Monday, 30 September 2013

चुनाव सुधार और राजनीति में शुचिता ….

१५ अगस्त १९४७ को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद होने के बाद हमारे देश में नए लोकतंत्र की स्थापना हुई. हमारा अपना संविधान बना और उसके तहत चुनावी प्रक्रिया क प्रावधान हुआ जिसमे आम जनता की भागीदारी तय की गयी. आम जनता/ वयस्क जनता अपना मत प्रकट कर अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करे और और चुने हुए प्रतिनिधि जनता और देश के हित में काम करे, यही इस लोकतंत्र की मूल अवधारणा कही जायेगी.
एक समय ऐसा था जब हमारे जनप्रतिनिधि ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले होते थे और उनके अन्दर जनता के लिए, अपने देश के लिए कुछ अच्छा करने की तमन्ना थी. कुछ दशकों तक सबकुछ ठीक-ठाक चला. फिर उन जनप्रतिनिधियों के मन में अपनी जनता से ज्यादा अपनी चिंता होने लगी. उस समय यह चिंता अपनी कुर्सी बचाने तक सीमित थी, अपना वर्चस्व बनाये रखने तक सीमित थी....  कालांतर में यह प्रतिस्पर्धा का दौर और आगे बढ़ा और तब यह भावना; समाज के बटवारे, अपना-अपना संगठन बनाने, उसे मजबूत बनाने और धन-बल, बाहुबल बढ़ाने, उसे असीम हद तक पहुँचाने में काम करने लगी. फलस्वरूप राजनीति में अपराधी तत्वों का बोल-बाला बढ़ने लगा, अपराधी अपना अपराध छुपाने के लिए और राजनेता अपना आधार बढ़ाने के लिए एक दूसरे को सहयोग करने लगे.
जनता में नेताओं के प्रति अविश्वास बढ़ने लगा और यही जनता मतदान केंद्र तक जाने में भी कतराने लगी. उन्हें मतदान केंद्र तक लाने के लिए के विभिन्न प्रकार के प्रलोभनों और हथकंडो का इस्तेमाल होने लगा, जनता भी इन्ही प्रलोभनों, हथकंडों का शिकार हो गलत प्रतिनिधि का चुनाव करने लगी और गलत प्रतिनिधि आखिर क्या करते? गलत-सलत फैसला और भ्रष्ट आचरण ही तो उनका धर्म था.
तभी १९९१ में एक चुनाव आयुक्त हुए श्री टी, एन. शेषण और उन्होंने मतदान में सुधार के लिए मतदाता पहचान पत्र (वोटर आई डी कार्ड) का प्रस्ताव रखा. प्रारंभ में भले इसका विरोध हुआ पर बाद में यह काफी लोकप्रिय हो गया, और यह हमारी पहचान का प्रमाण भी बन गया. टी. एन. शेषण से पूर्व बहुत कम लोग चुनाव आयुक्त के नाम से परिचित थे, पर शेषण का नाम हर जुबान पर था चाहे समर्थन में या विरोध में. यह चुनाव सुधारों में बहुत ही महत्वपूर्ण और कर्न्तिकारी कदम था. इसके चलते गलत या वोगस मतदान बहुत हद तक नियंत्रित हुआ.   शेषन का कहना था, "मैं वही कर रहा हूँ, जो कानून मुझसे करवाना चाहता है. उससे न कम न ज़्यादा. अगर आपको कानून नहीं पसंद तो उसे बदल दीजिए. लेकिन जब तक कानून है, मैं उसको टूटने नहीं दूँगा.'' 
आज हमारे देश का उच्चतम न्यायलय वही तो कर रहा है, पर उसे करने नहीं दिया जा रहा है. उसके राह में रोड़े अटकाने के लिए विधायिका और सरकार या तो कानून बदल दे रही है या अध्यादेश लाकर उसके इरादे को मटियामेट कर दे रही है. किन्तु आज मीडिया के माध्यम से और शिक्षा के माध्यम से जागरूकता का स्तर बढ़ा है. सभी लोग महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, ऊँच–नीच की बढ़ती खाई से परेशान है और इससे निजात पाना चाहते हैं. पिछले दिनों अन्ना के आन्दोलन में लोकपाल बिल की मांग ने पूरे देश को झकझोर दिया था. पर राजनीति के इन चतुर खिलाड़ियों उस आन्दोलन की हवा ही निकाल दी. ‘फूट डालो और राज करो’ की रणनीति में निपुण सभी राजनेता इसमें कमोबेश एक ही रंग में दिखे.  मीडिया वालों ने भी जितनी कवरेज शुरू में की, उतनी बाद में नहीं की फलस्वरूप वह आन्दोलन अब अंतिम सांसें गिन रहा है.
इसके बाद राजनीतिक दलों को भी सूचना के अधिकार के अंतर्गत लाने की बात आयी, तो सभी राजनीती दलों ने एक मत से इसकी खिलाफत कर दी. फिर सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधि कानून की धारा ८(४) को रद्द करने का फैसला सुनाया तो वर्तमान सरकार ने अद्धयादेश के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पलटने की कोशिश की. जबकि यह फैसला सभी राजनीतिक दलों के लिए चुनाव सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण कदम था.
अब आए कांग्रेस के वर्तमान उपाध्यक्ष श्री राहुल गांधी, जिन्होंने इस अध्यादेश को बकवास और फाड़ने की सार्वजनिक बयान दे डाली. यह उनका अपने ही सरकार के प्रति बगावत थी, पर शायद उन्होंने दूर की सोची और रातों रात नायक बन गए. सभी पार्टियों, राजनेताओं, पत्रकारों, विश्लेषकों ने उनका गुणगान करना शुरू कर दिया.
एक और फैसला सुप्रीम कोर्ट का उसी दिन आया कि मतदाता निगेटिव (नकारात्मक) मतदान भी कर सकता है. यानी ई वी एम में अंतिम बटन होगा ‘इनमे से कोई नहीं’  और कोई मतदाता उन सभी उम्मीदवारों के प्रति अपना विरोध दर्ज कर सकता है. अन्ना का आन्दोलन भी इस अधिकार की मांग करता रहा है.
३० सितम्बर को चारा घोटाले के मुख्य आरोपी लालू जी के साथ कुल ४५ आरोपियों को रांची के सी बी आई कोर्ट से दोषी करार देना एक और महत्वपूर्ण कदम है, इसे भी राजनीतिक दलों को नजरंदाज नहीं करना चाहिए
अंतत: देखें, तो कुल मिलाकर चुनाव सुधार और राजनीति में स्वच्छ लोगों को लाने की प्रक्रिया तेजी से चल रही है. अगर राजनीतिक दल दागी या आरोपित व्यक्तियों को टिकट न देने पर मजबूर हो जायेगे तो अवश्य ही भले लोग राजनीति में आएंगे और देश तथा समाज का भला तभी हो सकेगा.

