श्री मोरारी बापू की रामकथा
(मानस सत्संग)
अपने विशिष्ट अंदाज में रामकथा का रसास्वादन करवाने
वाले और देश-विदेश के लाखों लोगों को जीवनदर्शन का सही मार्ग बताने वाले संतश्री
मोरारी बापू रामचरित मानस को सरल, सहज और सरस तरीके से प्रस्तुत करने वाले 72 वर्षीय बापू की सादगी का कोई सानी नहीं है. टीवी चैनलों पर अनेक संत-महात्माओं
के प्रवचन आते हैं, जिनमें बापू भी शामिल हैं, लेकिन जो लोग उनसे जुड़े हुए हैं, वे बापू की कथा का पता चलते ही कभी चैनल नहीं बदलते.
जहाँ पर कथा होती है, वहाँ लाखों की संख्या में श्रद्धालु मौजूद रहते हैं.
राम के जीवन के बारे में तो सब जानते हैं, लेकिन पता नहीं बापू की वाणी में ऐसा कौन-सा जादू है, जो श्रोताओं और दर्शकों को बाँधे रखता है. वे कथा के जरिये मानव जाति को सद्कार्यों के लिए प्रेरित करते हैं. सबसे बड़ी खासियत तो यह है कि उनकी कथा में न केवल बुजुर्ग महिला-पुरुष मौजूद रहते हैं, बल्कि युवा वर्ग भी काफी संख्या में मौजूद रहता है. वे न केवल भारत में, बल्कि विदेशों में भी मानव कल्याण के लिए रामकथा की भागीरथी को प्रवाहित कर रहे हैं.
25 सितम्बर, 1946 के दिन महुआ के समीप तलगारजा (सौराष्ट्र) में वैष्णव परिवार में मोरारी बापू का जन्म हुआ. पिता प्रभुदास हरियाणी के बजाय दादाजी त्रिभुवनदास का रामायण के प्रति असीम प्रेम था. तलगारजा से महुआ वे पैदल विद्या अर्जन के लिए जाया करते थे. 5 मील के इस रास्ते में उन्हें दादाजी द्वारा बताई गई रामायण की 5 चौपाइयाँ प्रतिदिन याद करना पड़ती थीं. इस नियम के चलते उन्हें धीरे-धीरे समूची रामायण कंठस्थ हो गई.
दादाजी को ही बापू ने अपना गुरु मान लिया था. 14 वर्ष की आयु में बापू ने पहली बार तलगारजा में चैत्रमास 1960 में एक महीने तक रामायण कथा का पाठ किया. विद्यार्थी जीवन में उनका मन अभ्यास में कम, रामकथा में अधिक रमने लगा था. बाद में वे महुआ के उसी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक बने, जहाँ वे बचपन में विद्यार्जन किया करते थे, लेकिन बाद में उन्हें अध्यापन कार्य छोड़ना पड़ा, क्योंकि रामायण पाठ में वे इतना डूब चुके थे कि समय मिलना कठिन था.
महुआ से निकलने के बाद 1966 में मोरारी बापू ने 9 दिन की रामकथा की शुरुआत नागबाई के पवित्र स्थल गाँठिया में रामफलकदासजी जैसे भिक्षा माँगने वाले संत के साथ की. उन दिनों बापू केवल सुबह कथा का पाठ करते थे और दोपहर में भोजन की व्यवस्था में स्वयं जुट जाते. ह्रदय के मर्म तक पहुँचा देने वाली रामकथा ने आज बापू को दूसरे संतों से विलग रखा हुआ है.
राम के जीवन के बारे में तो सब जानते हैं, लेकिन पता नहीं बापू की वाणी में ऐसा कौन-सा जादू है, जो श्रोताओं और दर्शकों को बाँधे रखता है. वे कथा के जरिये मानव जाति को सद्कार्यों के लिए प्रेरित करते हैं. सबसे बड़ी खासियत तो यह है कि उनकी कथा में न केवल बुजुर्ग महिला-पुरुष मौजूद रहते हैं, बल्कि युवा वर्ग भी काफी संख्या में मौजूद रहता है. वे न केवल भारत में, बल्कि विदेशों में भी मानव कल्याण के लिए रामकथा की भागीरथी को प्रवाहित कर रहे हैं.
