राजनीति (Politics) वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोगों का कोई समूह निर्णय लेता है। सामान्यत: यह शब्द असैनिक सरकारों के अधीन व्यवहार के लिये प्रयुक्त होता है किन्तु राजनीति मानव के सभी सामूहिक व्यवहारों (यथा, औद्योगिक, शैक्षणिक एवं धार्मिक संस्थाओँ में) में सदा से उपस्थित तत्व रहा है। राजनीति उन सामाजिक सम्बन्धों से बना है जो सत्ता और शक्ति लिये होते हैं।
राजनीति शब्द का विश्लेषण करें तो यह दो शब्दों, ‘राज’ और ‘नीति’ से बना है. राज मतलब राजा अथवा राज्य …. पहले पहल राजा, रजवारे हुआ करते थे और वे एक निश्चित भौगोलिक सीमा में बंधे भूभाग पर राज्य करते थे. अपने राज्य की प्रजा और अपना सिंहासन सुरक्षित रखना उनका परम कर्तव्य होता था. अपनी शक्ति विस्तार के लिए वे अगल बगल के राजाओं (राज्यों के नेता) से या तो सामान्य आग्रह कर अपने अधीन करना चाहते थे या फिर शक्तिबल, युद्ध कर के अपने अधीन कर लेते थे. थोड़ा और विश्लेषण करें तो साम दाम दंड भेद का इस्तेमाल कर अपनी ताकत को बढ़ाते थे. इसे फिर कूटनीति भी नाम दिया गया. अच्छा राजा वह है जो युद्ध नहीं, अपनी कूट नीति (कुटिल बुद्धि ) का इस्तेमाल कर अन्य राज्यों यथा राजाओं को अपने अधीन रखे!समझ में नहीं आ रहा शुरू कहाँ से करूँ?
पौराणिक युग की बात करूँ, तो इसमें सबसे पहले देवासुर संग्राम की चर्चा करनी होगी – पौराणिक कथा के अनुसार देवता लोग तो स्वयम स्वर्ग का सुख भोगते थे और असुरों को हमेशा निकृष्ट मानकर उसे पृथ्वी लोक पर राज करने के लिए, या कहें कि नाना प्रकार के कष्ट भोगने के लिए प्रतारित भी करते रहते थे. असुरों में चेतना लौटी तो वे भी स्वर्ग के सिंहासन के लिए देवताओं से युद्ध करने लगे! देवता पराजित होकर भगवान विष्णु के पास गए और उनके परामर्श अनुसार समुद्र मंथन हुआ और उससे निकले अमृत को बाँटने में भी कूटनीति का इस्तेमाल हुआ….
देवासुर संग्राम में ही देवाताओं की तरफ से लड़ने गए थे, राजा दशरथ और अपनी महारानी कैकेयी को दो वरदान दे दिए. फलस्वरूप राम को वनगमन करना पड़ा और सीता हरण के बाद रावण को मारने के लिए ‘विभीषण’ की सहायता लेनी पड़ी.
अब आते हैं महाभारत काल में – जन्म से अंधे होने के कारण धृतराष्ट्र बड़े होने के बावजूद राजा नहीं बनाये गए, जिसके संताप को वे जीवन भर न भुला सके और अपने साले शकुनी और पुत्र दुर्योधन के कुटिल चालों से पांडवों को समाप्त करने में कोई कसर न छोड़ी और अंत में वे श्री कृष्ण की कूटनीति के आगे हार गए!
ये सब बहुत पुरानी बाते हैं जो कुछ सिखाती है – पर हम सबक कहाँ लेते हैं ? फिर वही कुटिलता का सहारा लेकर अपनी सार्वभौमिकता को प्राप्त करने में सतत लगे रहते हैं.
इतिहास की बात करें तो भारत में सिन्धु घाटी सभ्यता और आर्यों की सभ्यता से प्रारंभ माना जाता है! हिन्दू लोग हमेशा से सहिष्णु, और स्वतंत्रता में बिस्वास रखने वाले थे. फलस्वरूप वे आपस में ही बनते रहते थे जिसका फायदा पहले मुगलों ने उठाया फिर अंग्रेजों ने! सोने की चिड़िया कहा जाने वाला देश परकटा पंछी बन फड़फड़ाता रहा. आजादी के बाद भी जिन्ना और नेहरू की कूटनीति ने इसे दो हिस्सों में बाँट दिया, जिसकी त्रासदी आज भी हमसब ‘युधिष्ठिर’ की भांति झेल रहे हैं.
