हमारे प्रजातंत्र के संघीय ढांचे में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका सबकी अपनी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका है. सभी अपने क्रियाकलाप में स्वतंत्रता चाहते हैं. पर न्यायपालिका एक ऐसी ब्यवस्था है, जिसमे सबकी आस्था निहित है. सभी अंतत: उच्चतम न्यायालय के फैसलों को ही अंतिम मानते है. कार्यपालिका या विधायिका के द्वारा नागरिक अधिकारों के हनन की रक्षा न्यायपालिका ही करती है. यह कार्यप्रणाली तबतक भलीभांति संपन्न नहीं हो सकती, जबतक कि न्यायपालिका पूरी तरह से कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त न हो.
न्यायपालिका की स्वाधीनता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए हमारे संविधान में न्यायधीशों की नियुक्ति, सेवा शर्तें, उनके वेतनमान, सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों की सेवानिवृत्ति के बाद प्रैक्टिस करने की पाबंदी… आदि विभिन्न उपबंध हैं, जो इन्हें किसी भी हस्तक्षेप से बचाते हैं.
संविधान के अनुच्छेद १२४(२) और २१७ (१) के अनुसार सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायधीशों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति भारत के प्रधान न्यायधीश और और अन्य न्यायाधीशों के परामर्श से करेगा. इसमे भी विवाद होते रहे हैं. इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने ही यह ब्यवस्था दी कि न्यायधीशों की नियुक्ति की सिफारिश पांच सदस्यीय ‘कोलेजियम’ द्वारा की जायेगी जिसमे प्रधान न्यायधीश के अलावा चार वरिष्ठतम न्यायधीश होंगे. सरकार अधिक से अधिक किसी नाम पर आपत्ति कर सकती है. श्री गोपाल सुब्रमण्यम के मामले में यही हुआ, लेकिन कोलेजियम द्वारा उसे दुबारा भेजे जाने पर राष्ट्रपति अर्थात सरकार इनको नियुक्त करने के लिए बाध्य है.
पिछली संप्रग सरकार ने २०१३ में एक संविधान संशोधन विधेयक भी संसद में पेश किया था, जिसे लेकर भाजपा आदि राजनीतिक पार्टियाँ भी रजामंद थी. इस बिल के अनुसार न्यायिक नियुक्ति आयोग में प्रधान न्यायधीश, सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश, केन्द्रीय कानून और न्याय मंत्री के अतिरिक्त दो अति प्रतिष्ठित व्यक्ति होंगे, जिनका चयन प्रधान मंत्री, संसद में विपक्ष के नेता और प्रधान न्यायधीश की एक समिति करेगी. सवाल यहाँ भी उठे थे.
संसदीय समिति की एक अन्य अनुशंसा के अनुसार इन तीन सदस्यों में कम से कम एक सदस्य दलितों,आदिवासियों,महिलाओं,पिछड़ों अथवा अल्पसंख्यकों में से होना चाहिए, जो रोटेसन से हो सकते हैं. यह सराहनीय है कि वर्तमान राजग सरकार ने पुराने बिल पर फिर से परामर्श करने का निर्णय लिया है.
अब आते हैं इस आलेख की प्रासंगिकता पर –
सीनियर वकील गोपाल सुब्रमण्यम को सुप्रीम कोर्ट का जज न बनाए जाने पर एनडीए सरकार की सार्वजनिक रूप से आलोचना करने से पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश आर एम लोढ़ा ने कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को चिट्ठी लिखकर भी अपनी नाराजगी जाहिर की थी. लोढ़ा ने स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि सरकार आइंदा ऐसा न करे.
सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम ने जिन चार लोगों के नाम की सिफारिश की थी, उनमें सीनियर वकील गोपाल सुब्रमण्यम का नाम भी था, लेकिन उन्होंने अपना नामांकन वापस ले लिया था.
56 वर्षीय सुब्रमण्यम यूपीए सरकार में सॉलिसिटर जनरल रह चुके हैं. एनडीए सरकार ने जजों की नियुक्ति करने वाले कॉलेजियम को लिखा था कि सुब्रमण्यम की सिफारिश पर फिर से विचार करें।
इस बारे में चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा ने सार्वजनिक रूप से नाराजगी जाहिर करते हुए कहा था कि उनकी गैरहाजिरी में और उन्हें बिना बताए यह फैसला लिया गया.