प्रस्तुति – जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.       

हिंदी दिवस पर ‘पखवारा’ के आयोजन का कोई औचित्य है, या बस यूं ही चलता रहेगा यह सिलसिला?

हिंदी दिवस पर ‘पखवारा’ का आयोजन के औचित्य पर. पखवारा शायद इसलिए कि १४ सितम्बर को हम लोग ‘हिंदी दिवस’ मनाते हैं, इसकी शुरुआत अगर १ सितम्बर से मान ले तो पखवारा पूरा करने की रश्म अदायगी हो जायेगी. ऐसा ही लगभग हर क्षेत्रों में होता है. पर इस अवसर पर जागरण जंक्सन द्वारा आयोजित इस प्रतियोगिता के लिए ‘पूरा मास’ निर्धारित करना, पखवारे शब्द को द्विगुणित कर देता है. महीने भर चली इस प्रतियोगिता में महान विद्वानों, कद्रदानों, विचारकों, चिंतकों, विदुषियों, रचनाकारों, के असीम ज्ञान का पिटारा तो खुला ही, घर के चाहरदीवारी में सीमित, पर ज्ञान-विज्ञानं, विचार, अनुभव के स्रोत गृहणियों, माताओं, बहनों को भी इस मंच पर अपने विचार साझा करने का सुअवसर प्राप्त हुआ; तो इस आयोजन से उत्साहित नव किशोर वर्ग भी अपनी लेखनी की धार को चमकाने से बाज नहीं आए.
वास्तव में ‘जागरण जंक्सन’ का यह आयोजन अपने आप में अनोखा है, जिसमे हर वर्ग के लोगों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया; अपने ज्ञान-विचार बांटे और ग्रहण भी किये. बहुत ही अच्छा आदान–प्रदान हुआ. जहाँ हमने ब्लोगिंग के श्रीगणेश और उसके प्रचार-प्रसार के बारे में जाना, वहीं हमने हिंदी के महत्व और उसके व्यापकता को भी भी पहचाना. यहीं हमें मालूम हुआ कि हिंदी में ब्लॉग लिखने वालों की संख्या २५,००० से ऊपर है. और हिंदी भाषा बोलने-समझने वाले लोगों की संख्या ८५ करोड़ से ऊपर है.
हिंदी की जननी संस्कृत जिसे देव वाणी या देव भाषा का दर्जा प्राप्त है, जिसमे चारो वेदों, ६ शास्त्रों, १८ पुराणों और ३०० से ऊपर उपनिषदों में हमारे ऋषि मुनियों के शोध में जीवन का रहस्य समाहित है तो वहीं समस्त ज्ञान को दो पंक्तियों में समाहित करने की भी क्षमता है – यथा
अष्टदशु पुराणेषु ब्यासस्य वचनम द्वयं,
परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीड़नम.
जहाँ कर्मण्ये वा अधिकारस्ते, मा फलेषु न कदाचन और ‘जैसा कर्म वैसा फल’ जैसी पंक्तियों में समस्त गीता ज्ञान को व्यक्त करने की क्षमता हो, उस जननी की दुहिता हिंदी के बारे में जितना भी बखान किया जाय कम है.
जिस भाषा और संस्कृति में पृथ्वी, नदी, प्रकृति आदि को माता; तो सूर्य, पहाड़, जलागार को पिता सदृश मानने की परम्परा हो उस मातृभाषा को अगर कहा जाय कि हमने एक पखवारे में समेट लिया और हिंदी पखवारा मनाकर हमने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर दी तो घोर कृतघ्नता होगी.
हमारा तो एक ही सूत्र है ‘चरैवेति’ ‘चरैवेति’ बढ़ते चलो.
रुकने का नाम मौत है चलना है जिदगी…
पर्कृति के स्रोत झरने, नदियाँ, हवा, रोशनी, कालचक्र …ये क्या रुके रहते हैं? नहीं न … अरे, ये तो किसी का इंतज़ार भी नहीं करते… चलते जाते है. अगर हरिवंश राय बच्चन के शब्दों में कहें तो – “भक्त तो आत्मसमर्पण करके वह विस्मृति ढूढता है, जो हर्ष और विषाद से परे है. बादल अपना अपनापन अगणित बूंदों में, बूंदे जलधारों में, जलधारा नदियों में और नदियाँ अपना अपनापन समुद्र में खोने को आतुर है. पृथ्वी अपना अपनापन अगणित वृक्ष-बेली-पौधों में, पौधे पुष्प और कलियों में, पुष्प सौरभ समीर में. पतंगा दीपक आगे, दीपक दिवस के आगे, दिवस रजनी के आगे रजनी शशि तारक आदि सूर्य के आगे अर्पण करने को आतुर-व्याकुल है. इसी तरह गायक, वादक, चित्रकार, शिल्पकार, कवि सभी अपना अपनापन ही व्यक्त करते हैं, जो किसी के ह्रदय को छू सके! “चरम अभिलाषा आत्मानंद नहीं, आत्म समर्पण है”.
हमारी मातृभाषा हिंदी में वही आत्मानंद है, जो किसी समय सीमा क इन्तजार नहीं करता. हमारी भाषा में रामायण, हनुमान चालीसा, जन गण मन, वन्दे मातरम आदि ऐसे धरोहर है; जिन्हें अनपढ़ भी कंठस्थ कर लेता है, उसे हृदयंगम कर लेता है. बालक नचिकेता अगर धर्मराज को हराने का सामर्थ्य रखता है तो सती सावित्री अपने पति को यमराज से वापस मांग लेने की हठ में विजयी हो जाती है. उस हिंदी-संस्कृति को हम किसी समय सीमा में आबद्ध कर ले यह संभव नही है.
मेरे मित्र, आप अंग्रेजी ही नहीं अन्य भाषाओँ के भी विद्वान बन जाओ, ये हमारे लिए गर्व की बात होगी, पर अपने मूल स्रोत हिंदी को अपने ह्रदय के मंदिर में संरक्षित, प्रज्वलित रहने दो.
जिस हिंदी संस्कृति में विश्व की रक्षा करने हेतु विषपान कर नीलकंठ बनने की सामर्थ्य रखने वाले देवों के देव महादिदेव हों, ऐसे हिंदी को हम किसी पखवारे में सीमित कर दें …यह असम्भव है. हिंदी तो वह ज्ञान की सरिता है जो आदिकाल से अनंतकाल तक निर्बाध गति से चलती रहेगी और हम सभी को अमृतपान कराती रहेगी. “फूलों से नित हँसना सीखो, भौरों से नित गाना”
जय हिंदी! जय हिन्द!

