प्रधान मंत्री श्री मोदी आजकल रेडियो के द्वारा अपने मन की बात उनलोगों तक पहुँचाने की कोशिश कर रहे हैं, जहाँ टेलीविजन की सुविधा नहीं है.पिछली बार उन्होंने काला धन कितना और कहाँ है, उससे अनभिग्यता जताई थी. इस बार नौजवानों को नशा से दूर रहने का सन्देश दिया. सन्देश अच्छा है. योग दिवश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली यह भी भारत के लिए गर्व करने की बात है. सांसदों द्वारा एक गाँव को गोद लेने वाली बात भी प्रभावी लगी. प्रधान मंत्री की स्वच्छता अभियान से बड़े बड़े लोग जुड़ रहे हैं. संकेत अच्छे हैं, पर क्या परिणाम सकारात्मक हो रहे हैं?
कम से कम मुझे ऐसा नहीं लगता कि अपने देश में कुछ चमत्कारी परिवर्तन हो रहे हैं. सरकारी संपत्ति की बंदरबाँट आज भी चल रही हैं. खुशामद-पैरवी का जमाना ज्यों का त्यों है. महिला सुरक्षा जब दिल्ली में नहीं है तो और दूसरी जगहों की क्या बात करें. लूटपाट हत्याएं ज्यों की त्यों चल रही हैं..आतंकवादी गतिविधियों और नक्सली आतंक में कोई कमी नहीं दीख रही. ट्रेनें दुर्घटना की शिकार हो रही हैं. मानवरहित रेल क्रॉसिंग पर हाल में हुई दर्दनाक घटनाएँ दिल दहला देने वाली हैं. सीमा पर आतंक का पहरा है.. हमारे जवान मारे जा रहे हैं. अर्थब्यवस्था में भी कोई खास सुधार होता नहीं दीखता. बेरोजगारी मुंह बाये खड़ी है.सार्वजनिक स्थानों पर भी गंदगी कम हुई है, ऐसा कहीं दीखता नहीं. कचरे के ढेर और गंदगी की तस्वीरें आए दिन अखबारों में छपती रहती हैं.
प्रधान मंत्री के सिपहसलारों, सांसदों के बयान और फिर माफीनामा, चेतावनी के बाद भी बदस्तूर जारी है.
विदेशों के साथ कई समझौतों पर हस्ताक्षर हुए हैं. परिणाम आना अभी बाकी है. विदेशों से काला धन लाने की बात को छोड़ भी दें, तो क्या अपने देश में छिपे हुए काले धन को पता लगाने के लिए कोई शुरुआत की गयी है क्या? बाबा रामदेव बीच बीच में ताव में आते हैं, फिर चुप हो जाते हैं. टी वी पर परिचर्चाओं में समाधान के बजाय एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप और राजनीति खूब चल रही है. मीडिया वालों के पौबारह हैं. ख़बरें मिल रही हैं, उन्हें नमक-मिर्च लगाकर चलाना उनकी जैसे मजबूरी बन गयी है.
सम्भवत: झाड़खंड और कश्मीर में भी भाजपा सरकार बना ले, पर जबतक परिवर्तन नहीं आएगा जनता का मोहभंग होना लाजिमी है. मूल बातें जो विकास में बाधक है – वह है प्रबल ईच्छा-शक्ति का अभाव. सरकारी तंत्र की शिथिलता. जनजागरण और जन सहयोग की कमी. क्या हम सचमुच अपनी आदतें बदलने लगे हैं. अपने आस पास को साफ़ रखने में मदद कर रहे हैं.या कम से कम गन्दा नहीं कर रहे हैं.? मुझे नहीं दीखता ..जहाँ तंत्र सही है, वहां पहले भी ठीक था आज भी ठीक है. वरना भीड़ भाड़ वाले ट्रेनों की स्थिति देखकर तो नहीं लगता कि हम कुछ सीख चुके हैं या अपनी आदतें बदलने लगे हैं.
