गिरते हैं शह सवार ही मैदान ऐ जंग मे, वो तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनो के बल चले, – अलामा इक़बाल का यह शेर आज भी प्रासंगिक है
26 नवंबर 2012 को जब आम आदमी पार्टी का गठन हुआ, तो लोगों को इस पार्टी से काफी आशाएं थीं. इंडिया अगेस्ट करप्शन के बैनर तले जब अरविंद केजरीवाल और उनके राजनीतिक गुरु माने जाने वाले अन्ना हजारे ने अपना आंदोलन शुरु किया था, तो ऐसा प्रतीत हुआ था कि अब तो बस भ्रष्टाचार भारत में कुछ ही दिनों की मेहमान है.
अन्ना के आंदोलन के गर्भ से पैदा हुई आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल के नायक जैसा चमकने और खलनायक की स्थिति का लेखा-जोखा आज जरूरी लगता है. अरविंद केजरीवाल ने यह फैसला किया कि वे एक राजनीतिक दल बनायेंगे और भारत को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने और उसे विकास के पथ पर अग्रसर करने के लिए चुनाव भी लड़ेंगे. अरविंद केजरीवाल को इस निर्णय पर काफी प्रशंसा भी मिली और उनके साथ समाज के विभिन्न वर्गों के लोग जुटते चले गये. जिनमें वकील, सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, ब्यूरोक्रेट्स ,कवि और सिनेस्टार भी शामिल थे.
उनकी पार्टी का गठन हुए मात्र एक वर्ष हुए थे लेकिन उनकी पार्टी ने 28 सीटों पर जीत दर्ज की. भाजपा को 32 सीटें मिलीं थीं लेकिन वह बहुमत के लिए पर्याप्त नहीं था. अंतत: आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के समर्थन से जिसके पास आठ विधायक थे सरकार बनायी. सरकार बनाने से पहले अरविंद केजरीवाल ने जनता से पूछा कि क्या उन्हें कांग्रेस से समर्थन लेना चाहिए. उस वक्त उन्हें जनता ने सरकार बनाने की इजाजत दे दी थी. मुख्यमंत्री बनने के बाद अरविंद केजरीवाल ने जनता को राहत पहुंचाने के लिए काम शुरू किया.
जनता को पानी-बिजली जैसी सुविधाएं मुहैया कराना शुरू किया. लेकिन सत्ता पर पहुंचते ही, ऐसा लगा मानों आम आदमी पार्टी शासन चलाना नहीं जानती. जिन उद्देश्यों को लेकर आम आदमी चली थी, उनकी पूर्ति के लिए जब उन्हें सत्ता मिली, तो ऐसा प्रतीत होने लगा कि वे सरकार को कुर्बान कर देना चाहते हैं. भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के लिए जिस लोकपाल कानून को बनाने के लिए आम आदमी पार्टी ने आंदोलन छेड़ा था, उसी लोकपाल कानून को अपने मनमुताबिक सीमित अवधि में बनाने की जिद को लेकर अरविंद केजरीवाल ने अपनी सरकार को कुर्बान कर दिया और मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. आम आदमी पार्टी के लिए यह संभवत: टर्निग प्वाइंट था.
दिल्ली की सरकार को कुर्बान करने से जनता में यह संदेश चला गया कि आम आदमी पार्टी को काम करने का मौका मिला, लेकिन उसने काम करने की बजाय सरकार को कुर्बान कर दिया. उनके विरोधियों ने भी इस बात का खूब फायदा उठाया. भाजपा-कांग्रेस दोनों ने ही आम आदमी पार्टी पर यह आरोप लगाया कि वह केवल बातें बनातीं है उसे जनता के हित से कुछ लेना-देना नहीं है. संभवत: यही बात जनता के मन में घर कर गयी, जिसका असर लोकसभा चुनाव में साफ दिखा. नरेंद्र मोदी की लहर में आम आदमी पार्टी कुछ ऐसी उड़ी कि शीला को पटखनी देने वाले अरविंद केजरवील बनारस में मुंह दिखाने लायक नहीं रहे.