Monday, 23 September 2013

मुजफ्फरनगर दंगे से हमने क्या सीखा?



एक लडकी के साथ हुई छेड़छाड़ और उसके तत्काल प्रतिक्रिया के फलस्वरूप हुई तीन युवकों की हत्या सांप्रदायिक हिंसा का इतना बड़ा रूप ले लेगी, कौन जनता था. लेकिन वे लोग तो अवश्य जानते थे, जिन्होंने इसे फलने फूलने का मौका दिया. मौका ही नहीं बल्कि एक छोटी सी चिनगारी को दहकने के लिए हर प्रकार के इंधन जुटाए.
ऐसा अक्सर होता है, चाहे सांप्रदायिक दंगे हो, जातीय, भाषाई, या क्षेत्रवाद से सम्बंधित. हर मामले में दोनों पक्षों से कुछ नेता बयान जारी करते हैं, फिर बयान पर प्रतिक्रिया होती है और अन्दर अन्दर कुछ चालें चली जाती हैं. नुकसान हमेशा आवाम का होता है, पिसती, मरती है, हमेशा ही गरीब जनता. इन दंगों का शिकार कोई बड़ा नेता नहीं होता. वो तो हमेशा सुरक्षा घेरे में चलते हैं, या घटना के इलाके में जाने से परहेज करते हैं.  आजकल संचार के माध्यम बड़े तेज हो गए हैं और वे इन ख़बरों को नमक मिर्च लगाकर अपनी तरफ से पेश करते हैं, भले ही उनके पत्रकार भी इन दंगों में शिकार हो जाते हैं, पर उन्हें तो स्टूडियो में बैठकर खबरें चलानी होती है. विभिन्न पार्टियों के नेता जैसे इन्तजार करते रहते हैं, ऐसे मौके पर एक दूसरे पर दोषारोपण करने का. फल परिणाम तो गरीब जनता ही भोगेगी, शिविरों में अपने बचे खुचे परिवार को शरणार्थी की तरह बचायेगी और नई सृष्टि, जो विधाता की देन है, उसे भी सम्हालेगी.
मुस्लिम संगठनों ने भी कहा है कि दंगों में शामिल दलों की न केवल मान्यता खत्म हो और दंगा भड़काने में शामिल नेताओं के चुनाव लड़ने पर भी प्रतिबंध लगना चाहिए।
प्रस्ताव में दंगे को सुनियोजित बताते हुए कहा गया है कि ऐसा चुनावी लाभ हासिल करने के लिए किया गया।
इन दंगों पर सख्ती दिखाते हुए सुप्रीम कोर्ट जांच के साथ राहत व पुनर्वास कार्यो की आखिर तक निगरानी के लिए तैयार हो गया है। शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में लंबित मामले भी अपने यहां स्थानांतरित कर लिया है। अब तक एक-दूसरे पर तोहमत लगा रही केंद्र और उप्र सरकार ने कोर्ट में सुर में सुर मिला लिया है। केंद्र सरकार ने राज्य सरकार को हर तरह की मदद देने की प्रतिबद्धता जताते हुए साफ कर दिया है कि कानून व्यवस्था राज्य का मसला है। वह उसमें दखल नहीं देगी। वहीं राज्य सरकार ने मामले के राजनीतिकरण के प्रयासों का विरोध करते हुए कहा कि वह पीड़ितों को राहत और मदद देने में केंद्र सरकार के साथ मिलकर काम कर रही है।
प्रदेश सरकार ने पीड़ितों को दी जा रही मदद का विस्तृत ब्योरा देते हुए कहा कि इसे अपर्याप्त नहीं कहा जा सकता। राज्य केंद्र के साथ मिलकर काम कर रहा है। मामले को राजनीतिक रंग नहीं दिया जाना चाहिए। हमारे देश में दंगे होते हैं जो दुर्भाग्यपूर्ण है। गुजरात इसका एक उदाहरण है। ताजा स्थिति पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि अब तक हिंसा में 50 लोग मारे गए हैं। जबकि 27 गंभीर और 46 को हल्की चोटें आई हैं। करीब 42000 लोग मुजफ्फरनगर और शामली से विस्थापित हो चुके हैं। इस पर कोर्ट ने चिंता भी जताई। कोर्ट ने सरकार को 26 सितंबर तक स्थिति रिपोर्ट पेश करने का आदेश देते हुए सुनवाई टाल दी।
अब चाहे मामला सुप्रीम कोर्ट में चले या हाई कोर्ट में जो क्षति हो चुकी है उसकी भरपाई बड़ी  मुश्किल है
एक रिपोर्ट के अनुसार मुजफ्फरनगर और शामली में हुई हिंसा ने जिले के उद्योग, कारोबार और बाजार को बदरंग कर दिया। इस हिंसा से जिले की औद्योगिक इकाईयों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों को 265 करोड़ रुपये का फटका लगा है।

