मेरे मित्र प्रकाश कुमार मिश्रा, आप कहाँ हो?
आज अंतर्जाल की सिमटती दुनियां में नित्य नए मित्र बनते है, बिछुड़ते हैं, फिर मिल जाते हैं. वहीं काफी पुराने मित्रों से मिलना बड़ा मुश्किल लगता है. गांव के मित्र, स्कूल के मित्र, कॉलेज के मित्र विभिन्न कार्यस्थलों के मित्र, विभिन्न निवास-स्थलों के मित्र बनते हैं, बिछुड़ते हैं. फिर अचानक कभी मुलाकात हो जाती है, एक दूसरे को असमंजस की स्थिति में देखते हैं, बड़ी हिम्मत जुटाकर पूछते हैं, अगर पुराने जान पहचान के मित्र मिल गए तो बड़ी प्रसन्नता होती है. अगर पुराने न भी हुए तो नए सम्बन्ध तो बन ही जाते हैं.
आज संचार के माध्यम काफी विकसित हुए हैं. चिट्टी-पत्री की जगह इ मेल और मोबाइल मैसेज ने ले ली हैं. फिर भी मुझे लगता है कि अभी काफी लोग, खासकर मेरे समय के लोग, मेरे परिवेश के लोग, अभी भी काफी कम ही इससे जुड़ पाये हैं. आजकल के नौजवान अगर गांव में भी हैं तो भी मोबाइल के द्वारा जुड़े हैं.
इतना सब कुछ लिखने के पीछे मेरा सिर्फ एक ही मकसद है मेरे प्रिय मित्र प्रकाश कुमार मिश्रा की खोज करना.
हम दोनों की मुलाकात बिन्देश्वर सिंह कॉलेज, दानापुर में ही हुई थी. हमलोग केमिकल लैब में अपना परिचय अपने प्राध्यापक को दे रहे थे. मैंने कहा – मैं भूमिहार ब्राह्मण हायर सेकेंडरी स्कूल, बक्सर से मैट्रिक पास किया हूँ . ‘बक्सर’ का नाम सुनते ही प्रकाश मेरे पास आये और मेरे बारे में पूरी जानकारी हासिल की. फिर हमदोनो एक दूसरे के अच्छे मित्र बन गए. दो और मित्र एक दिनेश कुमार सिंह और दूसरा राजकुमार गुप्ता यानी कि हम चार की चांडाल चौकड़ी बन गयी. राजकुमार गुप्ता तो दानापुर में ही रहते थे. पर हम तीनों यानी मैं, प्रकाश और दिनेश खगौल से बस के द्वारा आना जाना करते थे. मैं और दिनेश रेलवे की लोको कॉलोनी में रहते थे और प्रकाश खगौल बाजार के पास प्राइवेट घर में भाड़ा में रहते थे. प्रकाश के पिताजी. एल आई सी में काम करते थे. प्रकाश और मुझमे घनिष्ठता बढ़ती गयी और हम दोनों एक दूसरे के घर आने जाने लगे… इस तरह पारिवारिक सम्बन्ध भी स्थापित हो गया. पर यह सम्बन्ध दो साल ही चला, यानी कि इंटर की पढाई तक. (१९७४ से १९७६ तक)
प्रकाश की याद इसलिए भी अधिक है क्योंकि वे किसी भी काम में मेरा साथ देते थे. हंशी-खुशी और गम के मौके पर भी हमने एक दूसरे का साथ निभाया. मुझे आज भी वह दिन अच्छी तरह याद है, जब मेरे पिताजी गंभीर बीमारी से ग्रस्त थे और रात भर पेट दर्द से परेशान थे. उनका इलाज पटना PMCH के डॉ. श्याम नारायण आर्य से चल रहा था. डॉ. श्याम नारायण आर्य की प्राइवेट क्लिनिक गोविन्द मित्र रोड में थी, जहाँ वे शुबह आठ बजे से बैठते थे. पिताजी रात भर इतना बेचैन थे कि मैं शुबह के चार बजे ही एक ऑटो बुलाकर, उन्हें उसपर बिठाकर पटना के लिए रवाना होने वाला था. तभी सोचा कि क्यों न अपने मित्र प्रकाश कुमार मिश्रा को भी साथ लेता चलूँ…. और मैंने ऑटोवाले को प्रकाश के घर चलने को कहा. प्रकाश अभी सोये ही थे. उनको जगाकर मैंने अपनी परेशानी बताई और वे तुरंत तैयार होकर मेरे साथ चल दिए. करीब साढ़े छ: बजे शुबह तो हम डॉ. श्याम नारायण