लखनवी नवाब के बारे में आपने सुना होगा – एक बार एक लखनवी नवाब पटना जंक्सन पर उतरे. लखनवी नवाब के लिबाश तो थे ही, मुंह में पान और हाथ में एक छड़ी…. उन्होंने एक कुली को बुलाया और अपना छड़ी पकड़ा कर बोले – “इसे लेकर चलो”. एक बिहारी को यह देख बर्दाश्त न हुआ. उसने भी एक कुली को बुलाया और अपना रेल का टिकट पकड़ा कर बोला – “इसे लेकर चलो. अमां उम्र हो गयी है, अब टिकट का भी भाड़ उठाया नही जाता हमसे” … लखनवी नवाब कुनमुनाये, पर क्या करते…
पहले गांव में जब अपने बेटे या बेटी का रिश्ता करने लोग निकलते थे तो बड़े ठाठ-बाठ के साथ… सुपर फाइन या ब्रासलेट धोती, सिल्क का कुरता चमड़े के जूते ..पर उनका भी इस्टाइल होता था.- कुर्ता पहनते न थे. कंधे पर रख लेते थे और जूते को भी दो-कन्नी वाली लकड़ी पर टांग कर चल देते थे. रिश्तेदारी वाले गांव में पहुँच कर किसी कुंए पर हाथ पैर धोते और कुर्ता-जूता पहन कर मेजबान के घर पहुँच गए.
बहुत सारे मेहमान खाना के एक हिस्से को छोड़ देते थे – इसका मतलब यह होता था कि उनका पेट पूरी तरह भर गया है मेजमान भी समझ जाते थे. पूरा खाने का मतलब यह होता था कि शायद वे और खा सकते थे. दरभंगा, मधुबनी में तो अब भी रिवाज है, किसी किसी समारोह में भर पेट खाना खिलाने के बाद रसगुल्ला खिलाने का कम्पटीसन होता है. रसगुल्ला तब तक खिलाया जाता है जब तक कि खानेवाला उल्टी न कर दे.या उसकी तबीयत बेहद ख़राब न हो जाय. यहाँ पर रसगुल्ला खाने के के लिए प्रतियोगिता नगद के रूप में रक्खी जाती है. जैसे २० रसगुल्ला खा लेने के बाद प्रति रसगुल्ला ५० रुपये फिर सौ रुपये पारितोषिक के रूप में मिलेंगे.
तब लोटा- गिलास में पानी दिया जाता था …लोटे से पानी को गिलास में ढालते थे और तब पीते थे. हाथ धोने के लिए लोटे के पानी का इस्तेमाल होता था और बाहर कहीं नाली पर हाथ धोने की परम्परा थी.
समय बदल गया है पर रईशी आज भी बरक़रार है.- आज भी लोग खाना छोड़ते हैं, चाय के कप को अपने टेबुल पर पीना और वहीं छोड़ देना यह सब हमारी आदत में है, फिर चाहे चाय का प्याला हमारे ही हाथ से लग कर गिर न जाय और टेबुल को गन्दा न कर दे.
कार्यस्थल पर भी बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो अपनी रईशी की छाप अवश्य छोड़ते हैं.. जैसे मान लीजिये, हमारे वर्मा जी आज नाश्ता के लिए बाजार से इडली खरीदकर लाये और नाश्ते के समय पैंट्री के चम्मच से इडली को खाया ..अब पैंट्री के चम्मच को धोने की बात तो दूर वह चम्मच उनके टेबुल पर ही पड़ा रहेगा …जिसको जरूरत हो ले जाय….अगर और भी रईशी दिखानी है तो इडली का कुछ हिस्सा और चटनी भी वही छोड़ देंगे, जिसे गन्दा लगेगा वही हटाएगा … घर में तो पत्नी ही साफ़ करती है, तो घर की आदत को बाहर में कैसे बदला जा सकता है.