उम्मीदों से सराबोर आम आदमी पार्टी ने लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा प्रत्याशी खड़े किये लेकिन उनके मात्र चार उम्मीदवार चुनाव जीत पाये. अमेठी में राहुल को पटखनी देने के लिए कुमार विश्वास ने मेहनत तो बहुत की, लेकिन वह काम नहीं आया. लोकसभा चुनाव के बाद तो आम आदमी पार्टी की हालत और भी खराब हो गयी. उनकी समर्पित कार्यकर्ता शाजिया इल्मी ने यह कहते हुए पार्टी छोड़ दी कि यहां कुछ चुनिंदा लोग निर्णय करते हैं और अरविंद को उन्होंने जकड़ कर रखा है. पार्टी अब लोकतांत्रिक नहीं रही. पार्टी में अंतरविरोध शुरू हो गया है.
सभी एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं. केजरीवाल को भी अपनी जिद के कारण जेल जाना पड़ा. पार्टी के वरिष्ठ नेता मनीष सिसौदिया ने भी पार्टी प्रवक्ता योगेंद्र यादव की भूमिका पर सवाल उठाये हैं. उन्होंने आरोप लगाया है कि यादव पार्टी को नुकसान पहुंचा रहे हैं. पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता विनोद कुमार बिन्नी भी पार्टी को छोड़ चुके हैं और अब तक पार्टी के घोर विरोधी हैं. ऐसे में आम आदमी पार्टी दिशाविहीन सी प्रतीत होती है. समझ में नहीं आ रहा है कि जिन उद्देश्यों को लेकर पार्टी चली थी वह कहां गुम हो गये हैं. आज कार्यकारिणी की बैठक है, लेकिन ऐसा संभव प्रतीत नहीं होता कि आम आदमी पार्टी(आप) अपनी लय में वापस आ पायेगी?
इधर योगेन्द्र यादव और मनीष सिसोदिया के चिट्ठियों ने आम आदमी पार्टी की बड़ी टूट की ओर इशारा किया तो विरोधियों ने पार्टी के अस्तित्व पर ही सवाल उठा दिए . हाल के दिनों में आम आदमी पार्टी से कई बड़े नेताओं की विदाई हुई है – शाजिया इल्मी, कैप्टन गोपीनाथ, अश्विनी उपाध्याय, विनोद कुमार बिन्नी जैसे नेता आप का साथ छोड़ चुके हैं. अब योगेंद्र यादव ने भी बगावत की सुगबुगाहट शुरू कर दी है. ऐसे में सवाल ये उठ रहा है कि क्या आम आदमी पार्टी में केजरीवाल के सामने किसी की नहीं चलती है . क्या आम आदमी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की बात करना सिर्फ दिखावा है. और सबसे बड़ा सवाल ये कि क्या केजरीवाल की वजह से आम आदमी पार्टी खत्म होती जा रही है?
योगेंद्र यादव के अलावा आम आदमी पार्टी को एक और झटका दिया हरियाणा प्रदेश संयोजक नवीन जयहिंद ने. नवीन जयहिंद ने भी पीएसी और राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफ़ा दे दिया.
आम आदमी पार्टी का सोशल मीडिया और आई-टी सँभालने वाले अंकित लाल को लगता है कि सब कुछ निराशाजनक नहीं है. वो कहते हैं कि आम आदमी पार्टी का सफ़र तो बस शुरू ही हुआ है.
अंकित लाल कहते हैं, “भाजपा को ही ले लीजिए. कितने साल लग गए उन्हें पूर्ण बहुमत हासिल करने में. सब कुछ निराशाजनक नहीं है. हाँ, हमारे कुछ फ़ैसले ग़लत रहे. मगर सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है. हम ग़लतियों से ही तो सीखेंगे. हमारी तो अभी शुरुआत ही हुई है और सफ़र काफी लंबा है.”
अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के दूसरे नेताओं ने पिछले दिनों हुई ग़लतियों के लिए माफ़ी ज़रूर मांगी है. मगर सपनों और उम्मीदों को लेकर जुड़े उन हज़ारों स्वयंसेवकों को लगता है कि पार्टी को अब अपना आगे का सफ़र एक बार फिर से शुरू करना पड़ेगा. हालांकि पंजाब में लोकसभा चुनाव में मिली सफलता ने उनमें एक नई उम्मीद जगाई है.