शामली जिले में करीब 400 छोटी बड़ी औद्योगिक इकाइयाँ हैं. इनमें लोहा, पेपर, बर्तन, रिम-धुरा एक्सल, केमिकल, कुकर, प्लास्टिक बर्तनों की 150 बडे़ कारखाने हैं। इंडियन इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के मुताबिक इन इकाईयों से प्रतिदिन करीब 20-25 करोड़ रुपये का कारोबार होता है। करीब 25 हजार से अधिक कर्मचारी-श्रमिक काम करते हैं। पिछले दिनों की हिंसा ने औद्योगिक इकाईयों की कमर ही तोड़कर रख दी।
तीन सितंबर को शहर में हुई हिंसा के बाद से फैक्ट्रियों में कर्मचारी ड्यूटी पर नहीं आ रहे। 40 फीसदी लेबर भी काम पर नहीं आई। रात की शिफ्ट में तो लेबर ने काम करने से ही मना कर
हिंसा के कारण ट्रांसपोर्टर शामली में अपनी गाड़ियां भेजने से कतराए। नतीजतन यहां से न तो माल जा सका ओर न ही कच्चा माल ही बाहर से आ सका। फैक्ट्रियां कच्चे माल के अभाव में कई दिन बंद रही।
लिसाढ़ गांव में हुई हिंसा के चलते यहां लगी करीब 20-25 हैंडलूम इकाईयां तबाह हो गई। इन छोटी हैँडलूम वाले गांव में दरी चादर तैयार कर पानीपत आदि स्थानों पर भेजते थे। हिंसा में सब कुछ बर्बाद हो गया। इनके चलाने वाले गांव से पलायन कर जा चुके हैं।
सारांश यह है कि नेता लोग ही दंगे करवाते हैं और उसपर अपनी राजनीतिक रोटियां भी सेंकते हैं. हम कब सम्ह्लेंगे. जब पूरी शांति हो जायेगी तो एक दूसरे की जान के दुश्मन बने लोग क्या आपस में मिलना जुलना छोड़ देंगे. ये नेता भी तो फिर से एक साथ मिल जाते हैं. फिर हम इन्हें मौका क्यों देते हैं. किसी फिल्म में शायद दिखाई गयी थी – आपस में घृणा फैलाने के लिए एक ही शक्स रात के अँधेरे में गाय काट कर मंदिर के सामने फेंक देता है और सूअर काटकर मस्जिद के सामने. शुबह शुरू हो जाता है दंगा, लूट मार, एक दुसरे के जान के दुश्मन ......
नहीं ऐसी घृणा की राजनीति जो करते हैं, उन्ही को मुबारक! हम सब भारतीय एक होकर राष्ट्र का मान बढ़ाएं और देश के बाहरी दुश्मनों से लोहा लें. देश के उत्थान के लिए कदम से कदम मिलाकर चलें. आतंकवादी, बलात्कारी, दुष्कर्मी, हत्यारे का कोई धर्म नहीं होता. वे सभी अपराधी हैं और उनके साथ कानून के तहत कार्रवाई होनी चाहिए!  
जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.

Monday, 16 September 2013

विश्वकर्मा की नगरी टाटानगर!



विश्वकर्मा की नगरी टाटानगर
देव शिल्पी श्री विश्वकर्मा जी को कलियुग में भी कुछ करने की इच्छा हुई. उन्होंने जमशेदजी नुशेरवानजी टाटा को स्वप्न में दर्शन दिया. जमशेदजी चौंक कर उठ बैठे.
विश्वकर्मा जी बोले – मुझे तुमसे बहुत उम्मीद है वत्स!
टाटा – आज्ञा देवशिल्पी.
विश्वकर्मा – पूर्व दिशा में कालीमाटी (वर्तमान जमशेदपुर) नामक एक जगह है, जहाँ अभी भूमि पर तो वनसंपदा है, पर वहीं पर आस पास में काफी मात्रा में खनिज सम्पदा भी है. वस्तुत: यह धरती रत्नगर्भा है. उन रत्नों को पहचान कर उसे परिष्कृत कर उसका वास्तविक रूप देना है. यह काफी मजबूत रत्न है, जिसका इस्तेमाल हर जगह प्रचुरता से किया जाना है. तुम जाओ और विशेषज्ञों की मदद लेकर उस क्षेत्र में लौह संयंत्र की स्थापना करो. मिहनत तुम्हे और तुम्हारे साथियों/सहयोगियों को करनी होगी, सुफल जरूर मिलेगा. हम तुम्हारे साथ हैं.
टाटा ने देवशिल्पी से प्रेरणा पाकर कालीमाटी जगह की खोज की और उसे विकसित कर टाटा आयरन एंड स्टील कम्पनी की स्थापना की, जो आज टाटा स्टील के नाम से विख्यात है. टाटा स्टील के बाद टाटा मोटर्स एवं अन्य कम्पनियां अपना विस्तार करने लगी और आज यहाँ लगभग १२०० छोटे बड़े उद्योग धंधे स्थापित हैं. इस शहर की आबादी अब १३ लाख से ऊपर है. १७ सितम्बर को यहाँ विश्वकर्मा पूजा बड़े धूमधाम से मनायी जाती है. उस दिन यह वास्तव में विश्वकर्मा नगरी लगती है.
टाटा नगर तो है ही. जैसे अयोध्या के राजा राम थे. वैसे ही टाटानगर के नागरिकों के ह्रदय के राजा टाटा साहब हैं. विश्वकर्मा पूजा के दिन हम सभी जमशेदपुर वासी विश्वकर्मा भगवान के साथ टाटा साहब को भी नमन करते हैं!   

जय विश्वकर्मा! जय टाटा साहब!

Wednesday, 11 September 2013

मोदीमय हुआ देश!