एक बार जब प्याज 60 से 80 रुपये प्रति किलो हो गया था. सभी के मुंह पर प्याज के दाम की ही चर्चा थी.
वर्मा जी बड़े अनजाने से बनकर पूछने लगे – बाजार में क्या रेट चल रहा है, प्याज का ? ..क्या आप प्याज नहीं खरीदते ?
अरे भाई मैं तो एक बार में एक बोरा खरीद लेता हूँ, सस्ता भी पड़ता है और रोज रोज के भाव पूछने की जरूरत भी नहीं पड़ती.
एक साहब हैं कपडे के शौक़ीन – उनके कपडे को आप ध्यान से देखिये या प्रशंशा के कुछ शब्द कह दीजिये …बस वे कपडे के ब्रांड नेम से लेकर उसकी वास्तविक कीमत इस तरह बताएँगे जैसे वे खरीददारी की रशीद देखकर बोल रहे हैं.
आज कल तो हर सब्जी हर सीजन में उपलब्ध है. पर एक समय जब केवल सीजन के अनुसार ही सब्जियां बाजार में आती थी…. मेरे एक स्वर्गीय मामा जी सबसे महंगी durlabh सब्जी ही खरीदते थे. और अपने मित्रों के बीच चर्चा भी करते थे. .. अरे लखन – बाजार में कटहल आ गया है, खरीदा कि नहीं अभी तक?
हमारे प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र बाबू के बारे में कहा जाता है कि वे हर समय खाने के साथ आम अवश्य खाते थे.और लाल बहादुर शास्त्री सलाद के शौक़ीन थे. इन सब के साथ एक पंक्ति यही कही जा सकती है –रईशी भी कोई चीज है.
ऐसे ही बहुत सारे उदहारण होंगे आपलोगों के पास भी …मैंने कुछ रक्खे हैं आप भी इसमे अपना योगदान तो कर ही सकते हैं.
पहले गांव में जब अपने बेटे या बेटी का रिश्ता करने लोग निकलते थे तो बड़े ठाठ-बाठ के साथ… सुपर फाइन या ब्रासलेट धोती, सिल्क का कुरता चमड़े के जूते ..पर उनका भी इस्टाइल होता था.- कुर्ता पहनते न थे. कंधे पर रख लेते थे और जूते को भी दो-कन्नी वाली लकड़ी पर टांग कर चल देते थे. रिश्तेदारी वाले गांव में पहुँच कर किसी कुंए पर हाथ पैर धोते और कुर्ता-जूता पहन कर मेजबान के घर पहुँच गए.
बहुत सारे मेहमान खाना के एक हिस्से को छोड़ देते थे – इसका मतलब यह होता था कि उनका पेट पूरी तरह भर गया है मेजमान भी समझ जाते थे. पूरा खाने का मतलब यह होता था कि शायद वे और खा सकते थे. दरभंगा, मधुबनी में तो अब भी रिवाज है, किसी किसी समारोह में भर पेट खाना खिलाने के बाद रसगुल्ला खिलाने का कम्पटीसन होता है. रसगुल्ला तब तक खिलाया जाता है जब तक कि खानेवाला उल्टी न कर दे.या उसकी तबीयत बेहद ख़राब न हो जाय. यहाँ पर रसगुल्ला खाने के के लिए प्रतियोगिता नगद के रूप में रक्खी जाती है. जैसे २० रसगुल्ला खा लेने के बाद प्रति रसगुल्ला ५० रुपये फिर सौ रुपये पारितोषिक के रूप में मिलेंगे.
तब लोटा- गिलास में पानी दिया जाता था …लोटे से पानी को गिलास में ढालते थे और तब पीते थे. हाथ धोने के लिए लोटे के पानी का इस्तेमाल होता था और बाहर कहीं नाली पर हाथ धोने की परम्परा थी.