25 सितम्बर, 1946 के दिन महुआ के समीप तलगारजा (सौराष्ट्र) में वैष्णव परिवार में मोरारी बापू का जन्म हुआ. पिता प्रभुदास हरियाणी के बजाय दादाजी त्रिभुवनदास का रामायण के प्रति असीम प्रेम था. तलगारजा से महुआ वे पैदल विद्या अर्जन के लिए जाया करते थे. 5 मील के इस रास्ते में उन्हें दादाजी द्वारा बताई गई रामायण की 5 चौपाइयाँ प्रतिदिन याद करना पड़ती थीं. इस नियम के चलते उन्हें धीरे-धीरे समूची रामायण कंठस्थ हो गई.
दादाजी को ही बापू ने अपना गुरु मान लिया था. 14 वर्ष की आयु में बापू ने पहली बार तलगारजा में चैत्रमास 1960 में एक महीने तक रामायण कथा का पाठ किया. विद्यार्थी जीवन में उनका मन अभ्यास में कम, रामकथा में अधिक रमने लगा था. बाद में वे महुआ के उसी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक बने, जहाँ वे बचपन में विद्यार्जन किया करते थे, लेकिन बाद में उन्हें अध्यापन कार्य छोड़ना पड़ा, क्योंकि रामायण पाठ में वे इतना डूब चुके थे कि समय मिलना कठिन था.
महुआ से निकलने के बाद 1966 में मोरारी बापू ने 9 दिन की रामकथा की शुरुआत नागबाई के पवित्र स्थल गाँठिया में रामफलकदासजी जैसे भिक्षा माँगने वाले संत के साथ की. उन दिनों बापू केवल सुबह कथा का पाठ करते थे और दोपहर में भोजन की व्यवस्था में स्वयं जुट जाते. ह्रदय के मर्म तक पहुँचा देने वाली रामकथा ने आज बापू को दूसरे संतों से विलग रखा हुआ है.
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मोरारी बापू का विवाह सावित्रीदेवी से हुआ. उनके चार
बच्चों में तीन बेटियाँ और एक बेटा है. पहले वे परिवार के पोषण के लिए रामकथा से
आने वाले दान को स्वीकार कर लेते थे, लेकिन जब यह धन बहुत अधिक आने लगा तो 1977 से प्रण ले लिया कि वे
कोई दान स्वीकार नहीं करेंगे. इसी प्रण को वे आज तक निभा रहे हैं. सर्वधर्म सम्मान की लीक
पर चलने वाले मोरारी बापू की इच्छा रहती है कि कथा के दौरान वे एक बार का भोजन
किसी दलित के घर जाकर करें और कई मौकों पर उन्होंने ऐसा किया भी है.
बापू ने जब महुआ में स्वयं की ओर से 1008 राम पारायण का पाठ कराया तो पूर्णाहुति के समय हरिजन भाइयों से आग्रह किया कि वे नि:संकोच मंच पर आएँ और रामायण की आरती उतारें. तब डेढ़ लाख लोगों की धर्मभीरु भीड़ में से कुछ लोगों ने इसका विरोध भी किया और कुछ संत तो चले भी गए, लेकिन बापू ने हरिजनों से ही आरती उतरवाई.
सौराष्ट्र के ही एक गाँव में बापू ने हरिजनों और मुसलमानों का मेहमान बनकर रामकथा का पाठ किया. वे यह बताना चाहते थे कि रामकथा के हकदार मुसलमान और हरिजन भी हैं. बापू की नौ दिवसीय रामकथा का उद्देश्य है- धर्म का उत्थान, उसके द्वारा समाज की उन्नति और भारत की गौरवशाली संस्कृति के प्रति लोगों के भीतर ज्योति जलाने की तीव्र इच्छा.