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित बस्तर संभाग में युवा इंजीनियर अनिल सिंह से आम आदमी पार्टी की उम्मीदवार सोनी सोरी के लिए प्रचार में लगे हुए थे. अनिल सिंह पेशे से सिविल इंजीनियर हैं और मध्य प्रदेश सरकार के लोक निर्माण विभाग में काम करते थे. आम आदमी पार्टी की हवा जब चली तो उन्होंने भी अपनी नौकरी छोड़ी और आम आदमी पार्टी के साथ हो लिए. आज उनका मन भी उदास है.
अनिल कहते हैं, “मुझे तकलीफ़ होती है कि हमारे फ़ैसले ग़लत रहे. मैं तो बहुत ही मायूस हूँ क्योंकि अपनी नौकरी, अपना भविष्य सब कुछ दांव पर लगाकर मैं आम आदमी पार्टी में शामिल हुआ. आज खुद को दिशाविहीन पाता हूँ. एक तो आंदोलन के वक़्त हमने हड़बड़ाहट की पार्टी बनाने की. चलिए, पार्टी बना भी ली तो लोकसभा चुनाव लड़ने में हड़बड़ाहट की. मैं तो कुछ समझ ही नहीं पा रहा हूँ कि हम कहाँ पर हैं.”
आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में रही शाज़िया इल्मी ने पार्टी छोड़ते समय कहा कि
“देश के लिए काम करने के लिए कुछ शानदार मौके मिले. ऐसे मौक़ों को हमने ग़लत फैसलों की वजह से गंवा दिया. और यह फैसले सिर्फ तीन-चार लोगों के हैं. किसी से कोई सलाह भी नहीं ली गई. ऐसे भी मौके आए जब मुख्यमंत्री बनने के बाद अरविंद से बात तक नहीं हो पाती थी.
शाज़िया के मुताबिक़, “चाहे सरकार बनाने की बात हो या फिर छोड़ने की. चाहे वह लोकसभा की 430 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला हो या फिर अरविंद का बनारस से चुनाव लड़ने का फ़ैसला हो, हम लोगों से कोई चर्चा तक नहीं हुई, जबकि हम पहले दिन से साथ रहे. इन फ़ैसलों से सिर्फ दो-तीन लोगों का ही सरोकार रहा.”
“कंसीस्टेंसी इज द वर्चु ऑफ़ एन ऐस”, पटना विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी के अध्यापक आर के सिन्हा अकसर कहा करते थे. जीवन के किसी और क्षेत्र से ज़्यादा यह बात राजनीति पर लागू होती है.
अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी पर ‘इन्कांसिस्टेंसी’ के आरोप पिछले दिनों के फैसलों के चलते जब लगाए जा रहे हैं तो यह वाक्य याद कर लिया जाना चाहिए. ताज्जुब है कि किसी और दल पर यह आरोप नहीं लगता.
राजनीतिक चिंतन
कार्रवाई और चिंतन, राजनीति में दोनों ही चाहिए. कोई राजनीतिक दल, जो हरकत में न दिखाई दे, जनता के चित्त से उतर जाता है. वामपंथी दलों का हश्र इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है. कांग्रेस पार्टी की निष्क्रियता उसकी पराजय का एक बड़ा कारण है.
स्थिर पड़े हुए राजनीति के जल में आम आदमी पार्टी ने हलचल पैदा कर दी और जनता ने इसका स्वागत किया. उन्होंने राजनीति को पार्टी दफ्तरों के बन्द षड्यंत्रकारी कमरों से बाहर लाकर गली मोहल्ले की आम फ़हम कार्रवाई बना दिया.
फिलहाल योगेन्द्र यादव और नविन जयहिंद का इस्तीफ़ा नामंजूर हुआ है दोनों में सुलह हो गयी है शाजिया इल्मी को मनाने की कोशिशें जारी है. आगे और भी अच्छी खबर मिले इसकी प्रतीक्षा है.