ABP न्यूज़ और नीलसन के सर्वे के अनुसार आज देश का मूड भाजपा के पक्ष में जाता दीख रहा है. सर्वे के अनुसार अगर आज चुनाव हुए तो भाजपा को ३६% और कांग्रेस को मात्र २२% मत मिलेंगे. देश का ४७% मतदाता मोदी को प्रधान मंत्री के रूप में देखना चाहता है. जबकि राहुल गांधी को सिर्फ १८% और मनमोहन सिंह को १४% मतदाता ही प्रधान मंत्री के रूप में देखना चाहता है.
कॉरपोरेट जगत के भी ७५% प्रमुखों ने मोदी में विश्वास व्यक्त किया है. इधर भाजपा के तेज तर्रार नेता अरुण जेटली भी प्रधान मंत्री पद के लिए भाजपा के उम्मीदवार की घोषणा अभी तक नहीं किये जाने से भाजपा का ही नुकसान देख रहे हैं. आर एस एस भी इस बात की घोषणा भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व से करावा लेना चाहिती है. संभव है १० सितम्बर तक कोई फैसला हो जाय.  
अभी हाल ही में ५ सितम्बर को शिक्षक दिवस समारोह में जहाँ मोदी जी आमंत्रित थे, एक बच्चे के सवाल के जवाब में मोदी जी ने कहा था – “मैं प्रधान मंत्री बनने का सपना नहीं देखता, जो प्रधान मंत्री का सपना देखता है, वह बर्बाद हो जाता है”... (कहीं उनका इशारा आडवाणी की तरफ तो नहीं था.) विश्लेषक इस कथन का अपने अपने ढंग से अर्थ निकाल रहे हैं. कांग्रेस को छोडिये उनके सहयोगी दल शिवसेना ने चुटकी ली है – मोदी जी को अब समझ में आया है? लेकिन वे अपने ही दल के लोगों को कैसे समझायेंगे?... और अब तो देश का ४७% मतदाता उन्हें प्रधान मंत्री के रूप में देखना चाहते हैं, उन्हें कैसे समझायेंगे?
योगगुरु बाबा रामदेव ने तो यहाँ तक कह दिया कि मोदी नहीं तो समर्थन नहीं. पूरे देश में हवा चल रही है - ‘मोदी लाओ देश बचाओ’ ... सोसल मीडिया भी ‘मोदीमय’ बहुत पहले से है ...इस आवाज को भाजपा नेता कब समझेंगे? (खासकर आडवाणी जी, सुषमा जी, मुरली मनोहर जोशी जी)
मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान ट्विटर के माध्यम से प्रधान मंत्री पद पर कयास लगाना अभी से उचित नहीं नहीं है, कहकर मोदी जी का समर्थन/(या असमंजस की) स्थिति पैदा कर दिया है, तो गोवा के मुख्य मंत्री मनोहर परिकर द्वारा रायटर को दिया बयान और फिर खंडन...  तो छत्तीशगढ़ के मुख्यमंत्री रमण सिंह ने तो लालकिले को ही अम्बिकापुर में स्थानांतरित कर दिया, लालकिला का प्रारूप(दो करोड़ खर्च से) तैयार कर! ...इससे छतीसगढ़ के विकास का भी दर्शन होता है.   
अम्बिकापुर में नरेंद्र मोदी शुरुआत में ही कहते हैं... कई मुख्य मंत्री(नितीश पर निशाना) दिल्ली जाकर रोते-गाते हैं, हाथ फैलाते हैं. पर डॉ. रमण सिंह दिल्ली नहीं गए, हाथ नहीं फैलाये बल्कि जो संसाधन थे, उसी का विकास किया. डॉ. रमण सिंह आदमी के डाक्टर हैं और मनमोहन सिंह रूपये के डाक्टर - दोनों को दस साल मिले ... दोनों की हालत देखकर आप निर्णय कर सकते हैं कि कौन कैसा डाक्टर है!
अपने शब्द चातुर्य से वे कांग्रेस, राहुल गाँधी.  डॉ. मनमोहन सिंह और नितीश कुमार पर हमला करते रहे और रमण सिंह का गुणगान. अंत में यह कहा कि छत्तीसगढ़ अभी तेरह साल का हुआ है और तेरह साल में किसी बच्चे का पूर्ण विकास नहीं होता बल्कि असली विकास १३ से १८ साल के बीच होता है. इसलिए छत्तीसगढ़ की जनता को डॉ. रमण सिंह को एक मौका और देना चाहिए ताकि छतीसगढ़ का पूर्ण विकास हो सके.
‘गरीबी तो मन की अवस्था है’ - राहुल गाँधी ने कहा था. मतलब ‘गरीबी’ नामकी कोई चीज नहीं होती. इस बात से उनकी दादी श्रीमती इंदिरा गाँधी की आत्मा को कितनी पीड़ा हुई होगी, जिन्होने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था.
उन्होंने फेसबुक, ट्वीटर आदि सोसल मीडिया आदि का भी जिक्र किया, जिसका इस्तेमाल आजकल के युवा खूब धरल्ले से कर रहे हैं, उसी के द्वारा मोदी जी की लोकप्रियता में काफी बढ़ोत्तरी हुई है. पर जो युवक १८ साल के हो गये हैं, उन्हें अपने को वोट देने के अधिकार को भी हांसिल करने की आवश्यकता है. यानी वे अपना नाम वोटर लिस्ट में दर्ज करवाएं और उनका सही समय पर सही इस्तेमाल करें.
चाहे जो हो, परिवर्तन की मांग, भाजपा की लहर, और मोदी की लोकप्रियता का लाभ उठाने का यही उचित समय है, जब लोग कांग्रेस के भ्रष्टाचार और महंगाई से परेशान हैं... जबतक परिवर्तन का डर नहीं रहता, सरकारें निरंकुश हो जाती है. मनमोहन सिंह को प्रधान मंत्री का पद बड़ी आसानी से उधार में मिल गया, जिसका वो भलीभांति निर्वहन नही कर सके ... कभी गठबंधन धर्म, तो कभी दुनिया की मंदी का हवाला देकर, देश का दीवाला निकालते रहे.  पर मोदी जी को अगर प्रधान मंत्री का पद मिलता है, तो यह उनके संघर्ष का परिणाम होगा.  .... (आशाराम की गिरफ्तारी के बाद अन्य हिंदूवादी नेताओं की तरह आशाराम का समर्थन नहीं किया, बल्कि उनकी तुलना राक्षस से कर डाली, इसके बाद ही सभी नेताओं ने अपने कदम पीछे हटा लिए ... यह भी मोदी जी के लिए सकारात्मक साबित हुआ है) 
मोदी का नाम भावी प्रधान मंत्री के उम्मीदवार के रूप में घोषणा के लिए भाजपा के अन्दर ही ऊहापोह की स्थिति बनी हुई है ... अधिकांश लोग चाहते हैं कि उनकी घोषणा जल से जल्द कर देनी चाहिए ... कुछ वरिष्ठ नेताओं की नाराजगी के बावजूद भी, हो सकता है, ऐलान कर दिया जाय. परिणाम चाहे जो हो ... राजनीति संभावनाओं का भी नाम है ... कुछ भी संभव है. परिवर्तन अगर कुछ सकारात्मकता लेकर आता है, तो सबको स्वीकार करनी चाहिए इसी आशा के साथ ...

जय हिंदी, जय भारत, जय हिन्द!  

हिंदी ब्लॉगिंग हिंदी को मान दिलाने में सार्थक हो सकती है!

