Tuesday, 27 March 2018

चैत्र मास, नववर्ष, वासंती पूजा और रामनवमी


फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा के दिन होलिका दहन के साथ फाल्गुन मास की समाप्ति हो जाती है और चैत्र कृष्ण प्रतिपदा के दिन होली का त्योहार धूम धाम से मनाया जाता है. इस दिन हम सभी गिले-शिकवे भूलकर एक दूसरे के साथ रंग गुलाल खेलते हैं और आनंद मानते हैं. हाँ शराब और भांग के नशे में या धन या पराक्रम के नशे में कुछ अनचाही घटनाएँ घट ही आती है जिसके लिए पछताने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचता. सौहार्द्र को बनाये रखना हम सबकी जिम्मेवारी है. सरकारें और प्रशासन यथासंभव प्रयास में रहती है कि शांतिपूर्ण माहौल बना रहे, पर कुछ छुटभैये नेता या आवारा किस्म के लोग हर समाज में होते हैं जो ख़बरों में आने के लिए भी कुछ अप्रत्याशित कर गुजरते हैं.
अब आते हैं चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा यानी प्रथम दिन विक्रम संवत, हिन्दू संवत या भारतीय संवत जिसके बारे में रामधारी सिंह दिनकर ने भी लिखा है-
ये नव वर्ष(यानी अग्रेजी कैलेंडर का जनवरी से शुरू होने वाला) हमें स्वीकार नहीं
है अपना ये त्यौहार नहीं है अपनी ये तो रीत नहीं है अपना ये व्यवहार नहीं
धरा ठिठुरती है सर्दी से आकाश में कोहरा गहरा है
बाग़ बाज़ारों की सरहद पर सर्द हवा का पहरा है
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ये धुंध कुहासा छंटने दो, रातों का राज्य सिमटने दो
प्रकृति का रूप निखरने दो, फागुन का रंग बिखरने दो
प्रकृति दुल्हन का रूप धार जब स्नेह सुधा बरसायेगी
शस्य श्यामला धरती माता घर -घर खुशहाली लायेगी
तब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि नव वर्ष मनाया जायेगा
आर्यावर्त की पुण्य भूमि पर जय गान सुनाया जायेगा
युक्ति प्रमाण से स्वयंसिद्ध नव वर्ष हमारा हो प्रसिद्ध
आर्यों की कीर्ति सदा सदा नव वर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा
इस वर्ष विक्रम संवत २०७५, १८ मार्च से प्रारंभ हुआ. १८ मार्च के एक दिन पहले ही तमाम भारतीय और हिंदूवादी संस्थाओं के साथ वर्तमान सरकार ने भी घोषणा कर दी गयी कि हमलोग हिन्दू नववर्ष को धूम धाम से मनाएंगे. बाकी जगह पर तो शांतिपूर्ण ढंग से दोनों दिन जुलूश भगवा और तिरंगा ध्वज के साथ संपन्न हो गया सिर्फ भागलपुर को छोड़कर.
भाजपा, आरएसएस और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं की रैली पर भागलपुर शहर में दंगा भड़काने का आरोप लगा. इस रैली का नेतृत्व केंद्रीय राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे के बेटे अरिजीत शाश्वत कर रहे थे। इस रैली में शामिल लोग कथित तौर पर उकसाने वाले नारे लगा रहे थे। इस रैली का आयोजन हिंदू नववर्ष के उपलक्ष्य में नववर्ष जागरण समिति द्वारा किया गया था। यह रैली 15 किलोमीटर लंबे रास्ते से होकर गुजरी जिसमें आधे दर्जन मुस्लिम बहुल इलाके शामिल हैं। लालमाटिया आउटपोस्ट के इंचार्ज संजीव कुमार अनुसार रैली में शामिल लोगों द्वारा उकसाने वाले नारे लगाए गए, जिससे सांप्रदायिक तनाव बढ़ा. बतौर नीतीश कुमार दंगा बर्दाश्त नहीं किया जायेगा पर जिनके साथ वे हैं उनको वे कैसे रोक पाएंगे? रामनवमी के झंडा जुलूश में भी वे ही लोग शामिल हैं इनका उद्देश्य ही दंगा फैलाना या अशांति पैदा करना है. धर्म के नाम पर राजनीति की रोटी सेंकी जा रही है. देश के कई शहर अशांत हो चुके हैं. सौहार्द्र के उद्देश्य से निकाली गई यात्रायें अनियंत्रित होने में देर नहीं लगती, जिसे नियंत्रित करने में प्रशासन के पसीने छूट जाते हैं. राजनीतिक लोग दूर से देखते हैं, मुस्कुराते हैं और कुछ कार्रवाई करके खानापूर्ति ही करते हैं.
