Saturday, 24 December 2016

आज भी खरे हैं तालाब - अनुपम मिश्र

रवीश कुमार के शब्दों में – “सोचा नहीं था कि जिनसे ज़िंदगी का रास्ता पूछता था, आज उन्हीं के ज़िंदगी से चले जाने की ख़बर लिखूंगा. सोमवार (१९-१२-२०१६) की सुबह दिल्ली के एम्स अस्पताल में अनुपम मिश्र ने अंतिम सांस ली. अनुपम मिश्र की यह किताब 1993 में छप गई थी लेकिन मेरे हाथ लगी 28 अगस्त, 2007 को. इस किताब के पहले पन्ने पर लेखक का नाम नहीं है. भीतर कहीं बहुत छोटे से प्रिंट में संपादन अनुपम मिश्र लिखा है. ये उनकी फितरत की वजह से हुआ होगा कि कोई इस किताब की बजाए उनकी चर्चा न करने लगे, इसलिए वे बात को आगे रखते थे और अपने नाम को पीछे. दस साल तक भारत के अलग-अलग इलाकों में यात्राएं कर अनुपम मिश्र ने तालाब बनाने की हमारी विशाल परंपरा, उसकी तकनीक और शब्दों को जुटाया था. हिन्दी का ही अनुमानित हिसाब है कि इस किताब की ढाई लाख प्रतियां बिकी हैं. मलयाली, कन्नड़, तेलुगू, तमिल, बांग्ला, गुजराती, पंजाबी, उर्दू के अलावा मंदारिन, अंग्रेज़ी और फ्रेंच में भी इसका अनुवाद है. जिस किसी ने पढ़ा वो तालाब बनाने की भारतीय परंपरा का कायल हो गया. यह सही है कि हमने तमाम तालाब मिटा दिये लेकिन यह भी सही है कि इस किताब को पढ़ने के बाद लोगों ने फिर से कई तालाब बना दिये. अनुपम मिश्र राजस्थान और बुंदेलखंड के गांव-गांव घूमते रहे, लोगों को बताते रहे कि आपकी तकनीक है, आपकी विरासत है, तालाब बनाने में कोई ख़र्चा नहीं आता है, मिलकर बना लो. क्यों हम सब अकाल, सुखाड़ से मर रहे हैं.
सागर, सरोवर, सर चारों तरफ मिलेंगे. सरोवर कहीं सरवर भी है. आकार में बड़े और छोटे तालाबों का नामकरण पुलिंग और स्त्रीलिंग शब्दों की इन जोड़ियों से जोड़ा जाता रहा है. जोहड़-जोहड़ी, बंध-बंधिया, ताल-तलैया, पोखर-पोखरी. डिग्गी हरियाणा और पंजाब में कहा जाता है. कहीं चाल कहीं खाल, कहीं ताल तो कहीं तोली, कहीं चौरा, चौपड़ा, चौधरा, तिघरा, चार घाट तीन घाट, अठघट्टी पोखर. तालाब के अलग-अलग घाट अलग-अलग काम के लिए होते थे. छत्तीसगढ़ में तालाब के डौका घाट पुरुषों के लिए तो डौकी घाट स्त्रियों के लिए. गुहिया पोखर, अमहा ताल, डबरा, बावड़ी, गुचकुलिया, खदुअन. जिस तालाब में मगरमच्छ होते थे उनके नाम होते थे मगरा ताल, नकरा ताल. बिहार में बराती ताल भी होता है. बिहार के लखीसराय में कोई रानी थी जो हर दिन एक तालाब में नहाती थी तो वहां 365 तालाब बन गए. स्वाद के हिसाब से महाराष्ट्र में तालाब का नाम जायकेदार या चवदार ताल पड़ा. ऐरी, चेरी दक्षिण में तालाब को कहा गया. पुड्डुचेरी राज्य के नाम का मतलब ही है नया तालाब.
इसी किताब में रीवा के जोड़ौरी गांव का ज़िक्र है, जहां 2500 की आबादी पर 12 तालाब थे. किताब 1993 की है, तो अब क्या हालत बताना मुश्किल है, फिर भी 150 आबादी पर एक तालाब का औसत. अनुपम जी ने यह सवाल उठाया कि आखिर क्या हुआ कि जो तकनीक और परंपरा कई हज़ार साल तक चली वो बीसवीं सदी के बाद बंद हो गई. लिखते हैं कि कोई सौ बरस पहले मास प्रेसिडेंसी में 53000 तालाब थे और मैसूर में 1980 तक 39000 तालाब. बीसवीं सदी के प्रारंभ तक भारत में 11-12 लाख तालाब थे. अनुपम जी ने लिखा है कि इस नए समाज के मन में इतनी भी उत्सकुता नहीं बची है कि उससे पहले के दौर में इतने सारे तालाब भला कौन बनाता था. गजधर यानी जो नापने के काम आता है. तीन हाथ की लोहे की छड़ लेकर घूमता था. गजधर वास्तुकार थे. गजधर में भी सिद्ध होते थे जो सिर्फ अंदाज़े से बता देते थे कि यहां पानी है.
हम पानी पीते तो हैं, मगर पानी के बारे में कम जानते हैं. धीरे-धीरे कंपनियों के नाम जानेंगे और पानी के बारे में भूल जाएंगे. अनुपम मिश्र की किताब की अंतिम पंक्ति यही है, अच्छे-अच्छे काम करते जाना. गांधी मार्ग पत्रिका की भाषा में उतर कर देखिये आपको चिढ़ हिंसा, कुढ़न, आक्रोश का नामो निशान नहीं मिलेगा. ऐसी भाषा बहुत कम लोग लिख पाते हैं. पूरी तरह से लोकतांत्रिक व्यक्तित्व.