कहते हैं नेहरू और नेहरू खानदान ने इसे जी भरकर चूसा और आजतक चूस रहे हैं. दोष किसका? प्रजातंत्र में राजतंत्र की भांति एक ही खानदान के इशारों पर चलने को मजबूर हैं…… इसमे दोष किसका है????
कांग्रेस से जो भी अलग हुए उनका नामोनिशान मिट गया या घूम फिरकर उसी पार्टी में आ मिले.
कांग्रेस विचारधारा से अलग होकर श्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने राष्ट्रिय स्वयम सेवक संघ के सरसंघचालक श्री गुरू गोलवलकर जी से परामर्श करने के बाद 21 अक्तूबर, 1951 को दिल्ली में भारतीय जनसंघ की नींव रखी और वे इसके पहले अध्यक्ष बने. फिर राष्ट्रिय जनतांत्रिक पार्टी और भारतीय जनता पार्टी आज भी मुख्य विपक्षी दल के रूप में है. श्री अटल बिहारी के नेतृत्व में भाजपा 19 मार्च, 1998 से 13 मई, 2004 तक भारत की सत्ता में रही!श्री अटल बिहारी बाजपेयी का करिश्माई व्यक्तित्व अपने गठबंधन को बांधे रहने में सफल साबित हुआ, फिर भी ममता, जयललिता और समता (वर्तमान जे डी यु) आदि उन्हें बीच बीच में उद्वेलित करते रहने की हर संभव कोशिश से बाज नहीं आई. अन्दर अन्दर लालकृष्ण आडवाणी की महत्वाकांक्षा आड़े आती रही हालाँकि वे ‘उप प्रधान मंत्री’ थे और बाजपेयी जी के साथ ही संसद में बैठते थे. वही आडवाणी जी तब नरेन्द्र मोदी को समर्थन करते दिखे, जब बाजपेयी जी ने कहा था (गुजरात दंगो के बाद)-राज धर्म का पालन नहीं हुआ! वही आडवाणी जी अन्दर ही अन्दर मोदी जी के जड़ में गरम पानी डालने का कोई भी मौका गंवाना नहीं चाहते – चाहे वह नीतीश जी के बहाने हो या शत्रुघन सिन्हा के बहाने!
आज भाजपा आत्ममंथन करने के बजाय अपने पाँव को घायल करने में लगी है. अभी आपने रामजेठमलानी को निकाला फिर क्या यशवंत सिन्हा और शत्रुघन सिन्हा को भी निकालेंगे? फिर और विरोधी सुर पैदा न होंगे, यह कैसे जानते हैं? कांग्रेस खुश है और मजे ले रही है. आप संसद नहीं चलने देते, भारत बंद कराते हैं, पर ममता के अविश्वास प्रस्ताव के साथ खड़े नहीं होते? फिर यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि ममता आगे आपको समर्थन करेगी. ममता को धोखा देने के लिए मुलायम सिंह भी तैयार रहते हैं और प्रधान मंत्री बनने के मंसूबे पाल लेते हैं. पूरे परिवार मिलकर भी उत्तर प्रदेश तो सम्हाल नहीं पा रहे, देश सम्हालेंगे?