अब आते है २३ मार्च शहीद दिवस पर इस दिन भी पूरे देश में शहीद दिवस पूरी धूम धाम से मनाया गया और इस दिन शहीद होने वाले भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव जैसे नौजवानों ने हंसते हँसते फांसी को गले लगा लिया था. कहने की जरूरत नही कि ये सभी अंग्रेजों के खिलाफ लड़नेवाले बहादुर नौजवान थे. इस दिन तो मैंने महसूस किया कि हिन्दुओं के साथ मुस्लिमों ने भी इस शहीद दिवश को जोश-ओ-ख़रोश के साथ मनाया और तिरंगा यात्रा के साथ इन शहीदों को श्रद्धांजलि दी.
अब आइए रामनवमी और वासंती दुर्गापूजा पर थोड़ी चर्चा कर लेते हैं. चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही नवरात्रि शुरू हो जाती है और काफी लोग नौ दिन तक फलाहार पर ही गुजारा करते हैं. नवमी के दिन कन्यापूजन के साथ नवरात्र संपन्न माना जाता है. बासन्ती दुर्गापूजा भी इन्ही दिनों मनाया जाता है और दशमी के दिन माँ दुर्गा की प्रतिमा को विसर्जन किया जाता है. रामनवमी को ही भगवान राम का जन्म हुआ था. तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है.
नौमी तिथि मधुमास पुनीता, शुक्ल पक्ष अभिजित हरिप्रीता   
मध्य दिवस अति धूप न घामा, पावन काल लोक विश्रामा
इस दिन भगवान राम का जन्म दिन तो हम मनाते ही हैं, एक और मान्यता है कि श्री हनुमान जी भगवान् राम के सबसे बड़े भक्त हैं और तुलसीदास को भी भगवान राम से मिलानेवाले हनुमान जी ही थे. सुग्रीव, बाली, अंगद और विभीषण को भी भगवान राम से मिलानेवाले हनुमान जी ही थे. यहाँ तक कि रावण द्वारा अपहरित माँ सीता को भी पता लगनेवाले हनुमान जी ही थे. इसलिए लोकगायक लखबीर सिंह लक्खा के शब्दों में “पार न लगोगे श्री राम के बिना, राम जी मिले न हनुमान के बिना” इसीलिए राम भक्त भी हनुमान जी की आराधना में ही आस्था व्यक्त करते हैं और हनुमान जी के ध्वज को स्थापित करते हैं, उसे लेकर बड़े-बड़े जुलूस निकालते हैं तथा दशमी के दिन उस ध्वज को पवित्र नदियों, सरोवर के जल में स्नान कराकर ठंढा करते हैं.
यह झाड़खंड वासियों और जमशेदपुर वासियों के लिए खुशी और उल्लास का प्रदर्शन भी है. रामनवमी पर्व को जमशेदपुर में रायट पर्व के रूप में भी परिभाषित किया जाता रहा है, क्योंकि १९७९ में रामनवमी के दिन ही झंडा जुलूश के दौरान भीषण साम्प्रदायिक दंगा हो गया था. तब से हर साल कुछ न कुछ अनिष्ट होने की संभावना बनी रहती है. शांति-पसंद लोग कभी दंगा नहीं चाहते, नहीं प्रशासन दंगा का धब्बा देखना चाहती है. पर कुछ शरारती तत्व हर समुदाय में होते हैं, जिन्हें अपनी रोटी सेंकनी होती है, राजनीति चमकानी होती है.