नशामुक्ति कैसे होगी जबतक उसका उत्पादन और बिक्री धरल्ले से चलता रहेगा. अपराध कैसे थमेंगे जबतक कि उस पर कठोर कार्रवाई और सजा नहीं होगी? वी आई पी के मुकदमों का फैसला और सजा सुनाने में जब न्यायपालिका को ४० साल लग जाते हैं. वह भी संतोषजनक नहीं. फैसला के बाद भी सजा तुरंत नहीं मिलती… इंतज़ार होता रहता है,.. छूट मिलती रहती है. .तकनीक के विकास के साथ कुछ चीजें तो पारदर्शी हुई हैं, पर जटिलता में कोई कमी नहीं आयी. बंगलुरु का ISIS को मदद पहुँचानेवाले वाले मेहंदी मसरूर बिश्वास का केस सामने है. और भी कई ठिकानों पर आतंक के बादल मंडरा रहे हैं. ऊपर से धर्मांतरण और घर वापसी का मुद्दा भी गर्माता जा रहा है. अनिष्ट की आशंका बढ़ती जा रही है. दोनोंतरफ के कट्टरपंथियोंके बयान से वातावरण विषाक्त बनता जा रहा है.
प्रधान मंत्री जी, मेरी अपनी सोच है कि शिक्षा और नैतिकता हर घर से शुरू होकर स्कूलों, दफ्तरों, और जलसों, पार्टियों में भी दिखनी चाहिए. हम न तो खुद गलती करें न दूसरों को करने दें . सरकारी सहायता हर जगह उपलब्ध हो या अन्य समाज सेवी संगठन को ही मुस्तैद रहना चाहिए. हम एक दूसरे को मानवता के नाम पर ही मदद को तैयार रहना चाहिए. ऐसा नहीं कि किसी पर जुल्म, अत्याचार हो रहा हो और हम देखते रहें. धर्म और समाज को साथ लेकर चलने की जरूरत है न कि नफरत फैलाने की. हिन्दू धर्म के अपने अंदर की खामियों को दूर करना चाहिए ताकि खुद लोग खींचे चले आवें. लोगों को जैन,बौद्ध, सिक्ख, आर्यसमाज, साईं के पास जाने की जरूरत क्यों पडी? गीता, रामायण, महाभारत, वेद, शास्त्र, उपनिषद आदि ग्रंथों में ज्ञान के भंडार हैं, फिर हम अँधेरे में क्यों हैं, अन्धविश्वास के चंगुल में क्यों फंसते हैं. आशाराम, रामपाल, निर्मल बाबा आदि क्यों लोगों को बेवकूफ बनाते हैं? गहन चिंतन मनन और स्वस्थ परिचर्चा की जरूरत है न कि दोषारोपण और जबर्दश्ती करने की….सादर (मैंने भी अपने मन की बात कहने की कोशिश की है आप अपने विचार दे सकते हैं.- जवाहर)
कम से कम मुझे ऐसा नहीं लगता कि अपने देश में कुछ चमत्कारी परिवर्तन हो रहे हैं. सरकारी संपत्ति की बंदरबाँट आज भी चल रही हैं. खुशामद-पैरवी का जमाना ज्यों का त्यों है. महिला सुरक्षा जब दिल्ली में नहीं है तो और दूसरी जगहों की क्या बात करें. लूटपाट हत्याएं ज्यों की त्यों चल रही हैं..आतंकवादी गतिविधियों और नक्सली आतंक में कोई कमी नहीं दीख रही. ट्रेनें दुर्घटना की शिकार हो रही हैं. मानवरहित रेल क्रॉसिंग पर हाल में हुई दर्दनाक घटनाएँ दिल दहला देने वाली हैं. सीमा पर आतंक का पहरा है.. हमारे जवान मारे जा रहे हैं. अर्थब्यवस्था में भी कोई खास सुधार होता नहीं दीखता. बेरोजगारी मुंह बाये खड़ी है.सार्वजनिक स्थानों पर भी गंदगी कम हुई है, ऐसा कहीं दीखता नहीं. कचरे के ढेर और गंदगी की तस्वीरें आए दिन अखबारों में छपती रहती हैं.
प्रधान मंत्री के सिपहसलारों, सांसदों के बयान और फिर माफीनामा, चेतावनी के बाद भी बदस्तूर जारी है.
