आज
से लगभग पचास साल पहले हमारे गांवों में खेतों के बड़े बड़े प्लॉट होते थे. कोई भी
प्लॉट एक बीघे से कम का नहीं होता था. अधिकांश खेतों में मेड़ें नहीं होती थी. लोग
अपने अपने खेतों को पहचानते थे. या बीच बीच में मजबूत झाड़ लगा देते थे, ताकि एक
सीमा रेखा बनी रहे. वैसे भी बरसात में ये सभी खेत पानी से भरे होते थे. पानी
निकलने के बाद सिर्फ एक फसल रब्बी की होती थी. रब्बी यानी मूलत: दलहन-तिलहन की
पैदावार मूंग, मसूर, मटर,चना, खेसारी, तीसी, सरसो, अरहर, आदि. कुछ ऊंचे खेतों में धान, मक्का,
मडुआ, ज्वार आदि लगाने की कोशिश की जाती
थे. अगर बाढ़ में नहीं डूबा तो कुछ धान मकई, ज्वार
आदि भी हो जाते थे... तब सभी लोग तीन-चार पुत्र/पुत्रियाँ पैदा करते ही थे. ताकि
कृषि कार्यों में मदद मिल सके, पशुधन
की भी सेवा ठीक से हो. और अगर किसी से भिड़ने की नौबत आ गयी तो तीन चार लाठियां भी
घर से ही निकल जाये.... कालांतर में लाठियां आपस में भी भंजने लंगी और खेतों के
टुकड़े होते गए प्लॉट छोटे होते चले गए. पहले खेतों की जुताई हल बैलों से होती थी, फिर आ गया ट्रैक्टर और पावर टिलर का
जमाना ... तो किसलिए बैलों को पालना और खिलाना? खेत
जब छोटे छोटे टुकड़ों में बंटने लगे ट्रैक्टर से जुताई में दिक्कत भी होने लगी फिर
तो ‘पावर टिलर’ या कुदाल का ही सहारा रहा.
खेतों
के टुकड़े होते गए परिवार की जनसंख्या बढ़ती गयी, उपज बढ़ाने के लिए फर्टिलाइजर का
इस्तेमाल होने लगा. फलत: खेतों की उर्वरा शक्ति भी अंतत: कम होती गयी. अब भरण पोषण
के लिए घर से बाहर निकालना अपरिहार्य हो गया. अब एक बेटा या तो नौकरी करे या खेती
करे, संग रहना जरूरी नहीं लगा. अपने अपने स्वार्थ अपना अपना घर. आँगन में
भी दीवारें बनने लगी. जो मर्यादा में बंधे रहे उनकी तो प्रतिष्ठा बढ़ती रही,
अमर्यादित लोग तीन तेरह होते चले गए. खेतों में अब मेड़ों के साथ साथ क्यारियां भी
बढ़ने लगी. सिंचाई के लिए कुंए या ट्यूब
वेल बनवाए गए. बड़े किसान राजनीति करने लगे
छोटों को उकसा कर फोड़ते गए और उनके जमीन पर धीरे धीरे आधिपत्य बनाते गए. पहले कर्ज
फिर खेत पर कब्ज़ा. आपस में फूट और बंटने की सजा!
फिर
सरकारी योजनाएँ गांवों तक पहुंचने लगी. रेडिओ में चौपाल के कार्यक्रम से कृषि
सम्बन्धी जानकारी दी जाने लगी, बीच बीच में लोकगीतों द्वारा मनोरंजन किया जाने
लगा. अब भूमि से मोह कहाँ,
लोग गांव घर छोड़ शहरों में रहने लगे, भले ही फुटपाथ पर ही क्यों न सोना पड़े!
विकास के लिए सरकार को किसानों की ही जमीन चाहिए. किसान को चाहिए सड़क, बिजली पानी
की सुविधा. कारखाने अगर बनेंगे तो नौकरियां मिलेंगी. बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा.
अब उत्तम खेती मध्यम बाण, अंतिम सेवा भीख मंगान का जमाना गया अब तो भीख मांगना ही
उत्तम हो गया. अब तो बड़े बड़े लोग मूल्यवान कपडे पहनकर मूल्यवान पात्र लेकर बैंकों
से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से भी भीख(कर्ज) लेने लगे. मुद्राएँ भी अब
अन्तर्राष्ट्रीय हो गयीं. नीतियां विश्व ब्यापी होने लगी. अब हम सीमा से बंधे नहीं
रहे. ब्यापार का पर्ग भी प्रसस्त हो गया. आम आदमी अपनी जरूरत के सामन बाजारों से
खरीदने लगा. अब वह दिन दूर नहीं कि हम अपने ही खेतों में मजदूरी करें और उसके
उत्पाद को कच्चा माल की तरह उद्योगपतियों को बेचें और उनसे तैयार माल अपने उपयोग
के लिए खरीदें. कुटीर उद्योग में फायदा नहीं है, क्योंकि मंझले और बड़े उद्योगों का
उनपर कब्ज़ा होने लगा है. झाड़ू, रस्सी से लेकर खाद्य सामग्री भी ब्रांडेड कंपनियां
बनायेगी और हम पैक्ड फ़ूड पर निर्भर होंगे. इसे ही तो कहते हैं- विकास! ...और विकास
के लिए चाहिए भूमि, पैसा, कच्चा माल और समर्पित मजदूर. तो भूमि अधिग्रहण भी तो
करना पड़ेगा. भूमि अधिग्रहण के लिए नित्य नए कानून बनाने पड़ेंगे जिससे आपका और देश
का विकास हो सके.