समय बदल गया है पर रईशी आज भी बरक़रार है.- आज भी लोग खाना छोड़ते हैं, चाय के कप को अपने टेबुल पर पीना और वहीं छोड़ देना यह सब हमारी आदत में है, फिर चाहे चाय का प्याला हमारे ही हाथ से लग कर गिर न जाय और टेबुल को गन्दा न कर दे.
कार्यस्थल पर भी बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो अपनी रईशी की छाप अवश्य छोड़ते हैं.. जैसे मान लीजिये, हमारे वर्मा जी आज नाश्ता के लिए बाजार से इडली खरीदकर लाये और नाश्ते के समय पैंट्री के चम्मच से इडली को खाया ..अब पैंट्री के चम्मच को धोने की बात तो दूर वह चम्मच उनके टेबुल पर ही पड़ा रहेगा …जिसको जरूरत हो ले जाय….अगर और भी रईशी दिखानी है तो इडली का कुछ हिस्सा और चटनी भी वही छोड़ देंगे, जिसे गन्दा लगेगा वही हटाएगा … घर में तो पत्नी ही साफ़ करती है, तो घर की आदत को बाहर में कैसे बदला जा सकता है.
एक बार जब प्याज 60 से 80 रुपये प्रति किलो हो गया था. सभी के मुंह पर प्याज के दाम की ही चर्चा थी.
वर्मा जी बड़े अनजाने से बनकर पूछने लगे – बाजार में क्या रेट चल रहा है, प्याज का ? ..क्या आप प्याज नहीं खरीदते ?
अरे भाई मैं तो एक बार में एक बोरा खरीद लेता हूँ, सस्ता भी पड़ता है और रोज रोज के भाव पूछने की जरूरत भी नहीं पड़ती.
एक साहब हैं कपडे के शौक़ीन – उनके कपडे को आप ध्यान से देखिये या प्रशंशा के कुछ शब्द कह दीजिये …बस वे कपडे के ब्रांड नेम से लेकर उसकी वास्तविक कीमत इस तरह बताएँगे जैसे वे खरीददारी की रशीद देखकर बोल रहे हैं.
आज कल तो हर सब्जी हर सीजन में उपलब्ध है. पर एक समय जब केवल सीजन के अनुसार ही सब्जियां बाजार में आती थी…. मेरे एक स्वर्गीय मामा जी सबसे महंगी durlabh सब्जी ही खरीदते थे. और अपने मित्रों के बीच चर्चा भी करते थे. .. अरे लखन – बाजार में कटहल आ गया है, खरीदा कि नहीं अभी तक?
हमारे प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र बाबू के बारे में कहा जाता है कि वे हर समय खाने के साथ आम अवश्य खाते थे.और लाल बहादुर शास्त्री सलाद के शौक़ीन थे. इन सब के साथ एक पंक्ति यही कही जा सकती है –रईशी भी कोई चीज है.
ऐसे ही बहुत सारे उदहारण होंगे आपलोगों के पास भी …मैंने कुछ रक्खे हैं आप भी इसमे अपना योगदान तो कर ही सकते हैं.
कार्यस्थल पर भी बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो अपनी रईशी की छाप अवश्य छोड़ते हैं.. जैसे मान लीजिये, हमारे वर्मा जी आज नाश्ता के लिए बाजार से इडली खरीदकर लाये और नाश्ते के समय पैंट्री के चम्मच से इडली को खाया ..अब पैंट्री के चम्मच को धोने की बात तो दूर वह चम्मच उनके टेबुल पर ही पड़ा रहेगा …जिसको जरूरत हो ले जाय….अगर और भी रईशी दिखानी है तो इडली का कुछ हिस्सा और चटनी भी वही छोड़ देंगे, जिसे गन्दा लगेगा वही हटाएगा … घर में तो पत्नी ही साफ़ करती है, तो घर की आदत को बाहर में कैसे बदला जा सकता है.एकदम बढ़िया लिखा है ! बहुतों को आदत होती है डींग हांकने की !
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