अंग्रेजी अखबार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की खबर के मुताबिक यूं सबके सामने अपनी नाराजगी जाहिर करने से पहले उन्होंने 30 जून को सरकार को एक खत लिखा था। लोढ़ा ने लिखा था, ‘मेरी जानकारी और सहमति के बिना प्रस्ताव को अलग कर देने को मैं मंजूरी नहीं देता। एकतरफा अलगाव का ऐसा काम कार्यपालिका आइंदा न करे’
इंडियन एक्सप्रेस ने सूत्रों के हवाले से लिखा है कि यह पत्र कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को बुधवार को ही मिला है। लोढ़ा ने इस पत्र में सख्त नाराजगी जताते हुए लिखा, ‘आपने गोपाल सुब्रमण्यम के प्रस्ताव को बाकी तीन नामों से अलग कर दिया है। अब सुब्रमण्यम ने अपना नाम वापस ले लिया है और मेरे पास उनका प्रस्ताव वापस लेने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है’
ज्यादातर मामलों में अदालत के फैसलों में इतनी देर हो जाती है कि आम आदमी जल्दी कोर्ट का रुख नहीं करना चाहता है. चाहता है कि आपस में समझौता हो जाय और मामला सलट जाय. विशेष परिस्थितियों में ही आम आदमी थाना और कोर्ट की शरण लेता है. फिर भी न्यायपालिका सर्वोपरि है, यह सभी मानते हैं. इसी सन्दर्भ में आइये देखते है, इधर हाल के दिनों में कोर्ट के महत्वपूर्ण फैसले जो काबिले तारीफ है.
१. वसंत विहार गैंगरेप केस में फैसला ( दिल्ली का निर्भया केस)
२. BCCI के अध्यक्ष के श्रीनिवास को हटाने का फैसला – भारतीय क्रिकेट को भ्रष्टाचार मुक्त करने की तरफ कदम.
३. आरुषि-हेमराज हत्याकांड पर फैसला
४. चारा घोटालाः लालू, जगन्नाथ मिश्र और जगदीश शर्मा को जेल
५. समलैंगिकता के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट का फैसला जिसे भारतीय संस्कृति और प्रकृति के भी खिलाफ बताया गया.
६. पिछले 9 सालों से हो रही ‘राइट टू रिजेक्ट’ की मांग को आखिरकार सुप्रीम कोर्ट की सहमति हासिल हो गई है। 27 सितंबर 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए मतदाताओं को ‘नन ऑफ द अबव’ यानी ‘उपरोक्त में से कोई नहीं’ का अधिकार दिया। जिसका मतलब यह है कि अगर किसी मतदाता को लगता है कि मतपत्र पर मौजूद कोई भी उम्मीदवार उसकी पसंद का नहीं है तो वह इस विकल्प पर अपनी मुहर लगा सकता है। इस विकल्प की मांग पिछले 5 दशकों से हो रही थी। पिछले 9 सालों से तो इस सम्बंध में सुप्रीम कोर्ट में याचिका लम्बित थी, जिसे अब जाकर मान्यता मिली है।
७. सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला भारत में सियासत को अपराध से मुक्त करने की दिशा में एक और अहम पड़ाव है. भविष्य में दागी नेता राजनीति में बने रहने के लिए अदालती कार्यवाही की लेटलतीफी का फायदा नहीं उठा सकेंगे.
सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों को निर्देश दिया है कि दागी नेताओं के मुकदमे हर हाल में एक साल के भीतर निपटाए जाएं. इस फैसले से अपराधी से नेता बने लोगों का अपील का अधिकार तो सुरक्षित रहेगा लेकिन व्यवस्था को भी इन दीमक नुमा नेताओं से बचाया जा सकेगा.
८. दिल्ली हाई कोर्ट ने विदेशी फंडिंग के आरोपों को लेकर केंद्र सरकार और चुनाव आयोग से कांग्रेस और भाजपा पर उचित कार्रवाई करने को कहा है।
९. सहारा समूह के प्रमुख सुब्रत रॉय का मामला ( एक बड़ी हस्ती के खिलाफ फैसला)
१०. किन्नरों को उनके हक़ दिलानेवाला मामला
इस तरह के महत्वपूर्ण फैसले के बीच न्यायाधीशों की नियुक्ति का मामला को विवाद में आना और इसे व्यक्तिगत अहम् के टकराव तक पहुँचने को सही नहीं ठराया जा सकता.
कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने शनिवार को कहा, “जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका का दखल बढ़ाने के मकसद से पिछली सरकार द्वारा पेश संविधान संशोधन विधेयक पर मोदी सरकार फिर से काम करेगी. उसमें कई जरूरी बदलाव करेगी”.