हिंदी में ब्लोगिंग वास्तव में एक क्रांतिकारी कदम है, जिसके माध्यम से अनेक रचनाकार, हिंदी प्रेमी, हिंदी भाषी, और आम आदमी अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में सक्षम हुआ है. इसमें कोई दो राय नहीं कि कोई भी भाषा दो व्यक्तियों, समुदायों के बीच संवाद का प्रमुख माध्यम है. आज हिंदी ब्लोगिंग के बहुत सारे साइट्स उपलब्ध हैं, जहाँ हम अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं. आज से दसेक साल पहले यह सुविधा उतनी लोकप्रिय नहीं थी. पर आज अनेक हिंदी के अखबार, टी वी चैनेल कम्प्यूटर और अंतरजाल के माध्यम से सुलभ हो गए हैं. आप अपने विचार तुरंत वांछित व्यक्ति तक पहुंचा सकते हैं, यहाँ भाषा दीवार नहीं बनती … आप हिंदी, अंग्रेजी या अन्य किसी भी भाषा में अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं.
हमारे भारतीय लोग जब किसी कार्यवश विदेश जाते हैं, तो वहां उन्हें अपनी मातृभूमि और मातृभाषा की खूब याद आती है, और तब वे इसी हिंदी ब्लॉग्गिंग के माध्यम से अपने आपको भारत से जोड़े रखना चाहते हैं. इसी जागरण मंच पर अनेक भारतीय, अप्रवासी भारतीय भी इसी ब्लॉग्गिंग के माध्यम से अपनी मातृभाषा हिंदी को गले लगाये रखते हैं.
ब्लॉग्गिंग की दुनिया ऐसी है, जहाँ संपादकों, समाचार मालिकों की कैची नहीं चलती, आप जो भी कहना चाहते है, जैसे भी कहना चाहते हैं, गद्य के माध्यम से, पद्य के माध्यम से, मुक्त छंद के माध्यम अपने विचार रख सकते हैं. ब्लॉग पर अन्य पाठक या लेखक की प्रतिक्रिया यह बतलाती है कि आपके लेखन से पाठक किस प्रकार प्रभावित हैं. आपके विचार से सहमत हैं अथवा असहमत, साथ ही आपको अपनी लेखन शैली में, या विचार में सुधार का भी अवसर प्रदान करती है. हजारों किलोमीटर दूर बैठा हुआ आदमी अचानक आपका प्रिय बन जाता है, आप उसके सुख दुःख के साझीदार भी बन जाते हैं.
हिंदी ब्लोगिंग इसलिए कि अभी तक हिंदी उपेक्षित थी और हिंदी में लिखने, बोलने वालों को लोग पिछड़ा मानते थे. पिछड़ा न कहलायें इस लिहाज से भी बहुत लोग हिंदी लिखने में रूचि नही रखते थे, पर हिंदी ब्लोगिंग की सुविधा से अधिकांश पढ़े लिखे लोग, कार्यरत या सेवामुक्त, कामकाजी महिलाएं या गृहणियां इस में रुचि ले रही हैं, और अपने खाली समय का सदुपयोग भी कर रही हैं.
आज विश्व में रोज नए नए परिवर्तन हो रहे हैं. परिवर्तन का असर हमारे देश और समाज पर अनिवार्य रूप से हो रहा है, ऐसे में हम अगर अपने आपको एक छोटी सी दुनिया में सीमित कर लेंगे तो हमारा विकास वहीं रुक जाएगा. इसलिए आज जरूरत है एक व्यापक सोच की, खुले मस्तिष्क की और ग्राह्यता की. बड़े बड़े राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन विभिन्न प्रकार के विचारों, आलेखों और उनके प्रचार के जरिये ही संभव हो सका है. इसमें कोई दो राय नहीं कि इन सबमे मीडिया का महत्वपूर्ण योगदान/सहभागिता रही है. मीडिया हर व्यक्ति तक नहीं पहुँच सकता, पर आप इस ब्लॉग्गिंग के माध्यम से मीडिया तक पहुँच सकते हैं. आज प्रमुख ब्लॉग को हर समाचार पत्र या इलेक्ट्रोनिक मीडिया भी महत्व देने लगा है, जिसका व्यापक प्रचार प्रसार भी हो रहा है.
हिंदी ब्लोगिंग इसलिए कि यह आम भारतीय नागरिक की भाषा है. हिंदी हमारी मातृभाषा, राष्ट्रभाषा और जन भाषा है. आइये इसे और भी समृद्ध बनाये. समृद्धता और सर्वग्राहकता के लिए यह आवश्यक है कि हिंदी में क्लिष्ट तत्सम संस्कृत शब्दों के साथ साथ अन्य भारतीय भाषाओ के शब्दों, अंग्रेजी के शब्दों को भी इनमे समाहित करें. अग्रेंजी में विश्व की अनेक भाषाओँ का समायोजन है, तभी यह व्यापक रूप लेने में सक्षम हो सकी है. इसीलिये हिंदी की उपयोगिता बढ़ाने के लिए हम सबको वैसे ही प्रयास करने होंगे.
जय हिंदी, जय भारत!

फूल जैसा ये है जीवन.

मुंह अँधेरे सुबह में तुम मुस्कुरा रहे थे,
धूप जैसे ही खिली तुम खिलखिला रहे थे.
दोपहर के ज्वाल में तुम बल खा रहे थे.
शाम को फिर क्या हुआ जो मुंह छिपा रहे थे.
फूल जैसा ये है जीवन बाल यौवन अरु जरा.
फूल की खुशबू कभी तो कील से यह पथ भरा.
पाल मत प्यारे अहम तू एक दिन तू जायेगा.
सारी दौलत संगी साथी काम न कोई आयेगा.
गर किया सद्कर्म वह तू साथ लेकर जायेगा 
तेरे जाने पर भी निशदिन तेरे ही गुण गायेगा

Tuesday, 3 September 2013

आशाराम की मुट्ठी में नहीं है कानून!