भाजपा, कांग्रेस आलाकमान सोनिया जी के विदेशी दौरों का तो हिशाब मांगती हैं, पर गडकरी की पूर्ती में आपूर्ति करती रहती हैं!…..भाजपा वाले, अभी भी वक्त है, सम्हल जाओ आत्म-मंथन, आत्म चिंतन, संघ शरणम जो भी करो, पर अपने पर न कतरों…… कांग्रेस से सब परेशान हैं, पर विकल्प बनने की कोशिश तो करो. संसद ठप्प करके क्या साबित करना चाहते हो? लोकपाल बिल के समय भी अपनी कलई खोल चुके हो. अरविन्द केजरीवाल से अभी भले न डरो, पर एक समय आ सकता है, कि जनता उसके समर्थन में उठ खड़ा हो. मीडिया अभी तक केजरीवाल के साथ है और आज के समय में मीडिया का बड़ा रोल है!… हम कांग्रेस को जितना भी गाली दे लें, पर जबतक सशक्त विकल्प बनकर नहीं उभरेंगे, जनता क्या करेगी? हो सकता है तबतक सब्सिडी वाले गैस सिलिंडर की संख्या में बढ़ोत्तरी कर, पेट्रोल डीजल के मूल्यों में कटौती कर, मूल्यवृद्धि में लगाम लगाकर तात्कालिक सहानुभूति बटोर ले. कम से कम कांग्रेस में सभी एक रिमोट कंट्रोल पर एकमत तो हैं!
चाणक्य ने नंदवंश का नाश करने के लिए ‘चन्द्रगुप्त’ का सहारा लिया, ‘उसे’(चन्द्रगुप्त को) युद्ध कौशल सिखाने के लिए सिकन्दर की सेना में शामिल कराने से भी परहेज नहीं था. वो कहते हैं न ‘युद्ध और प्यार में सब जायज है’. फिर दुविधा क्यों? ‘चाल’ ‘चरित्र’ और ‘चेहरा’ का नारा किस दिन के लिए. ‘ए पार्टी विथ डिफरेंस’ कहने से नहीं होता, साबित करना पड़ता है. आडवाणी जी ने दो दो बार यह साबित किया है. उमा भारती और कल्याण सिंह को फिर से मौका दो, शायद कुछ ‘कल्याण’ हो जाय! सुषमा जी और अरुण जेटली विद्वान और प्रखर नेता हैं, इनकी धारा को कुमार्ग पर मत मोड़ो!राजनीति का कुछ भी अनुभव न होने के बावजूद मैंने बहुत सारे सुझाव दे डाले. यह सब समय की मांग के अनुसार मैंने अपनी अभिब्यक्ति दी है. आम आदमी और क्या कर सकता है. आम आदमी की ही तो बात कर सकता है. वैसे देश तो चलता रहेगा – या तो अमेरिका के इशारे पर या फिर पकिस्तान का डर दिखाकर! हम सब देश के आगे कुर्बान हो जायेंगे.’सर कटा सकते हैं, लेकिन सर झुका सकते नहीं’!
राजनीति शब्द का विश्लेषण करें तो यह दो शब्दों, ‘राज’ और ‘नीति’ से बना है. राज मतलब राजा अथवा राज्य …. पहले पहल राजा, रजवारे हुआ करते थे और वे एक निश्चित भौगोलिक सीमा में बंधे भूभाग पर राज्य करते थे. अपने राज्य की प्रजा और अपना सिंहासन सुरक्षित रखना उनका परम कर्तव्य होता था. अपनी शक्ति विस्तार के लिए वे अगल बगल के राजाओं (राज्यों के नेता) से या तो सामान्य आग्रह कर अपने अधीन करना चाहते थे या फिर शक्तिबल, युद्ध कर के अपने अधीन कर लेते थे. थोड़ा और विश्लेषण करें तो साम दाम दंड भेद का इस्तेमाल कर अपनी ताकत को बढ़ाते थे. इसे फिर कूटनीति भी नाम दिया गया. अच्छा राजा वह है जो युद्ध नहीं, अपनी कूट नीति (कुटिल बुद्धि ) का इस्तेमाल कर अन्य राज्यों यथा राजाओं को अपने अधीन रखे!समझ में नहीं आ रहा शुरू कहाँ से करूँ?
पौराणिक युग की बात करूँ, तो इसमें सबसे पहले देवासुर संग्राम की चर्चा करनी होगी – पौराणिक कथा के अनुसार देवता लोग तो स्वयम स्वर्ग का सुख भोगते थे और असुरों को हमेशा निकृष्ट मानकर उसे पृथ्वी लोक पर राज करने के लिए, या कहें कि नाना प्रकार के कष्ट भोगने के लिए प्रतारित भी करते रहते थे. असुरों में चेतना लौटी तो वे भी स्वर्ग के सिंहासन के लिए देवताओं से युद्ध करने लगे! देवता पराजित होकर भगवान विष्णु के पास गए और उनके परामर्श अनुसार समुद्र मंथन हुआ और उससे निकले अमृत को बाँटने में भी कूटनीति का इस्तेमाल हुआ….