अनुपम मिश्र गए हैं, ये बड़ी बात नहीं है, पानी को जानने वाला समाज चला गया, ये बड़ी बात है. उस समाज का दस्तावेज़ भी तैयार है, फिर भी किसी को फर्क नहीं पड़ता ये बड़ी बात है. आप ये न समझियेगा कि कोई लेखक गया है, आदमी को आदमी बनाने का एक स्कूल बंद हो गया है.”
ऊपर के शब्द रवीश जी के हैं जिन्हें मैंने उनके विचार के साईट से लिया है. उसी के अगले हिस्से में अनुपम जी के संवाद सुनने को मिले, जिसे उन्होंने २०१२ के हमलोग कार्यक्रम में व्यक्त किया था. उन्होंने बताया की जो पानी हम खरीदकर पीते हैं वह बहुत सस्ता है. उसे दूध से भी महंगा होना चाहिए. राजस्थान के लोग जानते हैं पानी का महत्व, पानी संरक्षण का महत्त्व, पानी के तालाब और कुंएं का महत्व. दिल्ली वाले तो पूरी यमुना पी गए. अब गंगा और भागीरथी को पीने में लगे हैं. अब हिमाचल के रेणुका झील से पानी लेने की बात चल रही है. हरियाणा के पानी पर अभी दिल्ली निर्भर कर रही है. बीच-बीच में दोनों सरकारों के बीच बात-चीत और तकरारें भी होती रहती हैं. १०० साल पहले दिल्ली में ८०० तालाब थे, दिल्ली के सभी ८०० तालाब कहाँ गए? तालाबो के ऊपर घर बन गए दुकानें बन गयी, बहुत सारे मॉल भी बन गए. हम तालाब क्यों नहीं बनवाते? मच्छर क्यों अधिक हो गए हैं? तालाब की मछलियां मच्छरों के लार्वा को खा जाती हैं. प्रकृति ने रचना बड़ी सोच समझकर की है. हमने प्रकृति का क्षरण किया है. ८०० साल पहले जैसलमेर का तालाब जन भागीदारी से बना था. उसे बनाए के लिए राजा के साथ पूरी प्रजा ने भी कुदाल चलाये थे.
जमशेदपुर में अभीतक शहर पानी के मामले में रिवर-टू-रिवर सिस्टम पर काम कर रहा था। अब नदी पर निर्भरता को कम किया जाएगा। इस्तेमाल किया हुआ पानी नदी में नहीं बहाया जाएगा, बल्कि उसे सीवरेज प्लांट में साफ करके उसका इस्तेमाल शहर के पार्कों और गार्डेन में सिंचाई में किया जाएगा.
अब टाटा प्रबंधन शहर को साफ और सुंदर बनाए रखने के साथ-साथ जीरो वाटर डिस्चार्ज(या डिस्चार्ज लेस वाटर) की योजना पर काम कर रहा है. जुस्को(टाटा की एक इकाई) शहर की सात लाख की आबादी को जलापूर्ति करती है. शहर की 90 प्रतिशत आबादी सीधे पाइपलाइन से जुड़ी हुई है. लोग नल के पानी का इस्तेमाल करते हैं. शहर में पानी की जरूरत को पूरा करने के लिए 30 एकड़ में फैला डिमना लेक है, जिसकी क्षमता 35000 मिलियन लीटर है. डिमना लेक को जमशेदजी नुसेरवानजी टाटा ने बनवाया था. इसमें पहाड़ों का पानी आकर जमा होता है. इसे साफ़ सुथरा रक्खा जाता है. इतना साफ़ कि बिना फ़िल्टर किये भी इसे पीया जा सकता है. इधर झाड़खंड सरकार ने भी तालाब और डोभा(छोटे) तालाब बनवाने में रूचि दिखलाई है. इससे लोगों को रोजगार के साथ साथ जल की भी आत्म निर्भरता बढ़ी है. हमें प्रयास करने ही होंगे. जल संरक्षण करना ही होगा. भूमि जल का स्तर जिस तरह से नीचे जा रहा है हम अगर कुछ नहीं करेंगे तो एक दिन यह जल दुर्लभ हो जायेगा. तालाब में मछलियां होती हैं, मछलियां बहुत लोगों के लिए स्वादिष्ट और पौस्टिक आहार भी है. इसके अलावा यह जल को साफ रखती हैं. कीड़े मकोड़ों को खा जाती हैं.
वर्षा जल को नहीं सहेजेंगे तो अब शहर डूबने लगेंगे, डूब भी रहे हैं. पानी को जानिए, पहचानिये, कद्र कीजिये, पूजा कीजिये, लोग करते थे, करते हैं. आज छठ पर्व एक उदाहरण है और भी कई पर्व त्यौहार जैसे गंगा स्नान, कुम्भ स्नान, मकर संक्रांति आदि जलाशयों के निकट मनाये जाते हैं. ‘जल ही जीवन है’ के साथ दिवंगत अनुपम मिश्र को मेरी भी भाव-भीनी श्रद्दांजलि!

-    - जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.   

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