रविशंकर प्रसाद के अनुसार, “हमारी पार्टी भाजपा ने राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के गठन का वादा किया है. हम उसमें न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करेंगे. क्योंकि हम स्वतंत्र न्यायपालिका के पक्षधर हैं”.
उनका यह बयान वरिष्ठ वकील गोपाल सुब्रमण्यम की सुप्रीम कोर्ट के जज पद पर नियुक्ति को लेकर पैदा हुए विवाद के बीच आया है. सरकार ने सुब्रमण्यम की नियुक्ति संबंधी कोलेजियम के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था और फाइल को पुनर्विचार के आग्रह के साथ लौटा दिया था. सरकार के इस कदम का सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने विरोध किया था. इस बाबत पूछे गए सवाल पर प्रसाद ने कहा कि सरकार को न्यायिक नियुक्तियों पर अपनी राय देने का अधिकार है. वह पुनर्विचार का आग्रह कर सकती है.
राष्ट्रीय मुकदमेबाजी नीति बनाएगी सरकार
कानून मंत्री ने बताया कि अदालतों में लंबित मामलों की बढ़ती तादाद के मद्देनजर सरकार राष्ट्रीय मुकदमेबाजी नीति बनाने की तैयारी में है. प्रसाद के अनुसार, “वर्तमान में देश की अदालतों में करीब तीन करोड़ मामले लंबित हैं। इनमें से 2.68 करोड़ केवल निचली अदालतों में वर्षों से लटके हुए हैं। इस समस्या समाधान खोजना ही होगा”.
“हम ऐसा राष्ट्रीय न्यायिक आयोग चाहते हैं जिसमें न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों रहेंगे, लेकिन दबदबा न्यायपालिका का ही होगा. हम सकारात्मक तरीके से बिल लाएंगे। पिछली सरकार ने जो बिल पेश किया था, उसमें काफी कमियां थीं”. – वर्तमान कानून और न्याय मंत्री श्री रविशंकर प्रसाद.
यह भी स्वागतयोग्य है कि गोपाल सुब्रमण्यम के विवाद के बीच वर्तमान कानून और न्याय मंत्री श्री रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि भारत सरकार न्यायिक ब्यवस्था और सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता का सम्मान करती है. आशा है कि वर्तमान सरकार संविधान, मर्यादा और जनहित के मद्देनजर न्यायपालिका की स्वायत्तता की रक्षा करते हुए सभी विन्दुओं पर ध्यान रखते हुए उचित फैसले लेगी, ताकि न्यायपालिका के प्रति आस्था और भी मजबूत हो.
न्यायपालिका की स्वाधीनता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए हमारे संविधान में न्यायधीशों की नियुक्ति, सेवा शर्तें, उनके वेतनमान, सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों की सेवानिवृत्ति के बाद प्रैक्टिस करने की पाबंदी… आदि विभिन्न उपबंध हैं, जो इन्हें किसी भी हस्तक्षेप से बचाते हैं.
संविधान के अनुच्छेद १२४(२) और २१७ (१) के अनुसार सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायधीशों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति भारत के प्रधान न्यायधीश और और अन्य न्यायाधीशों के परामर्श से करेगा. इसमे भी विवाद होते रहे हैं. इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने ही यह ब्यवस्था दी कि न्यायधीशों की नियुक्ति की सिफारिश पांच सदस्यीय ‘कोलेजियम’ द्वारा की जायेगी जिसमे प्रधान न्यायधीश के अलावा चार वरिष्ठतम न्यायधीश होंगे. सरकार अधिक से अधिक किसी नाम पर आपत्ति कर सकती है. श्री गोपाल सुब्रमण्यम के मामले में यही हुआ, लेकिन कोलेजियम द्वारा उसे दुबारा भेजे जाने पर राष्ट्रपति अर्थात सरकार इनको नियुक्त करने के लिए बाध्य है.
पिछली संप्रग सरकार ने २०१३ में एक संविधान संशोधन विधेयक भी संसद में पेश किया था, जिसे लेकर भाजपा आदि राजनीतिक पार्टियाँ भी रजामंद थी. इस बिल के अनुसार न्यायिक नियुक्ति आयोग में प्रधान न्यायधीश, सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश, केन्द्रीय कानून और न्याय मंत्री के अतिरिक्त दो अति प्रतिष्ठित व्यक्ति होंगे, जिनका चयन प्रधान मंत्री, संसद में विपक्ष के नेता और प्रधान न्यायधीश की एक समिति करेगी. सवाल यहाँ भी उठे थे.