देवासुर संग्राम में ही देवाताओं की तरफ से लड़ने गए थे, राजा दशरथ और अपनी महारानी कैकेयी को दो वरदान दे दिए. फलस्वरूप राम को वनगमन करना पड़ा और सीता हरण के बाद रावण को मारने के लिए ‘विभीषण’ की सहायता लेनी पड़ी.
अब आते हैं महाभारत काल में – जन्म से अंधे होने के कारण धृतराष्ट्र बड़े होने के बावजूद राजा नहीं बनाये गए, जिसके संताप को वे जीवन भर न भुला सके और अपने साले शकुनी और पुत्र दुर्योधन के कुटिल चालों से पांडवों को समाप्त करने में कोई कसर न छोड़ी और अंत में वे श्री कृष्ण की कूटनीति के आगे हार गए!
ये सब बहुत पुरानी बाते हैं जो कुछ सिखाती है – पर हम सबक कहाँ लेते हैं ? फिर वही कुटिलता का सहारा लेकर अपनी सार्वभौमिकता को प्राप्त करने में सतत लगे रहते हैं.
इतिहास की बात करें तो भारत में सिन्धु घाटी सभ्यता और आर्यों की सभ्यता से प्रारंभ माना जाता है! हिन्दू लोग हमेशा से सहिष्णु, और स्वतंत्रता में बिस्वास रखने वाले थे. फलस्वरूप वे आपस में ही बनते रहते थे जिसका फायदा पहले मुगलों ने उठाया फिर अंग्रेजों ने! सोने की चिड़िया कहा जाने वाला देश परकटा पंछी बन फड़फड़ाता रहा. आजादी के बाद भी जिन्ना और नेहरू की कूटनीति ने इसे दो हिस्सों में बाँट दिया, जिसकी त्रासदी आज भी हमसब ‘युधिष्ठिर’ की भांति झेल रहे हैं.
कहते हैं नेहरू और नेहरू खानदान ने इसे जी भरकर चूसा और आजतक चूस रहे हैं. दोष किसका? प्रजातंत्र में राजतंत्र की भांति एक ही खानदान के इशारों पर चलने को मजबूर हैं…… इसमे दोष किसका है????
कांग्रेस से जो भी अलग हुए उनका नामोनिशान मिट गया या घूम फिरकर उसी पार्टी में आ मिले.
कांग्रेस विचारधारा से अलग होकर श्री श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने राष्ट्रिय स्वयम सेवक संघ के सरसंघचालक श्री गुरू गोलवलकर जी से परामर्श करने के बाद 21 अक्तूबर, 1951 को दिल्ली में भारतीय जनसंघ की नींव रखी और वे इसके पहले अध्यक्ष बने. फिर राष्ट्रिय जनतांत्रिक पार्टी और भारतीय जनता पार्टी आज भी मुख्य विपक्षी दल के रूप में है. श्री अटल बिहारी के नेतृत्व में भाजपा 19 मार्च, 1998 से 13 मई, 2004 तक भारत की सत्ता में रही!श्री अटल बिहारी बाजपेयी का करिश्माई व्यक्तित्व अपने गठबंधन को बांधे रहने में सफल साबित हुआ, फिर भी ममता, जयललिता और समता (वर्तमान जे डी यु) आदि उन्हें बीच बीच में उद्वेलित करते रहने की हर संभव कोशिश से बाज नहीं आई. अन्दर अन्दर लालकृष्ण आडवाणी की महत्वाकांक्षा आड़े आती रही हालाँकि वे ‘उप प्रधान मंत्री’ थे और बाजपेयी जी के साथ ही संसद में बैठते थे. वही आडवाणी जी तब नरेन्द्र मोदी को समर्थन करते दिखे, जब बाजपेयी जी ने कहा था (गुजरात दंगो के बाद)-राज धर्म का पालन नहीं हुआ! वही आडवाणी जी अन्दर ही अन्दर मोदी जी के जड़ में गरम पानी डालने का कोई भी मौका गंवाना नहीं चाहते – चाहे वह नीतीश जी के बहाने हो या शत्रुघन सिन्हा के बहाने!