मोरारी बापू के कंधे पर रहने वाली 'काली कमली' (शॉल) के विषय में अनेकानेक धारणाएँ प्रचलित हैं. एक धारणा यह है कि काली कमली स्वयं हनुमानजी ने प्रकट होकर प्रदान की और कुछ लोगों का मानना है कि यह काली कमली उन्हें जूनागढ़ के किसी संत ने दी, लेकिन मोरारी बापू इन मतों के बारे में अपने विचार प्रकट करते हुए कहते हैं कि काली कमली के पीछे कोई रहस्य नहीं है और न ही कोई चमत्कार. यह शाल उनकी दादी के आशीर्वाद का प्रतीक है जिसमे वह इन्हें बचपन से ही लपेटकर रखती थी.
किसी भी धार्मिक और राजनीतिक विवादों से दूर रहने वाले मोरारी बापू को अंबानी परिवार में विशेष सम्मान दिया जाता है. स्व. धीरूभाई अंबानी ने जब जामनगर के पास खावड़ी नामक स्थान पर रिलायंस की फैक्टरी का शुभारंभ किया तो उस मौके पर मोरारी बापू की कथा का पाठ किया था. तब उन्होंने धीरूभाई से पूछा कि लोग इतनी दूर से यहाँ काम करने आएँगे तो उनके भोजन का क्या होगा? बापू की इच्छा थी कि अंबानी परिवार अपने कर्मचारियों को एक समय का भोजन दे और तभी से रिलायंस में एक वक्त का भोजन दिए जाने की शुरुआत हुई. यह परंपरा अब तक कायम है.
मोरारी बापू अपनी कथा में शे'रो-शायरी का भरपूर उपयोग करते हैं, ताकि उनकी बात आसानी से लोग समझ सकें. वे कभी भी अपने विचारों को नहीं थोपते और धरती पर मनुष्यता कायम रहे, इसका प्रयास करते रहते हैं.
बापू ने जब महुआ में स्वयं की ओर से 1008 राम पारायण का पाठ कराया तो पूर्णाहुति के समय हरिजन भाइयों से आग्रह किया कि वे नि:संकोच मंच पर आएँ और रामायण की आरती उतारें. तब डेढ़ लाख लोगों की धर्मभीरु भीड़ में से कुछ लोगों ने इसका विरोध भी किया और कुछ संत तो चले भी गए, लेकिन बापू ने हरिजनों से ही आरती उतरवाई.
सौराष्ट्र के ही एक गाँव में बापू ने हरिजनों और मुसलमानों का मेहमान बनकर रामकथा का पाठ किया. वे यह बताना चाहते थे कि रामकथा के हकदार मुसलमान और हरिजन भी हैं. बापू की नौ दिवसीय रामकथा का उद्देश्य है- धर्म का उत्थान, उसके द्वारा समाज की उन्नति और भारत की गौरवशाली संस्कृति के प्रति लोगों के भीतर ज्योति जलाने की तीव्र इच्छा.
मोरारी बापू के कंधे पर रहने वाली 'काली कमली' (शॉल) के विषय में अनेकानेक धारणाएँ प्रचलित हैं. एक धारणा यह है कि काली कमली स्वयं हनुमानजी ने प्रकट होकर प्रदान की और कुछ लोगों का मानना है कि यह काली कमली उन्हें जूनागढ़ के किसी संत ने दी, लेकिन मोरारी बापू इन मतों के बारे में अपने विचार प्रकट करते हुए कहते हैं कि काली कमली के पीछे कोई रहस्य नहीं है और न ही कोई चमत्कार. यह शाल उनकी दादी के आशीर्वाद का प्रतीक है जिसमे वह इन्हें बचपन से ही लपेटकर रखती थी.
किसी भी धार्मिक और राजनीतिक विवादों से दूर रहने वाले मोरारी बापू को अंबानी परिवार में विशेष सम्मान दिया जाता है. स्व. धीरूभाई अंबानी ने जब जामनगर के पास खावड़ी नामक स्थान पर रिलायंस की फैक्टरी का शुभारंभ किया तो उस मौके पर मोरारी बापू की कथा का पाठ किया था. तब उन्होंने धीरूभाई से पूछा कि लोग इतनी दूर से यहाँ काम करने आएँगे तो उनके भोजन का क्या होगा? बापू की इच्छा थी कि अंबानी परिवार अपने कर्मचारियों को एक समय का भोजन दे और तभी से रिलायंस में एक वक्त का भोजन दिए जाने की शुरुआत हुई. यह परंपरा अब तक कायम है.