विदेशों के साथ कई समझौतों पर हस्ताक्षर हुए हैं. परिणाम आना अभी बाकी है. विदेशों से काला धन लाने की बात को छोड़ भी दें, तो क्या अपने देश में छिपे हुए काले धन को पता लगाने के लिए कोई शुरुआत की गयी है क्या? बाबा रामदेव बीच बीच में ताव में आते हैं, फिर चुप हो जाते हैं. टी वी पर परिचर्चाओं में समाधान के बजाय एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप और राजनीति खूब चल रही है. मीडिया वालों के पौबारह हैं. ख़बरें मिल रही हैं, उन्हें नमक-मिर्च लगाकर चलाना उनकी जैसे मजबूरी बन गयी है.
सम्भवत: झाड़खंड और कश्मीर में भी भाजपा सरकार बना ले, पर जबतक परिवर्तन नहीं आएगा जनता का मोहभंग होना लाजिमी है. मूल बातें जो विकास में बाधक है – वह है प्रबल ईच्छा-शक्ति का अभाव. सरकारी तंत्र की शिथिलता. जनजागरण और जन सहयोग की कमी. क्या हम सचमुच अपनी आदतें बदलने लगे हैं. अपने आस पास को साफ़ रखने में मदद कर रहे हैं.या कम से कम गन्दा नहीं कर रहे हैं.? मुझे नहीं दीखता ..जहाँ तंत्र सही है, वहां पहले भी ठीक था आज भी ठीक है. वरना भीड़ भाड़ वाले ट्रेनों की स्थिति देखकर तो नहीं लगता कि हम कुछ सीख चुके हैं या अपनी आदतें बदलने लगे हैं.
नशामुक्ति कैसे होगी जबतक उसका उत्पादन और बिक्री धरल्ले से चलता रहेगा. अपराध कैसे थमेंगे जबतक कि उस पर कठोर कार्रवाई और सजा नहीं होगी? वी आई पी के मुकदमों का फैसला और सजा सुनाने में जब न्यायपालिका को ४० साल लग जाते हैं. वह भी संतोषजनक नहीं. फैसला के बाद भी सजा तुरंत नहीं मिलती… इंतज़ार होता रहता है,.. छूट मिलती रहती है. .तकनीक के विकास के साथ कुछ चीजें तो पारदर्शी हुई हैं, पर जटिलता में कोई कमी नहीं आयी. बंगलुरु का ISIS को मदद पहुँचानेवाले वाले मेहंदी मसरूर बिश्वास का केस सामने है. और भी कई ठिकानों पर आतंक के बादल मंडरा रहे हैं. ऊपर से धर्मांतरण और घर वापसी का मुद्दा भी गर्माता जा रहा है. अनिष्ट की आशंका बढ़ती जा रही है. दोनोंतरफ के कट्टरपंथियोंके बयान से वातावरण विषाक्त बनता जा रहा है.
प्रधान मंत्री जी, मेरी अपनी सोच है कि शिक्षा और नैतिकता हर घर से शुरू होकर स्कूलों, दफ्तरों, और जलसों, पार्टियों में भी दिखनी चाहिए. हम न तो खुद गलती करें न दूसरों को करने दें . सरकारी सहायता हर जगह उपलब्ध हो या अन्य समाज सेवी संगठन को ही मुस्तैद रहना चाहिए. हम एक दूसरे को मानवता के नाम पर ही मदद को तैयार रहना चाहिए. ऐसा नहीं कि किसी पर जुल्म, अत्याचार हो रहा हो और हम देखते रहें. धर्म और समाज को साथ लेकर चलने की जरूरत है न कि नफरत फैलाने की. हिन्दू धर्म के अपने अंदर की खामियों को दूर करना चाहिए ताकि खुद लोग खींचे चले आवें. लोगों को जैन,बौद्ध, सिक्ख, आर्यसमाज, साईं के पास जाने की जरूरत क्यों पडी? गीता, रामायण, महाभारत, वेद, शास्त्र, उपनिषद आदि ग्रंथों में ज्ञान के भंडार हैं, फिर हम अँधेरे में क्यों हैं, अन्धविश्वास के चंगुल में क्यों फंसते हैं. आशाराम, रामपाल, निर्मल बाबा आदि क्यों लोगों को बेवकूफ बनाते हैं? गहन चिंतन मनन और स्वस्थ परिचर्चा की जरूरत है न कि दोषारोपण और जबर्दश्ती करने की….सादर (मैंने भी अपने मन की बात कहने की कोशिश की है आप अपने विचार दे सकते हैं.- जवाहर)
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