जी हाँ, आशाराम बापू(आशुमल हर्बलानी) की मुट्ठी में है कानून ऐसा वे समझते थे … तभी तो जघन्य आरोप और एफ आई आर के बाद भी कुछ दिनों तक छुट्टे घूम रहे थे. यही आरोप किसी आम आदमी पर लगता तो वह जल्द जेल के अन्दर होता और अपना जुर्म कबूल कर लिया होता. पर आशाराम उलटे पत्रकारों को भी धमकी दे रहे थे … उनके समर्थक पत्रकारों पर हमले भी कर रहे थे. संसद में आवाज उठने के बाद भी भाजपा नेताओं द्वारा समर्थन … हिन्दू संत के नाम पर!
१५ अगस्त की रात को आशाराम १६ वर्षीय पीड़िता के साथ जोधपुर में जुल्म करते हैं, पीड़िता के माता-पिता उनसे मिलने की कोशिश करते हैं, आशाराम के शिष्य उन्हें टहलाते रहते हैं, जोधपुर पुलिस एफ आई आर दर्ज करने में आनाकानी करती है …. हारकर पीड़िता के माता पिता २० अगस्त को दिल्ली के कमला नगर थाने में जीरो प्राथमिकी दर्ज कराते हैं … पहले आशाराम द्वारा उस दिन जोधपुर में होने से ही इंकार करना, बाद में पीड़िता से मिलने की बात स्वीकार करना पर दुराचार जैसी हरकत से इनकार …फिर कानून को धमकी देना … साबित कर के दिखाओ! क्योंकि मेडिकल रिपोर्ट में बलात्कार की पुष्टि नहीं हुई, फिर भी यौन उत्पीड़न और शोषण का केस तो बनता ही है … पुलिस बड़ी सावधानी से एक-एक कदम फूंक-फूंक कर रख रही है .. ताकि बेवजह हंगामा न हो. आशाराम के भक्त देश और विदेश में भी हैं, जो लगातार पुलिस और सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं. आशाराम को सम्मन देने में भी पुलिस को काफी दिक्कत हुई. काफी समय इंतज़ार करना पड़ा फिर भी जोधपुर पुलिस संयम बरतते हुए अपना काम कर रही है ..इसी बीच भाजपा नेता उमा भारती, विजय सोनकर शास्त्री, और अब प्रवीन तोगड़िया का मैदान में कूदना, सुब्रमण्यम स्वामी का भी उनके समर्थन में उतरना, यही जाहिर करता है कि एक आम आदमी के बजाय खास रसूखदार आदमी पर हाथ डालने पर कानून के रखवालों को कितनी मसक्कत करनी पड़ती है. इधर आशाराम के पुत्र नारायण साईं ने पीड़िता को मानसिक रोगी बताया है, हो सकता है, उसे मानसिक रोगी साबित भी कर दिया जाय….. आशाराम रसूखदार तो हैं ही, पैसे की भी कोई कमी नहीं… नामी गिरामी वकील भी उन्हें बचाने में लगे हैं. अगर गिरफ्तार हो भी गए तो क्या, वे वहां भी प्रवचन देने लगेंगे. जाहिर है, उन्हें किसी तरह की शारीरिक कष्ट पहुँचाने की हिम्मत, कोई भी नहीं कर सकता, पर उनकी इधर हाल के दिनों में जो बदनामी हुई है, उससे उन्हें कौन बचाएगा … यह भारत देश ही है, जहाँ ऐसे बदनाम लोगों को भी सर आँखों पर बिठाकर रखा जाता है.
निर्मल बाबा की भी खूब बदनामी हुई थी, उन्हें कुछ पेशेवर संतों का ही विरोध झेलना पड़ा था. फिर भी उनका केस अलग किस्म का था. कुछ दिन वे भूमिगत रहे फिर वे आगये अपने समागम में लोग चाव से उन्हें देख रहे हैं मिल रहे हैं औए अपनी जेब ढीली कर रहे हैं.
इनलोगों के अलावा और भी तथाकथित स्वामी नित्यानान्द, भीमा नन्द आदि अनेक नाम हैं जो कुकृत्यों में शामिल रहे हैं.
हमारे यहाँ लचर कानून है और इसीका नाजायज फायदा रसूखदार लोग उठा लेते हैं और अंध श्रद्धा में डूबे लोग गरीबों या जरूरतमंद लोगों का भला करने के बजाय इन लोगों का भला कर जाते हैं. इससे आम आदमी को कौन बचाएगा… पहल तो खुद को करना होगा.
भाजपा शायद यहाँ भी अपना हिन्दू वोट देख रही है ..पर ऐसे ही कदम भाजपा के लिए नकारात्मक रूप भी ले सकते हैं उधर पीड़िता की माँ अन्न को त्याग कर सरकार से सख्त कदम उठाने की मांग कर रही है .. उसके साथ शायद कोई रसूखदार नहीं हैं इसलिए उन्हें धमकी भी मिल रही है … अगर वह अभी तक बची है तो मीडिया के बदौलत … जबकि ख़बरें यह भी है कि उन्हें केस वापस लेने के लिए प्रलोभन और धमकी दोनों मिल रहे हैं.
इधर ३० अगस्त को १२ बजे रात्रि को उनकी पेशी की अवधि समाप्त होने के बाद जोधपुर पुलिस उन्हें भोपाल से इंदौर तक तलाश कर रही है और लुक्का-छिप्पी का खेल चल रहा है.सवाल यह है कि इंदौर पुलिस या मध्य प्रदेश राज्य की भाजपा सरकार उन्हें बचा रही है.
और ३१ अगस्त की शाम पौने पांच बजे आशाराम के पुत्र नारायण साईं का मीडिया के सामने संबोधन होता है कि आशाराम की तबीयत ठीक नहीं है. जोधपुर पुलिस का कोई ठिकाना नहीं. इंदौर पुलिस पूरी तरह आशाराम को संरक्षण दे रही है. मीडिया और आम लोग भ्रम की स्थिति में रहें. हमारे देश का कानून और शीर्षस्थ लोग ऐसे ही हैं और ऐसे ही रहेंगे. आप क्या कर लेंगे!
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घटनाक्रम तेजी से बदलता है …और ३१ अगस्त की रात को साढ़े बारह बजे आशाराम जोधपुर पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिए जाते हैं. उन्हें इंदौर से दिल्ली होते हुए जोधपुर लाया जाता है ,,, उनपर आरोप से सम्बंधित पुख्ता सबूत होने पर ही जोधपुर पुलिस ने अपनी रणनीति के तहत गिरफ्तार कर कोर्ट में भी पेश कर चुकी है और वे १५ दिन की न्यायायिक हिरासत में जेल भेज दिए जाते हैं ….इतना सब होने के बाद भे उनके सम्र्तःकों द्वारा जगह जगह प्रदर्शन आखिर क्या साबित करता है … अब उनपर जमीन हड़पने और जबरदस्ती कब्ज़ा करने का भी केस सामने आ रहा है…