आर्य के क्लिनिक में पहुँच भी गए थे. पर डॉ. को तो आठ बजे के बाद ही आना था. चाहे जो हो हम सबको इंतज़ार करना ही था. कुछ और पेसेंट आने लगे थे. तब तक पिताजी के दर्द में भी कुछ कमी होने लगी थी. हम दोनों (मैं और प्रकाश कुमार मिश्रा) ने वहीं पास की चाय दुकान से नीम्बू वाली चाय पी और डॉ के आने का इंतज़ार करते रहे. डॉ. चूंकि पिताजी की बीमारी के बारे में जानते थे, इसलिए आते ही उन्होंने पहले पिता जी की जांच की, आवश्यक दवाइयाँ लिखी और कुछ जांच भी कराये. पिता जी कुछ ठीक महसूस करने लगे थे. पर वे डॉ. की निगरानी में थे और हमदोनो डॉ. के आदेश का निरंतर पालन कर रहे थे. शुबह चार बजे से दोपहर तीन बजे तक हम दोनों सिर्फ कई बार नीम्बू की चाय और पानी ही पीकर रह रहे थे. खाने की इच्छा भी नहीं हो रही थी. वह मेरे लिए आज भी अविश्मरणीय दिन था. हालाँकि अंग्रेजी दवा से परहेज करनेवाले पिताजी अपनी जिंदगी में पहली बार गंभीर रूप से बीमार पड़े थे और ठीक होते होते आखिर अपनी अवधि पूरी कर इस दुनियां से गुजर गए.पर हर दुःख सुख में साथ खड़ा रहनेवाला ऐसा दोस्त बहुत कम ही मिलता है आज के स्वार्थी संसार में. तब मेरे और प्रकाश के बीच न ही कोई स्वार्थ था नहीं कोई दैहिक रिश्ता ..पर था अटूट बंधन. मैं अपनी नौकरी ढूढते ढूढते टाटानगर (जमशेदपुर) आ गया. प्रकाश के बारे में सिर्फ इतना ही मालूम हो सका कि वे शायद रेलवे में नौकरी पा गए थे. पर फिर उनसे कोई सम्पर्क न रहा. शुरू के दिनों में एकाध बार पत्राचार हुआ था. फिर कहाँ हम कहाँ वे. मैंने अंतर्जाल पर, फेसबुक पर काफी सर्च किया पर आज तक नहीं मिल सके हम दोनों. मैं इस आलेख को विभिन्न मंचों पर डालकर देखता हूँ, शायद वे या उनको जाननेवाले कोई भी ब्यक्ति उनके बारे में बता सके. प्रकाश कुमार मिश्रा मूलत: बक्सर (पांडे पट्टी) के निवासी हैं उनके एक चचेरे भाई आशुतोष मिश्र पटना के गर्दनीबाग में रहते थे, मैं उनके घर भी जा चूका हूँ. इससे ज्यादा जानकारी अब मुझे याद नहीं है.
जवाहर लाल सिंह, साकची, जमशेदपुर 09431567275 jlsingh452@gmail.com
आज अंतर्जाल की सिमटती दुनियां में नित्य नए मित्र बनते है, बिछुड़ते हैं, फिर मिल जाते हैं. वहीं काफी पुराने मित्रों से मिलना बड़ा मुश्किल लगता है. गांव के मित्र, स्कूल के मित्र, कॉलेज के मित्र विभिन्न कार्यस्थलों के मित्र, विभिन्न निवास-स्थलों के मित्र बनते हैं, बिछुड़ते हैं. फिर अचानक कभी मुलाकात हो जाती है, एक दूसरे को असमंजस की स्थिति में देखते हैं, बड़ी हिम्मत जुटाकर पूछते हैं, अगर पुराने जान पहचान के मित्र मिल गए तो बड़ी प्रसन्नता होती है. अगर पुराने न भी हुए तो नए सम्बन्ध तो बन ही जाते हैं.
आज संचार के माध्यम काफी विकसित हुए हैं. चिट्टी-पत्री की जगह इ मेल और मोबाइल मैसेज ने ले ली हैं. फिर भी मुझे लगता है कि अभी काफी लोग, खासकर मेरे समय के लोग, मेरे परिवेश के लोग, अभी भी काफी कम ही इससे जुड़ पाये हैं. आजकल के नौजवान अगर गांव में भी हैं तो भी मोबाइल के द्वारा जुड़े हैं.
इतना सब कुछ लिखने के पीछे मेरा सिर्फ एक ही मकसद है मेरे प्रिय मित्र प्रकाश कुमार मिश्रा की खोज करना.