अंत में यही कहना चाहूँगा कि राजनीति सरल चीज नहीं है. केवल इमानदारी का तमगा लगाने से कुछ दिनों तक जनता के दिल में जगह तो बनाया जा सकता है, पर धरातल पर अपनी मजबूत पकड़ बनाये रखने के लिए गहन चिंतन, मनन, और विचार विमर्श की जरूरत है. आर. एस. एस. की तरह आम आदमी के भी समर्पित कार्यकर्ता तैयार करने होंगे. आपसी मतभेद दूर करने होंगे. राजनीति और खेल में हार जीत तो होती रहती है. हार को स्वीकार कर उससे सीखने की जरूरत है और उसका सबसे बड़ा उदाहरण है भाजपा, आर एस एस और मोदी जैसा नेता. अपने अहम से बाहर निकलना होगा.
अभी भी समय है पार्टी के शीर्षस्थ नेता अपना अहम त्याग सबको साथ लेकर चलें औ आगे के चुनाव की तैयारी करें साथ ही आम जन से सरोकार रखने वाले मुद्दों को उचित मंच पर उठाते रहें. चार सांसद भी आगे अपने मजबूत आवाज उठाने में कामयाब होते हैं, अपने क्षेत्र और आम आदमी का भला कर सकते हैं. उत्तर प्रदेश, दिल्ली और दूसरे राज्यों मे कानून ब्यवस्था, बिजली और पानी की समस्या ज्वलंत मुद्दा है. फ़िलहाल मोदी सरकार से जनता को बहुत कुछ उम्मीदें है अगर जनता के हित में फैसले लिए जाते हैं, राजनीति साफ़ सुथरी होती है, तब भी आम आदमी पार्टी का उद्देश्य तो पूरा हो रहा है न? सकारात्मक मुद्दे पर सहयोग का रुख रखते हुए अपनी रणनीति बनाते रहें और सभी मिलकर साथ चलें, तभी उद्देश्य की प्राप्ति होगी अन्यथा भाजपा या कांग्रेस जेठानी या देवरानी की सरकार से ही जनता को संतोष करना पड़ेगा. जय हिन्द! जय भारत!
जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.
26 नवंबर 2012 को जब आम आदमी पार्टी का गठन हुआ, तो लोगों को इस पार्टी से काफी आशाएं थीं. इंडिया अगेस्ट करप्शन के बैनर तले जब अरविंद केजरीवाल और उनके राजनीतिक गुरु माने जाने वाले अन्ना हजारे ने अपना आंदोलन शुरु किया था, तो ऐसा प्रतीत हुआ था कि अब तो बस भ्रष्टाचार भारत में कुछ ही दिनों की मेहमान है.
अन्ना के आंदोलन के गर्भ से पैदा हुई आम आदमी पार्टी और अरविन्द केजरीवाल के नायक जैसा चमकने और खलनायक की स्थिति का लेखा-जोखा आज जरूरी लगता है. अरविंद केजरीवाल ने यह फैसला किया कि वे एक राजनीतिक दल बनायेंगे और भारत को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने और उसे विकास के पथ पर अग्रसर करने के लिए चुनाव भी लड़ेंगे. अरविंद केजरीवाल को इस निर्णय पर काफी प्रशंसा भी मिली और उनके साथ समाज के विभिन्न वर्गों के लोग जुटते चले गये. जिनमें वकील, सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, ब्यूरोक्रेट्स ,कवि और सिनेस्टार भी शामिल थे.
उनकी पार्टी का गठन हुए मात्र एक वर्ष हुए थे लेकिन उनकी पार्टी ने 28 सीटों पर जीत दर्ज की. भाजपा को 32 सीटें मिलीं थीं लेकिन वह बहुमत के लिए पर्याप्त नहीं था. अंतत: आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के समर्थन से जिसके पास आठ विधायक थे सरकार बनायी. सरकार बनाने से पहले अरविंद केजरीवाल ने जनता से पूछा कि क्या उन्हें कांग्रेस से समर्थन लेना चाहिए. उस वक्त उन्हें जनता ने सरकार बनाने की इजाजत दे दी थी. मुख्यमंत्री बनने के बाद अरविंद केजरीवाल ने जनता को राहत पहुंचाने के लिए काम शुरू किया.