मोरारी बापू अपनी कथा में शे'रो-शायरी का भरपूर उपयोग करते हैं, ताकि उनकी बात आसानी से लोग समझ सकें. वे कभी भी अपने विचारों को नहीं थोपते और धरती पर मनुष्यता कायम रहे, इसका प्रयास करते रहते हैं.
इन दिनों मोरारी बापू की कथा जमशेदपुर के गोपाल मैदान
में चल रही है. ५ मई से शुरू होकर यह कथा १३ मई को समाप्त होगी. अभी अभी जमशेदपुर में मानस सतसंग कार्यक्रम चल रहा है. पहला दिन मैं भी
सपरिवार सतसंग में उपस्थित हुआ और सतसंग का आनंद लिया. प्रारम्भ मंगलाचरण और
हनुमान चालीसा पाठ से होता है. मोरार जी बापू के ब्यासपीठ के पीछे हनुमान जी का
चित्र लगा होता है जिसमे शिवलिंग भी दृष्टिगोचर होता है. आखिर हनुमान जी शंकर-सुवन
भी तो कहलाते हैं, क्योंकि वे शिवजी के अंशावतार है.
तुलसी दास ने मानस में ही सतसंग की महिमा का गुणगान
किया है.
सो जानब सतसंग प्रभाऊ, लोकहुँ वेद न आन उपाऊ
बिनु सतसंग विवेक न होई, रामकृपा बिनु सुलभ न सोई
बापू के अनुसार सत्य के साथ संगत को ही सतसंग कहते
हैं. संत के साथ को सतसंग कहते हैं, आत्मा के साथ को सतसंग कहते हैं, परमात्मा के
साथ को सतसंग कहते हैं. किसी भी दो व्यक्ति के बीच सद्विचार के साथ संवाद को भी
सतसंग कहते हैं. यानी सतसंग को व्यापक रूप में परिभाषित किया जा सकता है. इसे सीमा
में बांधना ठीक नहीं है.
मोरारजी बापू विभिन्न प्रकार के आडम्बर भरे कर्मकांड
को भी नकारते हैं. कट्टरता को नकारते हैं, सर्व-धर्म-समभाव की भी बात करते हैं. वे
अल्लाह की भी बात करते हैं, जीसस क्राइस्ट की भी बात करते हैं, बुद्ध और
शंकराचार्य की भी बात करते हैं. बापू के अनुसार भ्रम पैदा करने वाला संत नहीं हो
सकता, भ्रम को दूर करनेवाला संत होता है. वे राम और कृष्ण के साथ भी सम्बन्ध
स्थापित करते हैं. उनके अनुसार राम से जीवन मिलता है तो कृष्ण से जीवन का आनन्द. राम
सत्य हैं तो कृष्ण प्रेम और बुद्ध करुणा के प्रतीक हैं. मति, कीर्ति, गति, ऐश्वर्य
और भलाई ये पांच चीजें सतसंग से ही मिलती है. उन्होंने आज के सन्दर्भ में कहा कि
बुद्धि नष्ट नहीं हु है बल्कि प्रगति के साथ भ्रष्ट हुई है. ईर्ष्या द्वेष
भ्रष्टता का संकेत है. उन्होंने यह भी कहा कि देश छोड़ना आसान है पर द्वेष छोड़ना
कठिन है.
प्रारम्भ में ही उन्होंने मानस के सातो कांडों में
सतसंग और कुसंग से जोड़ दिया. यह मानस भी सतसंग और कुसंग का अद्भुत मिश्रण है. बापू
के अनुसार राम कथा कहने और हनुमान जी की प्रार्थना करने में वह दशा और दिशा नहीं
देखते. हर समय भगवान का समय है और हर समय प्रार्थना की जा सकती है. भजन किया जा
सकता है. मानस में तो तुलसी ने भी कहा है - कलियुग केवल नाम अधारा, जो सुमिरहि
ते उतरहिं पारा.