हम दोनों की मुलाकात बिन्देश्वर सिंह कॉलेज, दानापुर में ही हुई थी. हमलोग केमिकल लैब में अपना परिचय अपने प्राध्यापक को दे रहे थे. मैंने कहा – मैं भूमिहार ब्राह्मण हायर सेकेंडरी स्कूल, बक्सर से मैट्रिक पास किया हूँ . ‘बक्सर’ का नाम सुनते ही प्रकाश मेरे पास आये और मेरे बारे में पूरी जानकारी हासिल की. फिर हमदोनो एक दूसरे के अच्छे मित्र बन गए. दो और मित्र एक दिनेश कुमार सिंह और दूसरा राजकुमार गुप्ता यानी कि हम चार की चांडाल चौकड़ी बन गयी. राजकुमार गुप्ता तो दानापुर में ही रहते थे. पर हम तीनों यानी मैं, प्रकाश और दिनेश खगौल से बस के द्वारा आना जाना करते थे. मैं और दिनेश रेलवे की लोको कॉलोनी में रहते थे और प्रकाश खगौल बाजार के पास प्राइवेट घर में भाड़ा में रहते थे. प्रकाश के पिताजी. एल आई सी में काम करते थे. प्रकाश और मुझमे घनिष्ठता बढ़ती गयी और हम दोनों एक दूसरे के घर आने जाने लगे… इस तरह पारिवारिक सम्बन्ध भी स्थापित हो गया. पर यह सम्बन्ध दो साल ही चला, यानी कि इंटर की पढाई तक. (१९७४ से १९७६ तक)
प्रकाश की याद इसलिए भी अधिक है क्योंकि वे किसी भी काम में मेरा साथ देते थे. हंशी-खुशी और गम के मौके पर भी हमने एक दूसरे का साथ निभाया. मुझे आज भी वह दिन अच्छी तरह याद है, जब मेरे पिताजी गंभीर बीमारी से ग्रस्त थे और रात भर पेट दर्द से परेशान थे. उनका इलाज पटना PMCH के डॉ. श्याम नारायण आर्य से चल रहा था. डॉ. श्याम नारायण आर्य की प्राइवेट क्लिनिक गोविन्द मित्र रोड में थी, जहाँ वे शुबह आठ बजे से बैठते थे. पिताजी रात भर इतना बेचैन थे कि मैं शुबह के चार बजे ही एक ऑटो बुलाकर, उन्हें उसपर बिठाकर पटना के लिए रवाना होने वाला था. तभी सोचा कि क्यों न अपने मित्र प्रकाश कुमार मिश्रा को भी साथ लेता चलूँ…. और मैंने ऑटोवाले को प्रकाश के घर चलने को कहा. प्रकाश अभी सोये ही थे. उनको जगाकर मैंने अपनी परेशानी बताई और वे तुरंत तैयार होकर मेरे साथ चल दिए. करीब साढ़े छ: बजे शुबह तो हम डॉ. श्याम नारायण आर्य के क्लिनिक में पहुँच भी गए थे. पर डॉ. को तो आठ बजे के बाद ही आना था. चाहे जो हो हम सबको इंतज़ार करना ही था. कुछ और पेसेंट आने लगे थे. तब तक पिताजी के दर्द में भी कुछ कमी होने लगी थी. हम दोनों (मैं और प्रकाश कुमार मिश्रा) ने वहीं पास की चाय दुकान से नीम्बू वाली चाय पी और डॉ के आने का इंतज़ार करते रहे. डॉ. चूंकि पिताजी की बीमारी के बारे में जानते थे, इसलिए आते ही उन्होंने पहले पिता जी की जांच की, आवश्यक दवाइयाँ लिखी और कुछ जांच भी कराये. पिता जी कुछ ठीक महसूस करने लगे थे. पर वे डॉ. की निगरानी में थे और हमदोनो डॉ. के आदेश का निरंतर पालन कर रहे थे. शुबह चार बजे से दोपहर तीन बजे तक हम दोनों सिर्फ कई बार नीम्बू की चाय और पानी ही पीकर रह रहे थे. खाने की इच्छा भी नहीं हो रही थी. वह मेरे लिए आज भी अविश्मरणीय दिन था. हालाँकि अंग्रेजी दवा से परहेज करनेवाले पिताजी अपनी जिंदगी में पहली बार गंभीर रूप से बीमार पड़े थे और ठीक होते होते आखिर अपनी अवधि पूरी कर इस दुनियां से गुजर गए.पर हर दुःख सुख में साथ खड़ा रहनेवाला ऐसा दोस्त बहुत कम ही मिलता है आज के स्वार्थी संसार में. तब मेरे और प्रकाश के बीच न ही कोई स्वार्थ था नहीं कोई दैहिक रिश्ता ..पर था अटूट बंधन. मैं अपनी नौकरी ढूढते ढूढते टाटानगर (जमशेदपुर) आ गया. प्रकाश के बारे में सिर्फ इतना ही मालूम हो सका कि वे शायद रेलवे में नौकरी पा गए थे. पर फिर उनसे कोई सम्पर्क न रहा. शुरू के दिनों में एकाध बार पत्राचार हुआ था. फिर कहाँ हम कहाँ वे. मैंने अंतर्जाल पर, फेसबुक पर काफी सर्च किया पर आज तक नहीं मिल सके हम दोनों. मैं इस आलेख को विभिन्न मंचों पर डालकर देखता हूँ, शायद वे या उनको जाननेवाले कोई भी ब्यक्ति उनके बारे में बता सके. प्रकाश कुमार मिश्रा मूलत: बक्सर (पांडे पट्टी) के निवासी हैं उनके एक चचेरे भाई आशुतोष मिश्र पटना के गर्दनीबाग में रहते थे, मैं उनके घर भी जा चूका हूँ. इससे ज्यादा जानकारी अब मुझे याद नहीं है.
जवाहर लाल सिंह, साकची, जमशेदपुर 09431567275 jlsingh452@gmail.com
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