रामनवमी के दिन मंदिरों में, पूजा स्थलों में भगवान् राम का जन्मोत्सव मनाया जाता है. बिहार और झाड़खंड में श्रीराम के परम भक्त श्री हनुमान जी के ध्वज की स्थापना कर उनका पूजन-वंदन किया जाता है. माँ दुर्गा और और बजरंगबली दोनों शक्ति के प्रतीक हैं, इसलिए उनके भक्त अपनी शक्ति का प्रदर्शन, आस्था और विश्वास के साथ करते हैं. जमशेदपुर में सन १९२२ ई. से ही कई अखाड़ों के अंतर्गत महावीर हनुमान जी का ध्वज का आरोहन करते आ रहे हैं और उनके ध्वज के साथ जुलूस में एक साथ चलते हुए, अपनी शक्ति का प्रदर्शन लाठी, भाले, तीर, तलवार, और अब चाकू के साथ आधुनिक हथियार के साथ विभिन्न करतब दिखलाते हुए करते हैं. इनके करतब को देखने के लिए श्रद्धालु सड़कों के किनारे जमा होते हैं.
१९७९ में इसी जुलूस को एक खास सम्प्रदाय के आराधना स्थल के सामने काफी देर तक प्रदर्शन किया गया. सभी भक्त अपने करतब दिखलाने में इतने मशगूल हो गए कि उन्हें समय का पता ही न चला और एकाध पत्थर के टुकड़े भीड़ पर आ गिरे. दंगा के लिए इससे ज्यादा और क्या चाहिए. उस साल के बाद से इस जुलूस के दिन में प्रशासन की तरफ से परिवर्तन कर दिया गया. अब झंडा का जुलूस नवमी के बजाय दशमी को निकलने लगा. उस दिन शुबह से ही चाक चौबंद ब्यवस्था होने लगी. भीड़ को नियंत्रण करने के लिए जगह जगह बैरिकेड लगाये जाने लगे. वाहनों की नो इंट्री भी लागू हो गयी. सभी ब्यावसायिक संस्थान को बंद कर आकस्मिक सेवाओं को चालू रक्खा गया. अपराधियों को धड़-पकड़ के साथ दोनों समुदायों के बीच शांति समितियां बनाकर, विशिष्ट जनों को बुलाकर विशेष हिदायतें और निर्देश दिए गए ताकि माहौल शांति और सद्भावपूर्ण बना रहे.
परिणाम स्वरुप अब तो तमाम स्वयं सेवी संस्थाओं के साथ दूसरे समुदाय के लोग भी इस भयंकर गर्मी में शरबत पानी लेकर खड़े दिखते हैं और भक्त जनों की प्यास को शांत करने का हर संभव प्रयास करते हैं. इस साल लगभग २१० छोटे बड़े झंडों के साथ अखाड़ों का प्रदर्शन हुआ. विभिन्न अखाड़ा समितियों ने भव्य शोभायात्राएं निकालीं. शक्ति, सामंजस्य और सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में धवज को निश्चित मार्ग से घुमाते हुए पास की नदी स्वर्णरेखा या खरकाई या किसी पास के सरोवर में विसर्जित कर दिया गया. प्रशासन की चुस्त ब्यवस्था ने कुछ भी अनिष्ट होने से बचा लिया. प्रशासन की चुस्ती से सबकुछ शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न हो गया. आखिर यह मुख्य मंत्री रघुबर दास का शहर है और टाटा स्टील का प्रशासन भी हर घटना से निबटने को तैयार रहता है. उम्मीद की जानी चाहिए कि जमशेदपुर में सभी कार्यक्रम इसी तरह शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न हो जायेंगे और अमन-चैन के साथ भाईचारा भी बना रहेगा. जय बजरंगबली! जय श्रीराम! जयहिंद!
-    - जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.

Sunday, 18 March 2018

राजनीति के बदलते स्वरुप


राजनीतिक धारणाएं किस तेज़ी से बदलती हैं- इसका प्रमाण इसी मार्च महीने ने दिया. जब त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड जैसे छोटे-छोटे राज्यों के चुनावी नतीजे आए तो बीजेपी की अजेयता का मिथक जैसे और दृढ़ हो गया. तब भारत के नक्शे पर भगवा रंग में रंगे 21 राज्यों की तस्वीर बता रही थी कि बीजेपी ही इस देश का इकलौता विकल्प है.