बापू अपने आप को मनुवादी नहीं मनवादी कहते हैं. यानी अपने मन की सुनो और करो. क्योंकि तोरा मन दर्पण कहलाये. मन कोरा
कागज है. दर्पण के समान है. यह परम पवित्र है.
उन्होंने मानस को गंगा और गाय से भी जोड़ा है. यह जहाँ
भी है दिव्य ज्योति की तरह राह दिखती रहेगी.
जैसे शरीर के हर हिस्से का अपना अलग अलग महत्व है उसी
तरह समाज के हर वर्ग का भी अपना अलग अलग महत्व है. किसी को छोटा या बहुत बड़ा मत
समझो. बिना पैर के हम खड़े नहीं रह सकते और बिना मन मस्तिष्क के सही निर्णय नहीं ले
सकते. भुजाएं काम के साथ रक्षा भी करती है तो पेट अपने साथ सब अंगों का ख्याल रखता
है उसे पालन पोषण करता है. बापू जय श्रीराम नहीं जय सियाराम कहते हैं और अब मोदी
जी ने भी जय सियाराम कहना शुरू कर दिया है, जनकपुर में जाकर. बापू ने अपने सतसंग
के क्रम में मोदी जी के श्री राम और हिन्दू धर्म में आस्था की चर्चा भी की और
जनकपुर से अयोध्या बस चलाने की योजना को भी सराहा. सभी को सतसंग का सन्देश और
सद्मार्ग का सन्देश देकर बापू जमशेदपुर से विदा हुए. हम राह या सद्मार्ग पर चलाने का प्रयास तो कर ही
सकते हैं. बाधाएँ आती हैं उनको सामना करने में भी भगवान को समरण करते रहने से
आत्मबल में बृद्धि होती है. संयोग देखिये कि पहले दिन मंगलाचरण के दिन ही थोड़ी
वर्षा हुई बाकी दिन कथा के दौरान मौसम साफ़ रहा. गर्मी रही लेकिन सहनीय थी. तूफ़ान
का कोई ख़ास असर इस बीच जमशेदपुर ने नहीं हुआ. टाटा स्टील के ह्रदय स्थल बिष्टुपुर
के गोपाल मैदान में यह कार्यक्रम होने के कारन बिजली पानी और यातायात भी सुचारू
ढंग से चला. इसी बीच रविवार(१३.०५.१८) को गोपाल मैदान के पास ही बिष्टुपुर मुख्य
मार्ग पर ‘जाम ऐट स्ट्रीट’ का आयोजन हुआ जिसमे सभी वर्ग के लोगों ने आनंद उठाया. शाम
को जोर की आंधी आई जिससे गैर कंपनी इलाके में विद्युत् आपूर्ति में बाधा उत्पन्न
हुई, पर कंपनी कमांड एरिया में सब कुछ सामान्य ही रहा. आप अच्छे उद्देश्य और
सकारात्मक विचार के साथ संकल्प बद्ध रूप से हरिनाम के सहारे आगे बढ़ सकते हैं. जनता
भी जनार्दन का रूप होती है, अत: जनसमर्थन अनिवार्य है. बापू ने अंतिम दिन मातृ
दिवस पर भी सभी माताओं का आभार व्यक्त किया और माता को भी भगवान का दूसरा रूप
बताया. माँ और बापू के प्रेम के परिणाम स्वरुप ही हम सब हैं. गुरु ज्ञान देते हैं
और हम अपने साथ परिवार और समाज का निर्माण और पालन पोषण भी करते हैं. व्यक्ति में
समष्टि समाहित है और समष्टि के एक अंश मात्र हैं हम, जैसे परमात्मा का ही अंश
आत्मा है. गोस्वामी जी ने भी कहा है ईश्वर अंश जीव अविनाशी. जय सियाराम!
– जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर
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