जनता को पानी-बिजली जैसी सुविधाएं मुहैया कराना शुरू किया. लेकिन सत्ता पर पहुंचते ही, ऐसा लगा मानों आम आदमी पार्टी शासन चलाना नहीं जानती. जिन उद्देश्यों को लेकर आम आदमी चली थी, उनकी पूर्ति के लिए जब उन्हें सत्ता मिली, तो ऐसा प्रतीत होने लगा कि वे सरकार को कुर्बान कर देना चाहते हैं. भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के लिए जिस लोकपाल कानून को बनाने के लिए आम आदमी पार्टी ने आंदोलन छेड़ा था, उसी लोकपाल कानून को अपने मनमुताबिक सीमित अवधि में बनाने की जिद को लेकर अरविंद केजरीवाल ने अपनी सरकार को कुर्बान कर दिया और मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. आम आदमी पार्टी के लिए यह संभवत: टर्निग प्वाइंट था.
दिल्ली की सरकार को कुर्बान करने से जनता में यह संदेश चला गया कि आम आदमी पार्टी को काम करने का मौका मिला, लेकिन उसने काम करने की बजाय सरकार को कुर्बान कर दिया. उनके विरोधियों ने भी इस बात का खूब फायदा उठाया. भाजपा-कांग्रेस दोनों ने ही आम आदमी पार्टी पर यह आरोप लगाया कि वह केवल बातें बनातीं है उसे जनता के हित से कुछ लेना-देना नहीं है. संभवत: यही बात जनता के मन में घर कर गयी, जिसका असर लोकसभा चुनाव में साफ दिखा. नरेंद्र मोदी की लहर में आम आदमी पार्टी कुछ ऐसी उड़ी कि शीला को पटखनी देने वाले अरविंद केजरवील बनारस में मुंह दिखाने लायक नहीं रहे.
उम्मीदों से सराबोर आम आदमी पार्टी ने लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा प्रत्याशी खड़े किये लेकिन उनके मात्र चार उम्मीदवार चुनाव जीत पाये. अमेठी में राहुल को पटखनी देने के लिए कुमार विश्वास ने मेहनत तो बहुत की, लेकिन वह काम नहीं आया. लोकसभा चुनाव के बाद तो आम आदमी पार्टी की हालत और भी खराब हो गयी. उनकी समर्पित कार्यकर्ता शाजिया इल्मी ने यह कहते हुए पार्टी छोड़ दी कि यहां कुछ चुनिंदा लोग निर्णय करते हैं और अरविंद को उन्होंने जकड़ कर रखा है. पार्टी अब लोकतांत्रिक नहीं रही. पार्टी में अंतरविरोध शुरू हो गया है.
सभी एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं. केजरीवाल को भी अपनी जिद के कारण जेल जाना पड़ा. पार्टी के वरिष्ठ नेता मनीष सिसौदिया ने भी पार्टी प्रवक्ता योगेंद्र यादव की भूमिका पर सवाल उठाये हैं. उन्होंने आरोप लगाया है कि यादव पार्टी को नुकसान पहुंचा रहे हैं. पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता विनोद कुमार बिन्नी भी पार्टी को छोड़ चुके हैं और अब तक पार्टी के घोर विरोधी हैं. ऐसे में आम आदमी पार्टी दिशाविहीन सी प्रतीत होती है. समझ में नहीं आ रहा है कि जिन उद्देश्यों को लेकर पार्टी चली थी वह कहां गुम हो गये हैं. आज कार्यकारिणी की बैठक है, लेकिन ऐसा संभव प्रतीत नहीं होता कि आम आदमी पार्टी(आप) अपनी लय में वापस आ पायेगी?