लेकिन महज दो हफ़्ते के भीतर पटकथा जैसे बदल गई है. पूर्वोत्तर से उत्तर प्रदेश पहुंची कहानी ने गोरखपुर और फूलपुर के नतीजों के साथ यह संदेश दिया कि बीजेपी अजेय नहीं है, उसे पराजित किया जा सकता है. इसके बाद विरोध और बगावत की आंधी दक्षिण भारत से उठी. आंध्र प्रदेश के दोनों दलों में जैसे होड़ लगी रही, आंध्र की उपेक्षा के सवाल पर केंद्र के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव कौन पहले लाता है. सवा तीन सौ सीटों वाले एनडीए के ख़िलाफ़ ऐसे किसी अविश्वास प्रस्ताव की कल्पना राजनीतिक मज़ाक लगती, इसके पहले उसे समर्थन मिलना शुरू हो गया. अब यह अविश्वास प्रस्ताव एक सच्चाई है जिसके नोटिस का सामना फिलहाल लोकसभा अध्यक्ष को करना पड़ रहा है.
इसमें शक नहीं कि ऐसा कोई अविश्वास प्रस्ताव टिकेगा नहीं. आंध्र के बाद महाराष्ट्र में शिवसेना भी भले इस पर विचार करने की बात कर रही हो, लेकिन बीजेपी फिलहाल इतनी मज़बूत है कि कोई बाहरी झटका उसे हिला नहीं सकता. लेकिन ऐसा अविश्वास प्रस्ताव आया और उसमें एनडीए के कुछ घटक इधर-उधर हो गए तो उसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव बहुत तीखा पड़ेगा. फिलहाल सवा तीन सौ का दिख रहा एनडीए सिर्फ तेलुगू देशम और शिवसेना के अलग होने से तीन सौ के नीचे चला आएगा. फिर भी वह 272 की जादुई संख्या से ऊपर रहेगा और यह संख्या अकेले बीजेपी के पास है इसलिए लोकसभा में उसके पांव नहीं कांपने वाले. लेकिन मार्च के ही दोनों उदाहरण बताते हैं कि राजनीति में धारणाओं का बहुत मतलब होता है. नरेंद्र मोदी के फेंकू या राहुल गांधी के पप्पू होने की धारणाएं भले हक़ीक़त से कोसों दूर हों- लेकिन उनकी राजनीतिक अहमियत है, यह जानते हुए ही सोशल मीडिया पर चुटकुले बनाए और बांटे जाते हैं. चाहे तो याद कर सकते हैं कि हाल के दिनों में पप्पू को लेकर चुटकुले कम हुए हैं, फेंकू को लेकर अगर बढ़े नहीं हैं तो पकौड़ों को लेकर ज़रूर पैदा हो गए हैं.
दरअसल धारणाओं का यह खेल जहां फिलहाल तीसरे मोर्चे को बहुत ताकतवर बना रहा है, वहीं उसके सामने चुनौती भी पेश कर रहा है. योगी आदित्यनाथ ने बिल्कुल ठीक कहा कि बीजेपी सही समय पर गिरी है, उठने का मौका उसके पास है. इस तरह उठने में साल नहीं, महीने भी नहीं, हफ़्ते भर लगा करते हैं. अण्णा आंदोलन से पहले कांग्रेस अजेय लग रही थी और बीजेपी अपने गिने-चुने क्षत्रपों के सहारे जीएसटी विरोध की राजनीति कर रही थी. लेकिन  उस एक महीने ने हवा कुछ ऐसी बदली कि कांग्रेस भ्रष्टाचार का पुंज हो गई और नरेंद्र मोदी विकास पुरुष बन गए. उसके बाद चली आंधी में सबके सब उड़ गए.