आज भाजपा आत्ममंथन करने के बजाय अपने पाँव को घायल करने में लगी है. अभी आपने रामजेठमलानी को निकाला फिर क्या यशवंत सिन्हा और शत्रुघन सिन्हा को भी निकालेंगे? फिर और विरोधी सुर पैदा न होंगे, यह कैसे जानते हैं? कांग्रेस खुश है और मजे ले रही है. आप संसद नहीं चलने देते, भारत बंद कराते हैं, पर ममता के अविश्वास प्रस्ताव के साथ खड़े नहीं होते? फिर यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि ममता आगे आपको समर्थन करेगी. ममता को धोखा देने के लिए मुलायम सिंह भी तैयार रहते हैं और प्रधान मंत्री बनने के मंसूबे पाल लेते हैं. पूरे परिवार मिलकर भी उत्तर प्रदेश तो सम्हाल नहीं पा रहे, देश सम्हालेंगे?
भाजपा, कांग्रेस आलाकमान सोनिया जी के विदेशी दौरों का तो हिशाब मांगती हैं, पर गडकरी की पूर्ती में आपूर्ति करती रहती हैं!…..भाजपा वाले, अभी भी वक्त है, सम्हल जाओ आत्म-मंथन, आत्म चिंतन, संघ शरणम जो भी करो, पर अपने पर न कतरों…… कांग्रेस से सब परेशान हैं, पर विकल्प बनने की कोशिश तो करो. संसद ठप्प करके क्या साबित करना चाहते हो? लोकपाल बिल के समय भी अपनी कलई खोल चुके हो. अरविन्द केजरीवाल से अभी भले न डरो, पर एक समय आ सकता है, कि जनता उसके समर्थन में उठ खड़ा हो. मीडिया अभी तक केजरीवाल के साथ है और आज के समय में मीडिया का बड़ा रोल है!… हम कांग्रेस को जितना भी गाली दे लें, पर जबतक सशक्त विकल्प बनकर नहीं उभरेंगे, जनता क्या करेगी? हो सकता है तबतक सब्सिडी वाले गैस सिलिंडर की संख्या में बढ़ोत्तरी कर, पेट्रोल डीजल के मूल्यों में कटौती कर, मूल्यवृद्धि में लगाम लगाकर तात्कालिक सहानुभूति बटोर ले. कम से कम कांग्रेस में सभी एक रिमोट कंट्रोल पर एकमत तो हैं!
चाणक्य ने नंदवंश का नाश करने के लिए ‘चन्द्रगुप्त’ का सहारा लिया, ‘उसे’(चन्द्रगुप्त को) युद्ध कौशल सिखाने के लिए सिकन्दर की सेना में शामिल कराने से भी परहेज नहीं था. वो कहते हैं न ‘युद्ध और प्यार में सब जायज है’. फिर दुविधा क्यों? ‘चाल’ ‘चरित्र’ और ‘चेहरा’ का नारा किस दिन के लिए. ‘ए पार्टी विथ डिफरेंस’ कहने से नहीं होता, साबित करना पड़ता है. आडवाणी जी ने दो दो बार यह साबित किया है. उमा भारती और कल्याण सिंह को फिर से मौका दो, शायद कुछ ‘कल्याण’ हो जाय! सुषमा जी और अरुण जेटली विद्वान और प्रखर नेता हैं, इनकी धारा को कुमार्ग पर मत मोड़ो!राजनीति का कुछ भी अनुभव न होने के बावजूद मैंने बहुत सारे सुझाव दे डाले. यह सब समय की मांग के अनुसार मैंने अपनी अभिब्यक्ति दी है. आम आदमी और क्या कर सकता है. आम आदमी की ही तो बात कर सकता है. वैसे देश तो चलता रहेगा – या तो अमेरिका के इशारे पर या फिर पकिस्तान का डर दिखाकर! हम सब देश के आगे कुर्बान हो जायेंगे.’सर कटा सकते हैं, लेकिन सर झुका सकते नहीं’!
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