इधर योगेन्द्र यादव और मनीष सिसोदिया के चिट्ठियों ने आम आदमी पार्टी की बड़ी टूट की ओर इशारा किया तो विरोधियों ने पार्टी के अस्तित्व पर ही सवाल उठा दिए . हाल के दिनों में आम आदमी पार्टी से कई बड़े नेताओं की विदाई हुई है – शाजिया इल्मी, कैप्टन गोपीनाथ, अश्विनी उपाध्याय, विनोद कुमार बिन्नी जैसे नेता आप का साथ छोड़ चुके हैं. अब योगेंद्र यादव ने भी बगावत की सुगबुगाहट शुरू कर दी है. ऐसे में सवाल ये उठ रहा है कि क्या आम आदमी पार्टी में केजरीवाल के सामने किसी की नहीं चलती है . क्या आम आदमी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की बात करना सिर्फ दिखावा है. और सबसे बड़ा सवाल ये कि क्या केजरीवाल की वजह से आम आदमी पार्टी खत्म होती जा रही है?
योगेंद्र यादव के अलावा आम आदमी पार्टी को एक और झटका दिया हरियाणा प्रदेश संयोजक नवीन जयहिंद ने. नवीन जयहिंद ने भी पीएसी और राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफ़ा दे दिया.
आम आदमी पार्टी का सोशल मीडिया और आई-टी सँभालने वाले अंकित लाल को लगता है कि सब कुछ निराशाजनक नहीं है. वो कहते हैं कि आम आदमी पार्टी का सफ़र तो बस शुरू ही हुआ है.
अंकित लाल कहते हैं, “भाजपा को ही ले लीजिए. कितने साल लग गए उन्हें पूर्ण बहुमत हासिल करने में. सब कुछ निराशाजनक नहीं है. हाँ, हमारे कुछ फ़ैसले ग़लत रहे. मगर सब कुछ ख़त्म नहीं हुआ है. हम ग़लतियों से ही तो सीखेंगे. हमारी तो अभी शुरुआत ही हुई है और सफ़र काफी लंबा है.”
अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के दूसरे नेताओं ने पिछले दिनों हुई ग़लतियों के लिए माफ़ी ज़रूर मांगी है. मगर सपनों और उम्मीदों को लेकर जुड़े उन हज़ारों स्वयंसेवकों को लगता है कि पार्टी को अब अपना आगे का सफ़र एक बार फिर से शुरू करना पड़ेगा. हालांकि पंजाब में लोकसभा चुनाव में मिली सफलता ने उनमें एक नई उम्मीद जगाई है.
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित बस्तर संभाग में युवा इंजीनियर अनिल सिंह से आम आदमी पार्टी की उम्मीदवार सोनी सोरी के लिए प्रचार में लगे हुए थे. अनिल सिंह पेशे से सिविल इंजीनियर हैं और मध्य प्रदेश सरकार के लोक निर्माण विभाग में काम करते थे. आम आदमी पार्टी की हवा जब चली तो उन्होंने भी अपनी नौकरी छोड़ी और आम आदमी पार्टी के साथ हो लिए. आज उनका मन भी उदास है.
अनिल कहते हैं, “मुझे तकलीफ़ होती है कि हमारे फ़ैसले ग़लत रहे. मैं तो बहुत ही मायूस हूँ क्योंकि अपनी नौकरी, अपना भविष्य सब कुछ दांव पर लगाकर मैं आम आदमी पार्टी में शामिल हुआ. आज खुद को दिशाविहीन पाता हूँ. एक तो आंदोलन के वक़्त हमने हड़बड़ाहट की पार्टी बनाने की. चलिए, पार्टी बना भी ली तो लोकसभा चुनाव लड़ने में हड़बड़ाहट की. मैं तो कुछ समझ ही नहीं पा रहा हूँ कि हम कहाँ पर हैं.”
आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्यों में रही शाज़िया इल्मी ने पार्टी छोड़ते समय कहा कि
“देश के लिए काम करने के लिए कुछ शानदार मौके मिले. ऐसे मौक़ों को हमने ग़लत फैसलों की वजह से गंवा दिया. और यह फैसले सिर्फ तीन-चार लोगों के हैं. किसी से कोई सलाह भी नहीं ली गई. ऐसे भी मौके आए जब मुख्यमंत्री बनने के बाद अरविंद से बात तक नहीं हो पाती थी.