आंधियों में जितनी ताकत होती है, उतना स्थायित्व नहीं होता. वे ख़त्म हो जाती हैं, लौट जाती हैं, मिट जाती हैं. इसलिए राजनीतिक आंधियों पर बहुत भरोसा नहीं करना चाहिए. इसलिए फूलपुर और गोरखपुर के नतीजे जो हवा पैदा कर रहे हैं, उन्हें आंधी की तरह पेश करने में लगे तीसरे मोर्चे को पहले अपने पांव ज़मीन पर मज़बूती से जमाने होंगे. क्योंकि तीसरे मोर्चे में जितनी संभावनाएं हैं, उससे ज़्यादा संकट हैं. बंगाल में लेफ्ट और ममता साथ नहीं आ सकते, यूपी में अखिलेश-माया कब तक साथ रहेंगे, कहा नहीं जा सकता, आंध्र में ही वाईएसआर कांग्रेस और टीडीपी अलग-अलग ही रहेंगे और महाराष्ट्र में शिवसेना बीजेपी से चाहे जितनी नाराज़ हो, वह न तीसरे मोर्चे का हिस्सा बनेगी.
तीसरे मोर्चे का एक संकट कांग्रेस भी है. यह सवाल अपने-आप में अहम है कि क्या कांग्रेस के बिना तीसरा मोर्चा बनेगा? और अगर कांग्रेस ही रहेगी तो वह तीसरा मोर्चा क्यों होगा? फिर वह यूपीए होगा. अतीत में 4 ऐसे अवसर आए हैं जब कांग्रेस ने अपने से अलग मोर्चे की सरकारों को समर्थन दिया है. 1979 में चरण सिंह को इंदिरा गांधी ने समर्थन देकर जनता पार्टी को हमेशा के लिए अप्रासंगिक बना दिया था और 1990 में चंद्रशेखर को राजीव गांधी ने समर्थन देकर राष्ट्रीय मोर्चा सरकार का अंत लिख दिया था. 1996 में देवगौड़ा और गुजराल सरकारें कांग्रेस के बाहरी समर्थन से चलीं, लेकिन दोनों बार वे उसी की वजह से गिरीं. पहली बार कांग्रेस के दबाव में संयुक्त मोर्चे ने देवगौड़ा को हटाया और दूसरी बार डीएमके को बाहर करने की कांग्रेस की मांग नामंज़ूर कर सरकार गंवाई. यानी तीसरा मोर्चा कांग्रेस के भरोसे नहीं रह सकता. लेकिन अब की हालत में क्या कांग्रेस ख़ुद के भरोसे चल सकती हैउसके पास 54 लोकसभा सीटें हैं. फूलपुर और गोरखपुर में उसे इतने कम वोट मिले कि एनडीए का विकल्प बनने का उसका दावा हास्यास्पद लगता है. लेकिन कांग्रेस नहीं तो कौन? यह सवाल तीसरे मोर्चे के लिए अहम है. संकट यह है कि तीसरे मोर्चे के सारे क्षत्रप अधिकतम 30 से 35 सीटें लाने की क्षमता रखते हैं. यूपी की 80 सीटें जब तक सपा या बसपा के लिए इकतरफ़ा नतीजे न पैदा करें तब तक माया या मुलायम अपनी निष्कंटक दावेदारी पेश नहीं कर सकते. यही बात ममता या आरजेडी के बारे में कही जा सकती है. फिर मौजूदा हालात में यह मान लेना कि बीजेपी यूपी की 71 सीटों से बहुत नीचे  चली जाएगी- एक ख़ामखयाली से ज़्यादा कुछ नहीं लगता.
यानी फिलहाल बीजेपी सुरक्षित है. उसकी मुश्किल फिर भी दोहरे मोर्चे पर है. अपने राज्यों में वह अधिकतम सीटें जीत चुकी है. यहां से उसका उतार ही संभव है. जैसे ही यह उतार आएगा. उसका अपने दम पर हासिल बहुमत ख़तरे में पड़ जाएगा. 274 सीटों से अगर वह ढाई सौ से नीचे चली आई तो फिर अपने सहयोगियों पर उसकी निर्भरता अपरिहार्य हो जाएगी. ऐसे में शिवसेना या जेडीयू उसे आज के मुकाबले कहीं ज़्यादा आंख दिखाएंगे. दूसरी बात यह कि बिहार विधानसभा चुनावों में या फूलपुर-गोरखपुर के उपचुनावों में सामाजिक समीकरणों की यह राजनीति सिर्फ धारणा नहीं, हक़ीक़त भी है जिसने बीजेपी को ध्वस्त कर दिया. वाकई अगर पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक एक साथ आ जाएं तो नरेंद्र मोदी की अजेयता का मिथक फिर बुरी तरह टूटेगा. अतीत में हमने बहुत मज़बूत सरकारों को एक ही दौर में बिखरते देखा है. 1977 में बनी जनता पार्टी 1980 में वापसी नहीं कर पाएगी, यह किसी ने कल्पना नहीं की थी. इसी तरह 1984 में 400 से ज़्यादा सीटें जीतने वाले राजीव गांधी 1989 में बहुमत तक नहीं ला पाएंगे, यह नहीं सोचा जा सकता था. यह बदलाव फिर राजनीति में नहीं हो सकता, इसकी गारंटी कौन दे सकता है?
