पूस की रात
प्रेमचंद की प्रमुख कहानियों में से एक है. प्रधान मंत्री मोदी ने पिछले दिनों
अपने मन की बात में इस कहानी की चर्चा भी की थी. कम जोत वाले एक किसान की
हालत क्या होती है, प्रेमचंद से बेहतर भला कौन जान सकता है. यह कहानी आजादी से
पहले की है. तब से अब तक किसानों की स्थिति में बहुत सुधार हुआ है, ऐसी बात नहीं
है. आज भी छोटे या मध्यम दर्जे के किसान कर्ज में डूबे है तो मौसम के साथ महाजन और
सरकार की मार भी अक्सर उन्ही पर पड़ती रहती है.
आज भी किसानों के खेतों में जब अच्छी पैदावार हो जाती है तो उनके
दाम बाजार में काफी गिर जाते हैं. जब मौसम की मार के चलते पैदावार को नुक्सान हुआ
तो उस वस्तु के दाम बाजार में काफी बढ़ जाती है. उसका लाभ भी साहूकार और बड़े
व्यापारी ही उठा ले जाते हैं. इस साल प्याज की फसल बर्बाद हुई तो आयात के बाद भी
प्याज अभी तक 100 रुपये प्रति किलो के भाव पर ही अंटका है. जब तक नई फसल आयेगी, जिसके
पुनरुत्पादन में ज्यादा लागत लगी होगी, उस समय दाम फिर गिर जायेंगे और किसान अपनी
पुरानी स्थिति में ही रहेगा. फिर आधे भारत में ठंढ बढ़ी हुई है जगह जगह बर्फवारी हो
रही है... उसका नुकसान भी तो किसानो का ही होना है. फसलें फिर बर्बाद होंगी. दाम
बढ़ेंगे ... मध्यम दर्जे के आदमी पर ही मार पड़ेगी. ठंढ में भी गरीब वर्ग के लोग ही
ज्यादा मरते हैं.
अभी जमशेदपुर के बगल के गांवों में टमाटर की अच्छी पैदावार हुई है.
गांवों में लोग टमाटर को सड़कों पर फेंक रहे हैं क्योंकि उनका सही दाम उनको खेत में
नहीं मिल रहा. वही टमाटर बाजारों में २० रुपये प्रति किलो से कम नहीं मिल रहा है.
फायदा कौन उठा रहा है? किसान या बिचौलिए?
प्रेमचंद की कहानी में हरखू एक गरीब किसान है जो कर्ज में डूबा
होने के कारण पूस के महीने में भी बिना कम्बल के ही अपने खेत की रखवाली कर रहा है.
उसके साथ उसका कुत्ता जबरा है. ठंढ से बचने के लिए उसने बगीचे की पत्तियां बटोरी और
आग जला कर राहत की साँस ली है. उसके बाद .... प्रेमचंद के ही शब्दों में ...
पत्तियाँ जल चुकी थीं. बगीचे में फिर अँधेरा छाया था. राख के नीचे
कुछ-कुछ आग बाकी थी, जो हवा
का झोंका आ जाने पर जाग उठती थी, पर एक
क्षण में फिर आँखें बंद कर लेती थी. हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और गर्म राख के पास
बैठा एक गीत गुनगुनाने लगा. उसके बदन में गर्मी आ गई थी. ज्यों-ज्यों शीत बढ़ती
जाती थी, उसे आलस्य दबाए लेता था.
जबरा जोर से भूँककर खेत की ओर भागा. हल्कू को ऐसा मालूम हुआ कि जानवरों का एक झुंड उसके खेत में आया है. शायद नीलगायों का झुंड था. उनके कूदने-दौड़ने की आवाजें साफ कान में आ रही थीं. फिर ऐसा मालूम हुआ कि वह खेत में चर रही हैं. उनके चरने की आवाज चर-चर सुनाई देने लगी. उसने दिल में कहा- नहीं, जबरा के होते कोई जानवर खेत में नहीं आ सकता. नोच ही डाले. मुझे भ्रम हो रहा है. कहाँ? अब तो कुछ नहीं सुनाई देता. मुझे भी कैसा धोखा हुआ.