शाज़िया के मुताबिक़, “चाहे सरकार बनाने की बात हो या फिर छोड़ने की. चाहे वह लोकसभा की 430 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला हो या फिर अरविंद का बनारस से चुनाव लड़ने का फ़ैसला हो, हम लोगों से कोई चर्चा तक नहीं हुई, जबकि हम पहले दिन से साथ रहे. इन फ़ैसलों से सिर्फ दो-तीन लोगों का ही सरोकार रहा.”
“कंसीस्टेंसी इज द वर्चु ऑफ़ एन ऐस”, पटना विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी के अध्यापक आर के सिन्हा अकसर कहा करते थे. जीवन के किसी और क्षेत्र से ज़्यादा यह बात राजनीति पर लागू होती है.
अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी पर ‘इन्कांसिस्टेंसी’ के आरोप पिछले दिनों के फैसलों के चलते जब लगाए जा रहे हैं तो यह वाक्य याद कर लिया जाना चाहिए. ताज्जुब है कि किसी और दल पर यह आरोप नहीं लगता.
राजनीतिक चिंतन
कार्रवाई और चिंतन, राजनीति में दोनों ही चाहिए. कोई राजनीतिक दल, जो हरकत में न दिखाई दे, जनता के चित्त से उतर जाता है. वामपंथी दलों का हश्र इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है. कांग्रेस पार्टी की निष्क्रियता उसकी पराजय का एक बड़ा कारण है.
स्थिर पड़े हुए राजनीति के जल में आम आदमी पार्टी ने हलचल पैदा कर दी और जनता ने इसका स्वागत किया. उन्होंने राजनीति को पार्टी दफ्तरों के बन्द षड्यंत्रकारी कमरों से बाहर लाकर गली मोहल्ले की आम फ़हम कार्रवाई बना दिया.
फिलहाल योगेन्द्र यादव और नविन जयहिंद का इस्तीफ़ा नामंजूर हुआ है दोनों में सुलह हो गयी है शाजिया इल्मी को मनाने की कोशिशें जारी है. आगे और भी अच्छी खबर मिले इसकी प्रतीक्षा है.
अंत में यही कहना चाहूँगा कि राजनीति सरल चीज नहीं है. केवल इमानदारी का तमगा लगाने से कुछ दिनों तक जनता के दिल में जगह तो बनाया जा सकता है, पर धरातल पर अपनी मजबूत पकड़ बनाये रखने के लिए गहन चिंतन, मनन, और विचार विमर्श की जरूरत है. आर. एस. एस. की तरह आम आदमी के भी समर्पित कार्यकर्ता तैयार करने होंगे. आपसी मतभेद दूर करने होंगे. राजनीति और खेल में हार जीत तो होती रहती है. हार को स्वीकार कर उससे सीखने की जरूरत है और उसका सबसे बड़ा उदाहरण है भाजपा, आर एस एस और मोदी जैसा नेता. अपने अहम से बाहर निकलना होगा.
अभी भी समय है पार्टी के शीर्षस्थ नेता अपना अहम त्याग सबको साथ लेकर चलें औ आगे के चुनाव की तैयारी करें साथ ही आम जन से सरोकार रखने वाले मुद्दों को उचित मंच पर उठाते रहें. चार सांसद भी आगे अपने मजबूत आवाज उठाने में कामयाब होते हैं, अपने क्षेत्र और आम आदमी का भला कर सकते हैं. उत्तर प्रदेश, दिल्ली और दूसरे राज्यों मे कानून ब्यवस्था, बिजली और पानी की समस्या ज्वलंत मुद्दा है. फ़िलहाल मोदी सरकार से जनता को बहुत कुछ उम्मीदें है अगर जनता के हित में फैसले लिए जाते हैं, राजनीति साफ़ सुथरी होती है, तब भी आम आदमी पार्टी का उद्देश्य तो पूरा हो रहा है न? सकारात्मक मुद्दे पर सहयोग का रुख रखते हुए अपनी रणनीति बनाते रहें और सभी मिलकर साथ चलें, तभी उद्देश्य की प्राप्ति होगी अन्यथा भाजपा या कांग्रेस जेठानी या देवरानी की सरकार से ही जनता को संतोष करना पड़ेगा. जय हिन्द! जय भारत!
जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.
बिलकुल सही लिखा बिरादर ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार शाही साहब!
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