इसी तरह कांग्रेस की मौत की घोषणा भारतीय राजनीति में एकाधिक बार की जा चुकी है. लेकिन हर बार जैसे वह अपनी राख से जी उठती है. 1967 में पहली बार जब नौ राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारें बनीं तो सबने कहा, अब कांग्रेस ख़त्म हो गई. 1969 में कांग्रेस के विभाजन ने इस अटकल को और बल दिया. 1977 में इंदिरा गांधी की हार के बाद भी यही बात कही गई कि कांग्रेस अब नहीं लौटेगी. नब्बे के दशक में जब गठजोड़ की राजनीति का दौर चला तब भी कहा गया कि अब कांग्रेस ख़त्म हो गई है. लेकिन कांग्रेस लौटी, उसने 10 साल राज किया और देश को उसने कुछ सबसे महत्वपूर्ण कानून दिए.
इस लिहाज से 2019 का मोर्चा अभी खुला हुआ है. गोरखपुर और फूलपुर ने बीजेपी और कांग्रेस दोनों को आईना दिखा दिया है. उसने तीसरे मोर्चे को भी जीत का रास्ता बता दिया है. उसने यह भी बता दिया है कि धारणा और हकीकत के बीच का रिश्ता बड़ा पेचीदा है. हक़ीक़त के साथ धारणा भी बदलती है और धारणा के साथ हक़ीक़त भी.
1919
की बाज़ी कौन जीतेगा यह अभी से भविष्यवाणी करना मुश्किल है. हाँ इतना ही कहा जा सकता है कि बीजेपी ख़ुद को अपराजेय नहीं मान सकती और न ही बीजेपी विरोधी यह मान सकते हैं कि वे बीजेपी को हरा ही देंगे. लेकिन इतना साफ हो गया है कि अंततः यह विशाल देश मोर्चों की राजनीति से ही चलेगा जिसमें अलग-अलग क्षेत्रों-आकांक्षाओं और समुदायों का प्रतिनिधित्व होगा.
मेरा मानना है कि प्रधान मंत्री और उनके सभी मंत्री और प्रवक्तागण धरातल पर उतरें और सरकार द्वारा की गयी घोषणाओं का क्रियावयन की सत्यता से भी वाकिफ हों. रेलवे की सेवाओं में कितना सुधार हुआ है? नौजवानों और किसानों के हक़ में कितने काम हुए हैं. बेरोजगारी, भुखमरी, ऋणग्रस्तता के कारण कितने लोग परेशान हैं. भ्रष्टाचार पर कितनी लगाम लगाई जा सकी है. बैंक बेहाल क्यों हो रहे हैं. बड़े लोग करोड़ो का कर्ज लेकर कैसे विदेश फरार हो रहे हैं. बैंकों आदि के सेवा शुल्क बढ़ाकर आप कैशलेस को कैसे बढ़ावा दे रहे हैं. जनता को सिर्फ नारा चाहिए कि धरातल पर काम भी चाहिए. सरकार और एक खास पार्टी को प्रचार-प्रसार में कितना खर्च करना चाहिए. भ्रष्ट और दूसरे पार्टी को अपनी पार्टी में लेकर उसे पवित्र घोषित कर देते हैं और जो नहीं मिलता उसे किसी न किसी केस में फंसा देते हैं. जनता ही असली निर्णायक है, बशर्ते कि उसे लगे कि सही विकल्प सामने है. जय लोकतंत्र! जय जनता जनार्दन! जय भारत! जय हिन्द!
-    जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.      