जबरा जोर से भूँककर खेत की ओर भागा. हल्कू को ऐसा मालूम हुआ कि जानवरों का एक झुंड उसके खेत में आया है. शायद नीलगायों का झुंड था. उनके कूदने-दौड़ने की आवाजें साफ कान में आ रही थीं. फिर ऐसा मालूम हुआ कि वह खेत में चर रही हैं. उनके चरने की आवाज चर-चर सुनाई देने लगी. उसने दिल में कहा- नहीं, जबरा के होते कोई जानवर खेत में नहीं आ सकता. नोच ही डाले. मुझे भ्रम हो रहा है. कहाँ? अब तो कुछ नहीं सुनाई देता. मुझे भी कैसा धोखा हुआ.
उसने जोर से आवाज लगाई-जबरा, जबरा!
जबरा भौंकता रहा. उसके पास न आया.
फिर खेत में चरे जाने की आहट मिली. अब वह अपने को धोखा न दे सका.
उसे अपनी जगह से हिलना जहर लग रहा था. कैसा ठंढाया हुआ बैठा था. इस जाड़े-पाले में
खेत में जाना,
जानवरों के पीछे दौड़ना, असूझ जान पड़ा. वह अपनी जगह से न हिला.
उसने जोर में आवाज लगाई-होलि-होलि! होलि! जबरा फिर भौंक उठा. जानवर
खेत चर रहे थे. फसल तैयार है. कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किए डालते हैं. हल्कू पक्का इरादा
करके उठा और दो-तीन कदम चला, एकाएक
हवा का ऐसा ठंडा,
चुभने वाला, बिच्छू के डंक का सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलाव के
पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठंडी देह को गर्माने लगा. वह उसी राख के पास
गर्म जमीन पर चादर ओढ़कर सो गया.
जबरा अपना गला फाड़े डालता था, नीलगायें खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास
शांत बैठा हुआ था. अकर्मण्यता ने रस्सियों की भाँति उसे चारों तरफ से जकड़ रखा था.
सवेरे जब उसकी नींद खुली, तब चारों
तरफ धूप फैल गई थी.
और मुन्नी कह रही थी-क्या आज सोते ही रहोगे? तुम यहाँ
आकर रम गए और उधर सारा खेत चौपट हो गया.
हल्कू ने उठकर कहा-क्या तू खेत से होकर आ रही है? मुन्नी बोली-हाँ, सारे खेत
का सत्यानाश हो गया. भला ऐसा भी कोई सोता है. तुम्हारे यहाँ मड़ैया डालने से क्या
हुआ?
हल्कू ने बहाना किया-मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत की पड़ी है. पेट में ऐसा दर्द हुआ कि मैं ही
जानता हूँ.
दोनों फिर खेत की डाँड़ पर आए. देखा, सारा खेत रौंदा पड़ा हुआ है और जबरा मड़ैया के नीचे चित्त लेटा है, मानो प्राण ही न हों. दोनों खेत की दशा देख रहे थे.
मुन्नी के मुख पर उदासी छाई थी. पर हल्कू प्रसन्न था.
मुन्नी ने चिंतित होकर कहा-अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी
पड़ेगी.
हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा-रात की
ठंड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा.
आज स्थिति क्या है. देश की अर्थव्यवस्था चिंतनीय अवस्था में
है. पढ़े लिखे नौजवानों को नौकरी नहीं है. सभी तंगहाल है तभी नागरिकता कानून... और
उसे लागू करने की सरकार की जल्दी ने लोगों को इस ठंढ में भी जगा दिया है. लोग
सड़कों पर आन्दोलन कर रहे हैं. पुलिस की लाठियां खा रहे हैं. कुछ महिलाएं दिनरात
धरने पर बैठी हैं.... यह सब किसलिए अपने स्वत्व को बचाने के लिए. इसी बीच बलवाई
रूपी नीलगायें उन्ही के खेत में चर रही हैं. खेत यानी देश को चौपट कर रही हैं. फिर
भी आम आदमी हरखू की तरह घुटने में सर छुपाये बैठा है. क्या होगा... इससे बुरा क्या
होगा?
देश के कर्णधार, नेतागण, बुद्धिजीवी, पत्रकार, मीडिया आमजन
आदि सबको पता है ...क्या होनेवाला है ... और क्या नहीं होनेवाला है.... बस दिखना
चाहिए कि कुछ हो रहा है... देश चल पड़ा है... आगे और आगे... पीछे लौटने का सवाल ही
नहीं...
वन्दे मातरम! जय भारत! भारत माता की जय!
-
जवाहर
लाल सिंह, जमशेदपुर.
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