क्या अब भी उनके समर्थक चेतेंगे ?
धार्मिक आस्था के नाम पर आम आदमी का दोहन और राजनीतिक संरक्षण में असीम संपत्ति का स्वामी बन सरकार को भी चुनौती देना … यह क्या आस्था के साथ खिलवाड़ नहीं है. अपने भगवान या अवतारी पुरुष घोषित करनेवाले क्या अब बताएँगे की उनकी सारी अलौकिक शक्तियां कहाँ चली गयी? बहुत सारी महिलाएं, जो अभी भी उनका समर्थन कर रही हैं, क्या उनका यह धर्म नहीं बनता और भी बालिकाओं/महिलाओं को उनके चंगुल में फंसने से बचाए. हमारे यहाँ जल्द ही लोग अंध श्रद्धा के शिकार हो जाते हैं. कही जमीन की खुदाई में कला पत्थर मिल गया तो संकर भगवन का अवतार… किसी पपीते ने अगर गणेश जी के जैसी आकृति ले ली तो गणेश अवतार आदि आदि … आखिर हम कबतक ऐसे अंध श्रद्धा के शिकार होते रहेंगे. ये धार्मिक या अध्यात्मिक गुरु/कथावाचक अपने शिष्यों को माया मोह त्यागने का सन्देश/ उपदेश/प्रवचन देते हैं और खुद माया मोह में बंधते चले जाते हैं. क्रोध पर विजय प्राप्त करने की बात कहने वाले खुद क्रोधित हो अनाप शनाप बकते चले जाते हैं. मानव मात्र से प्रेम करना और उनका भला करना कब तक सम्भव होगा?????
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आशाराम से सम्बंधित और भी जानकारियां जो अब आम हो चुकी हैं…..
उसने वह सात घंटे किस तरह गुज़ारे या उस वक़्त क्या क्या गुजरी उस पर यह सब बताया मगर वो न तो चर्चा का विषय है न ही में लिख सकता हूँ उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में आसाराम बापू द्वारा यौन शोषण वाली लड़की ने कहा है कि आसाराम की शिष्या पूजा बेन ने उनके घर आकर पत्नी के पैर पकड़कर कहा कि उनसे गलती हो गई है माफ कर दो।
उन्होंने कहा कि मुझसे भी मिलने का दबाव बनाया जा रहा है, लेकिन वह किसी भी कीमत पर दबाव में आने वाले नहीं, चाहे उनकी जान ही क्यों न चली जाए।
उन्होंने कहा कि आसाराम संत नहीं शैतान हैं। उनके रुद्रपुर गांव में स्थित आश्रम में अब सत्संग नहीं होने दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि अगर आसाराम को यह सब साजिश लग रही है तो वह सीबीआई जांच करा लें। जांच में यदि वह दोषी पाए जाते हैं तो उन्हें फांसी दे दी जाए, नहीं तो आसाराम को फांसी पर चढ़ा दिया जाए।
लड़की के पिता ने कहा कि पहले अंधविश्वास में उनकी आंखें बंद थीं, लेकिन अब इतना बड़ा धोखा खाकर आंखें खुल चुकी हैं।
जो लोग आसाराम का बचाव कर रहे हैं उन्हें देखकर एक सवाल उठता है कि क्या धर्म और आस्था मानवीय संवेदनाओं को भी समाप्त कर देती है?
नई दिल्ली। संत आसाराम बापू यूं तो धर्म गुरू कहलाते हैं लेकिन गाहे-बगाहे वो ऐसा बयान और काम करते रहते हैं जो उन्हें विवादों में ला खड़ा कर देता है। विवाद और बापू के बीच चोली दामन का रिश्ता है। यदि यह कहा जाए कि आसाराम बापू भारत के सर्वाधिक विवादित धार्मिक गुरू हैं तो गलत नहीं होगा।
भक्त को मारी लात
आसाराम के प्रवचन दौरान जब एक भक्त आर्शीवाद लेने के लिए आगे बढ़ा तो बापू ने उसे लात मारकर गिरा दिया। भक्त का नाम अमान सिंह बताया जा रहा है। इससे भक्त काफी आहत है। किसी संत के लिए इस तरह का व्यवहार निंदनीय है। अभी तक बापू की तरफ से इस पर कोई सफाई नहीं आयी है।
दहेज पर दिया विवादित बयान
आसाराम बापू ने कहा, जब कोई दहेज मामले में पकड़ा जाता है तो चैनलों में आता है लेकिन जब बरी हो जाता है तब नहीं आता, आजकल की कुछ मनचली महिलाएं ये समझ कर आती हैं कि मैं घर पर आउंगी और मौज करूंगी। अगर देवरानी का साथ या प्रतिकूल परिवार पड़ा तो वकील से सलाह करके केस कर देती हैं। सबको जेल में डाल दिया जाता है।
ताली दोनों हाथ से बचती है
आसाराम ने कहा कि गैंगरेप की घटना के लिए वे शराबी पांच-छह लोग भर दोषी नहीं थे। ताली दोनों हाथों से बजती है। छात्रा किसी को भाई बनाती, पैर पड़ती और बचने की कोशिश करती। इतने पर ही नहीं रुके आसाराम। आगे कहा कि बलात्कार के लिए यदि कड़ा कानून बनता है तो इसका दुरुपयोग भी हो सकता है। ऐसा हुआ तो मर्द के साथ गलत हो जाएगा, फिर रोएगी तो कोई मां बहन ही।
कुत्ता भौंकता है तो हाथी क्या नुकसान?
जब दिल्ली गैंगरेप पीड़िता पर विवादित बयान दिया और मीडिया में सुर्खीयां बनने लगी तो आसाराम ने कहा कि एक कुत्ता भौंकता है तो उसे देखकर और कुत्ते भौंकने लगते हैं। कुत्तों का भौंकना लगातार जारी रहता है। लेकिन, मूल बात यह है कि इससे हाथी का क्या नुकसान होता है।
(अब हाथी फंस गया है जाल में!)