहीं, बल्कि सारी मानवता में निहित
ईश्वर की सचेतन आराधना होनी चाहिए.
विवेकानंद जब रामकृष्ण परमहंस से मिले तो उन्होंने वही
सवाल किया जो वो औरों से कर चुके थे, 'क्या
आपने भगवान को देखा है?' रामकृष्ण परमहंस ने जवाब दिया- 'हां मैंने देखा है, मैं
भगवान को उतना ही साफ देख रहा हूं जितना कि तुम्हें देख सकता हूं. फर्क सिर्फ इतना
है कि मैं उन्हें तुमसे ज्यादा गहराई से महसूस कर सकता हूं.'
अमेरिका में हुई धर्म
संसद में जब स्वामी विवेकानंद ने 'अमेरिका के भाइयों और बहनों' के
संबोधन से भाषण शुरू किया तो पूरे दो मिनट तक आर्ट इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो में
तालियां बजती रहीं. 11 सितंबर 1893 का वो दिन हमेशा-हमेशा के लिए इतिहास
में दर्ज हो गया.
स्वामी विवेकानंद ने 1 मई 1897 में कलकत्ता में रामकृष्ण मिशन
और 9 दिसंबर 1898 को गंगा नदी के किनारे बेलूर
में रामकृष्ण मठ की स्थापना की.
स्वामी विवेकानंद के जन्म दिन यानी कि 12 जनवरी को भारत में हर साल राष्ट्रीय
युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है. इसकी शुरुआत 1985 से
हुई थी.
स्वामी विवेकानंद को दमा और शुगर की बीमारी थी. उन्होंने
कहा भी था, 'ये बीमारियाँ मुझे 40 साल भी पार नहीं करने देंगी.'अपनी मृत्यु के बारे में
उनकी भविष्यवाणी सत्य साबित हुई और वे उन्होंने 39 बरस की बेहद कम उम्र में 4 जुलाई 1902 को
बेलूर स्थित रामकृष्ण मठ में ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधि धारण कर प्राण त्याग
दिए. स्वामी विवेकानंद का अंतिम संस्कार
बेलूर में गंगा तट पर किया गया. इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण
परमहंस का अन्तिम संस्कार हुआ था.
स्वामी विवेकानंद के 10 प्रेरणादायक विचार
1. ''खुद को
कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है.'' 2. ''ब्रह्मांड की सारी शक्तियां
पहले से हमारी हैं. वो हमी हैं जो अपनी आंखों पर हाथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं
कि कितना अंधकार है.'' 3. ''जब तक
जीना, तब तक सीखना, अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ
शिक्षक है.''
4. ''किसी
की निंदा न करें. अगर आप मदद के लिए हाथ बढ़ा सकते हैं, तो जरूर बढाएं. अगर नहीं बढ़ा
सकते तो अपने हाथ जोड़िए, अपने भाइयों को आशीर्वाद दीजिये
और उन्हें उनके मार्ग पे जाने दीजिए.'' 5. ''जब लोग तुम्हे गाली दें तो तुम
उन्हें आशीर्वाद दो. सोचो, तुम्हारे झूठे दंभ को बाहर
निकालकर वो तुम्हारी कितनी मदद कर रहे हैं.'' 6. ''ज्ञान स्वयं में वर्तमान है, मनुष्य केवल उसका आविष्कार करता
है.'' 7. ''जब तक
आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पर विश्वास नहीं कर सकते.'' 8. ''हम
जितना ज्यादा बाहर जाएं और दूसरों का भला करें, हमारा
ह्रदय उतना ही शुद्ध होगा और परमात्मा उसमे बसेंगे.'' 9. ''तुम्हें अंदर से बाहर की तरफ
विकसित होना है. कोई तुम्हें पढ़ा नहीं सकता, कोई
तुम्हें आध्यात्मिक नहीं बना सकता. तुम्हारी आत्मा के आलावा कोई और गुरू नहीं है.'' 10. ''दिल और
दिमाग के टकराव में दिल की सुनो.''
स्वामी विवेकानंद के अमेरिका के शिकागो में दिए गए ऐतिहासिक
भाषण की 125वीं वर्षगांठ पर याद कर लेते
हैं, जो आज भी उतना ही प्रासंगिक है. स्वामी विवेकानंद ने जो कुछ भी उस समय कहा था, वह हमेशा हर शख्स, हर समाज पर लागू होता है, होता रहेगा, सो, आइए एक बार फिर पढ़ते हैं वह
ऐतिहासिक भाषण, जो संभवतः आने वाले कई दशकों तक
भी मानव समाज को 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की शिक्षा देता रहेगा.
अमेरिका के बहनो और भाइयो,
आपके इस स्नेहपूर्ण और ज़ोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है, और मैं आपको दुनिया की प्राचीनतम संत परम्परा की तरफ से धन्यवाद देता हूं. मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जातियों, संप्रदायों के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं. मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी है, जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है. मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया. हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं.
आपके इस स्नेहपूर्ण और ज़ोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है, और मैं आपको दुनिया की प्राचीनतम संत परम्परा की तरफ से धन्यवाद देता हूं. मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जातियों, संप्रदायों के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं. मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी है, जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है. मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया. हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं.
मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और
धर्मों के त्रस्त और सताए गए लोगों को शरण दी है. मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा
है कि हमने अपने हृदय में उन इस्राइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्मस्थलों को रोमन
हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था. और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण
ली थी. मुझे इस बात पर गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों
को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है.
भाइयो, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा, जिन्हें मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज़ करोड़ों लोगों
द्वारा हर दिन दोहराया जाता है - 'रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम... नृणामेको
गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव...'
इसका अर्थ है - जिस तरह अलग-अलग स्रोतों से
निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद्र में जाकर मिल जाती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है, जो देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, परंतु सभी भगवान तक ही जाते हैं. वर्तमान सम्मेलन, जो आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से एक है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है - 'ये यथा मा प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम... मम वत्मार्नुवर्तते मनुष्या:
पार्थ सर्वश:...' अर्थात,
जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो,
मैं उस तक पहुंचता हूं. लोग चाहे कोई भी
रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं.
सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इनकी भयानक वंशज हठधर्मिता लंबे समय से पृथ्वी को अपने
शिकंजों में जकड़े हुए हैं. इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है. कितनी ही बार
यह धरती खून से लाल हुई है,
कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने
कितने देश नष्ट हुए हैं. अगर ये भयानक राक्षस न होते, तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है. मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन
का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं,
हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से, और सभी मनुष्यों के बीच
की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा.
उपर्युक्त बातें आज भी
प्रासंगिक हैं. हम सभी स्वामी विवेकानंद को आदर करनेवाले लोगों में से हैं. आज के
युवा अगर स्वामी जो को प्रेरणा के स्रोत मानते हैं तो, सभी युवाओं को धार्मिक
कट्टरता से दूरी बनाकर अपना और अपने आस-पास के साथ देश और विश्व के विकास के लिए
काम करना चाहिए. यही तो धर्म है, यही तो वसुधैव कुटुम्बकम है और यही तो
सबका साथ और सबका विकास है. अर्थात घृणा से दूरी बनाइए और सबको गले लगाइए.
अच्छाई को ग्रहण करिए और बुराई से खुद को दूर रखिये. आज के दिन बहुत सारे लोगों ने
स्वामी जी को याद किया है और उनके मार्ग पर चलने को कहा है. हम वही मार्ग अपनाएं
और दूसरों को भी रास्ता दिखलायें.
जय भारत! जय विश्व ! –
जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर
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