संसदीय समिति की एक अन्य अनुशंसा के अनुसार इन तीन सदस्यों में कम से कम एक सदस्य दलितों,आदिवासियों,महिलाओं,पिछड़ों अथवा अल्पसंख्यकों में से होना चाहिए, जो रोटेसन से हो सकते हैं. यह सराहनीय है कि वर्तमान राजग सरकार ने पुराने बिल पर फिर से परामर्श करने का निर्णय लिया है.
अब आते हैं इस आलेख की प्रासंगिकता पर –
सीनियर वकील गोपाल सुब्रमण्यम को सुप्रीम कोर्ट का जज न बनाए जाने पर एनडीए सरकार की सार्वजनिक रूप से आलोचना करने से पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश आर एम लोढ़ा ने कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को चिट्ठी लिखकर भी अपनी नाराजगी जाहिर की थी. लोढ़ा ने स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि सरकार आइंदा ऐसा न करे.
सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम ने जिन चार लोगों के नाम की सिफारिश की थी, उनमें सीनियर वकील गोपाल सुब्रमण्यम का नाम भी था, लेकिन उन्होंने अपना नामांकन वापस ले लिया था.
56 वर्षीय सुब्रमण्यम यूपीए सरकार में सॉलिसिटर जनरल रह चुके हैं. एनडीए सरकार ने जजों की नियुक्ति करने वाले कॉलेजियम को लिखा था कि सुब्रमण्यम की सिफारिश पर फिर से विचार करें।
इस बारे में चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा ने सार्वजनिक रूप से नाराजगी जाहिर करते हुए कहा था कि उनकी गैरहाजिरी में और उन्हें बिना बताए यह फैसला लिया गया.
अंग्रेजी अखबार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की खबर के मुताबिक यूं सबके सामने अपनी नाराजगी जाहिर करने से पहले उन्होंने 30 जून को सरकार को एक खत लिखा था। लोढ़ा ने लिखा था, ‘मेरी जानकारी और सहमति के बिना प्रस्ताव को अलग कर देने को मैं मंजूरी नहीं देता। एकतरफा अलगाव का ऐसा काम कार्यपालिका आइंदा न करे’
इंडियन एक्सप्रेस ने सूत्रों के हवाले से लिखा है कि यह पत्र कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को बुधवार को ही मिला है। लोढ़ा ने इस पत्र में सख्त नाराजगी जताते हुए लिखा, ‘आपने गोपाल सुब्रमण्यम के प्रस्ताव को बाकी तीन नामों से अलग कर दिया है। अब सुब्रमण्यम ने अपना नाम वापस ले लिया है और मेरे पास उनका प्रस्ताव वापस लेने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है’
ज्यादातर मामलों में अदालत के फैसलों में इतनी देर हो जाती है कि आम आदमी जल्दी कोर्ट का रुख नहीं करना चाहता है. चाहता है कि आपस में समझौता हो जाय और मामला सलट जाय. विशेष परिस्थितियों में ही आम आदमी थाना और कोर्ट की शरण लेता है. फिर भी न्यायपालिका सर्वोपरि है, यह सभी मानते हैं. इसी सन्दर्भ में आइये देखते है, इधर हाल के दिनों में कोर्ट के महत्वपूर्ण फैसले जो काबिले तारीफ है.
१. वसंत विहार गैंगरेप केस में फैसला ( दिल्ली का निर्भया केस)
२. BCCI के अध्यक्ष के श्रीनिवास को हटाने का फैसला – भारतीय क्रिकेट को भ्रष्टाचार मुक्त करने की तरफ कदम.
३. आरुषि-हेमराज हत्याकांड पर फैसला
४. चारा घोटालाः लालू, जगन्नाथ मिश्र और जगदीश शर्मा को जेल
५. समलैंगिकता के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट का फैसला जिसे भारतीय संस्कृति और प्रकृति के भी खिलाफ बताया गया.
६. पिछले 9 सालों से हो रही ‘राइट टू रिजेक्ट’ की मांग को आखिरकार सुप्रीम कोर्ट की सहमति हासिल हो गई है। 27 सितंबर 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए मतदाताओं को ‘नन ऑफ द अबव’ यानी ‘उपरोक्त में से कोई नहीं’ का अधिकार दिया। जिसका मतलब यह है कि अगर किसी मतदाता को लगता है कि मतपत्र पर मौजूद कोई भी उम्मीदवार उसकी पसंद का नहीं है तो वह इस विकल्प पर अपनी मुहर लगा सकता है। इस विकल्प की मांग पिछले 5 दशकों से हो रही थी। पिछले 9 सालों से तो इस सम्बंध में सुप्रीम कोर्ट में याचिका लम्बित थी, जिसे अब जाकर मान्यता मिली है।
७. सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला भारत में सियासत को अपराध से मुक्त करने की दिशा में एक और अहम पड़ाव है. भविष्य में दागी नेता राजनीति में बने रहने के लिए अदालती कार्यवाही की लेटलतीफी का फायदा नहीं उठा सकेंगे.
सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों को निर्देश दिया है कि दागी नेताओं के मुकदमे हर हाल में एक साल के भीतर निपटाए जाएं. इस फैसले से अपराधी से नेता बने लोगों का अपील का अधिकार तो सुरक्षित रहेगा लेकिन व्यवस्था को भी इन दीमक नुमा नेताओं से बचाया जा सकेगा.
८. दिल्ली हाई कोर्ट ने विदेशी फंडिंग के आरोपों को लेकर केंद्र सरकार और चुनाव आयोग से कांग्रेस और भाजपा पर उचित कार्रवाई करने को कहा है।
९. सहारा समूह के प्रमुख सुब्रत रॉय का मामला ( एक बड़ी हस्ती के खिलाफ फैसला)
१०. किन्नरों को उनके हक़ दिलानेवाला मामला
इस तरह के महत्वपूर्ण फैसले के बीच न्यायाधीशों की नियुक्ति का मामला को विवाद में आना और इसे व्यक्तिगत अहम् के टकराव तक पहुँचने को सही नहीं ठराया जा सकता.
कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने शनिवार को कहा, “जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका का दखल बढ़ाने के मकसद से पिछली सरकार द्वारा पेश संविधान संशोधन विधेयक पर मोदी सरकार फिर से काम करेगी. उसमें कई जरूरी बदलाव करेगी”.
रविशंकर प्रसाद के अनुसार, “हमारी पार्टी भाजपा ने राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के गठन का वादा किया है. हम उसमें न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करेंगे. क्योंकि हम स्वतंत्र न्यायपालिका के पक्षधर हैं”.
उनका यह बयान वरिष्ठ वकील गोपाल सुब्रमण्यम की सुप्रीम कोर्ट के जज पद पर नियुक्ति को लेकर पैदा हुए विवाद के बीच आया है. सरकार ने सुब्रमण्यम की नियुक्ति संबंधी कोलेजियम के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था और फाइल को पुनर्विचार के आग्रह के साथ लौटा दिया था. सरकार के इस कदम का सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढ़ा ने विरोध किया था. इस बाबत पूछे गए सवाल पर प्रसाद ने कहा कि सरकार को न्यायिक नियुक्तियों पर अपनी राय देने का अधिकार है. वह पुनर्विचार का आग्रह कर सकती है.
राष्ट्रीय मुकदमेबाजी नीति बनाएगी सरकार
कानून मंत्री ने बताया कि अदालतों में लंबित मामलों की बढ़ती तादाद के मद्देनजर सरकार राष्ट्रीय मुकदमेबाजी नीति बनाने की तैयारी में है. प्रसाद के अनुसार, “वर्तमान में देश की अदालतों में करीब तीन करोड़ मामले लंबित हैं। इनमें से 2.68 करोड़ केवल निचली अदालतों में वर्षों से लटके हुए हैं। इस समस्या समाधान खोजना ही होगा”.
“हम ऐसा राष्ट्रीय न्यायिक आयोग चाहते हैं जिसमें न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों रहेंगे, लेकिन दबदबा न्यायपालिका का ही होगा. हम सकारात्मक तरीके से बिल लाएंगे। पिछली सरकार ने जो बिल पेश किया था, उसमें काफी कमियां थीं”. – वर्तमान कानून और न्याय मंत्री श्री रविशंकर प्रसाद.
यह भी स्वागतयोग्य है कि गोपाल सुब्रमण्यम के विवाद के बीच वर्तमान कानून और न्याय मंत्री श्री रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि भारत सरकार न्यायिक ब्यवस्था और सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता का सम्मान करती है. आशा है कि वर्तमान सरकार संविधान, मर्यादा और जनहित के मद्देनजर न्यायपालिका की स्वायत्तता की रक्षा करते हुए सभी विन्दुओं पर ध्यान रखते हुए उचित फैसले लेगी, ताकि न्यायपालिका के प्रति आस्था और भी मजबूत हो.
-जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.
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