भूमि
अधिग्रहण कानून को लेकर कांग्रेस सरकार पर हमला बोलते हुए श्री मोदी ने संसद में
कहा- ‘किसी को यह अभिमान नहीं होना चाहिए कि इससे अच्छा नहीं हो सकता है।‘
उन्होंने कहा कि हमें पता था कि आप चुनाव में फायदे के लिए हड़बड़ी में नया कानून
ला रहे हैं, इसके बावजूद हम देशहित में उस समय आपके
साथ रहे। प्रधानमंत्री ने कहा, 'जब
हमारी सरकार बनी तो पार्टियों से इतर सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने कहा कि
सिंचाई की परियोजनाओं के लिए जमीन नहीं मिल पा रही है। किसान तबाह हो रहे हैं।'
उन्होंने
कहा कि सेना के प्रतिष्ठान कह रहे हैं कि हम यह कैसे लिखकर दे सकते हैं कि उस जमीन
पर क्या करने जा रहे हैं,
फिर तो बेहतर होगा कि पाकिस्तान को ही
बता दें कि कहां क्या ठिकाना बना रहे हैं। मोदी ने कहा, 'मैं नहीं मानता कि यह कानून गलत है, लेकिन कुछ गलतियां रह गई हैं। क्या इसे
ठीक करना हमारी जिम्मेदारी नहीं है? आप
इस कानून के लिए श्रेय लीजिए, मुझे
इससे समस्या नहीं है। मैं खुद सार्वजनिक रूप से आपको श्रेय दूंगा। आप बताइए भूमि
अधिग्रहण विधेयक में किसानों के खिलाफ अगर एक भी चीज है तो मैं उसे बदलना चाहता
हूं।'
मोदी
पर सांप्रदायिक मामलों में चुप रहने के आरोप लगते रहे हैं। पहली बार संसद पर इस
बारे में वह खुलकर बोले। हालांकि उन्होंने वही दोहराया जो एक-दो बार वह हाल ही में
कुछ कार्यक्रमों में कह चुके हैं। उन्होंने कहा, 'कोई कानून अपने हाथ में नहीं ले सकता और धर्म के नाम पर किसी का शोषण
नहीं हो सकता।' मोदी ने कहा कि मैं पहले भी कह चुका
हूं कि मेरी सरकार का एक ही धर्म है, इंडिया
फर्स्ट और एक ही ग्रंथ हैं संविधान। 'मुझे सिर्फ एक ही रंग दिखता है, तिरंगा।'
ऐसे
समर्पित नेता, जिनकी बातों में जादू हो, विपक्ष
भी ताली बजाने पर मजबूर हो जाय! बाजपेयी जी में भी इतनी वाकपटुता शायद न रही हो...मोदी
जी शब्दों के बाजीगर हैं. शब्दों के उचित प्रयोग से ही उन्होंने पिछले सालों में
भारत को सर्वोच्च शिखर तक पहुँचाने का सपना दिखाया है. आप सपने देखते रहिये और
सुखद नींद लेते रहिये. हम आपके पॉकेट तक, आपके घरों की तिजोरी तक आराम से पहुँच
जायेंगे.
तभी
तो अब आम बजट और रेल बजट से महंगाई बढ़ने ही वाली है कि अचानक पेट्रोल डीजल के
दामों में भारी बृद्धि नसीब तो बदलता रहता है न! (तीन रुपये प्रति लीटर, झाड़खंड
सरकार ने इसपर वैट दर में बृद्धि कर और बढ़ा दिया है) विकास के लिए पैसा कहाँ से
आयेगा? ...अच्छे दिन का सब्जबाग खूब दिखाया गया, अब पांच साल तक अच्छे दिन का
इंतज़ार करना ही होगा. खेतों को सरकार के हवाले कर दिया जाय ...सरकार भूमिहीनों को
भी २०२२ तक घर बना कर देनेवाली है. तब तक सपने देखते-देखते दिन कट ही
जायेंगे! आखिर देश के प्रति हमारा कुछ तो
फर्ज बनता ही है. यह देश कुर्बानियों का देश है, हमारे पुरखों ने कुर्बानिया दी है, हम सबको भी कुछ न कुछ देना चाहिए था. मनोज कुमार का वह डायलॉग याद
कीजिये जो उन्होंने उपकार में बोला था.- यह मत सोचो की देश तुम्हे क्या दे रहा है,
सोचो यह कि तुम देश को क्या दे रहे हो!
देश, धर्म, जाति और भाषा मनुष्य को भावुक बना देती है. इसी का फायदा सभी
प्रबुद्ध वर्ग उठा रहे हैं आम आदमी तो आम आदमी है उसे समस्या से निपटने की आदत
होनी ही चाहिए. जिन्दगी एक जंग है इस जंग को जीतने के लिए आपको लड़ना होगा. आन्दोलन
करिए, सरकारें बदलिए, वे कानून बदलेंगे और साथ ही आपको भी. जय हिन्द! जय भारत! जय हो मोदी जी की ...नमो!
नमो !
- - जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर,
०१.०३.२०१५ .
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