Saturday, 10 March 2018

इच्छा मृत्यु यानी ‘लिविंग विल’ पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर

इच्छा मृत्यु यानी लिविंग विल पर सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ ने फैसला सुनाया है. कोर्ट ने लिविंग विल में पैसिव यूथेनेशिया को इजाजत दी है. संविधान पीठ ने इसके लिए सुरक्षा उपायों के लिए गाइड लाइन की है. पैसिव यूथेनेशिया और लिविंग विल को लेकर संवैधानिक पीठ ने अपने ५३८ पेज के फैसले में विस्तार से बताया है. सुप्रीम कोर्ट ने ०९.०२.२०१८ को ये भी साफ कर दिया कि आपात स्थिति या बेहद ज़रूरी नाजुक हालत में जब मरीज़ की हालत बेहद गम्भीर खतरे में हो तभी चिकित्सा उपकरण हटाने के लिए सहमति ली जाए.
लिविंग विल की प्रक्रिया
·         कोई भी बालिग व्यक्ति जो दिमागी रूप से स्वस्थ हो, अपनी बात को रखने में सक्षम हो और इस विल के नतीजे को जानता हो, यह विल लिख सकता है.
·         वही व्यक्ति यह विल कर सकता है जो बिना किसी दबाव, किसी मजबूरी और बिना किसी प्रभाव के हो.
·         व्यक्ति को लिविंग विल को लेकर यह बताना होगा कि किस स्थिति में मेडिकल ट्रीटमेंट बंद किया जाए. यह ब्यौरा व्यक्ति को लिखित में देना होगा ताकि जीवन और मौत के बीच दर्द, लाचारी और पीड़ा लंबी न खिंचे एवं मौत गरिमाहीन ढंग से न हो.
·         यह भी लिखा होना चहिए कि लिविंग विल को लिखने वाले को नतीजा पता हो और अभिभावक और संबंधी का नाम लिखा हो. जब वह फैसला लेने की स्थिति में न हो तो उसकी जगह पर कौन फैसला ले, उसका नाम लिखे.
·         किसी ने एक से ज्यादा लिविंग विल की हो तो आखिरी विल मान्य होगी. लिविंग विल को बनाते समय दो गवाहों की जरूरत होगी. ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट फर्स्ट क्लास के सामने ये लिविंग विल लिखी जाएगी.
लिविंग विल को लेकर कैसे होगी कार्यवाही
·         जब लिविंग विल लिखने वाला लाइलाज बीमारी का शिकार हो जाए तो घरवाले डॉक्टर को बताएंगे.
·         डॉक्टर इसको ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट से कन्फर्म करेंगे लिविंग विल वाले डाक्यूमेंट्स
·         जब डॉक्टर को यह भरोसा हो जाएगा कि अब यह व्यक्ति ठीक नहीं हो सकता और वह केवल लाइफ सपोर्ट पर ही जीवित रहेगा तब मेडिकल बोर्ड का गठन किया जाएगा.
·         मेडिकल बोर्ड में तीन फील्ड के एक्सपर्ट होंगे जो घरवालों से बातचीत कर यह तय करेंगे कि लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाया जाय या नहीं
·         बोर्ड अपने फैसले के बारे में इलाक़े के DM को सूचित करेंगे. DM फिर इसमें एक बोर्ड बनाएगा. तीन सदस्यीय बोर्ड का गठन होगा और फिर बोर्ड अपनी रिपोर्ट ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट को बताएगा. ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट रोगी के पास जाएगा और मुआयना करके घरवालों से बातचीत करेगा. इसमें यह पूछेगा कि लिविंग विल को लागू किया जाए या नहीं. मतलब कि यह फैसला माननीय न्यायधीशों ने बहुत ही सोच समझकर लिया होगा और इसे लागू करते समय काफी सावधानियां बरती जायेंगी.
महाभारत की कथा में एक जादुई तालाब के किनारे अपने अचेत पड़े चार भाइयों को देख रहे युधिष्ठिर से यक्ष ने पूछा था, सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है. युधिष्ठिर ने कहा, सबको मालूम है कि मृत्यु अवश्यंभावी है, लेकिन सब ऐसे जीते हैं जैसे मृत्यु आनी ही नहीं है. हमारी मृत्यु जन्म के साथ ही पैदा होती है, उसके पहले कोई मृत्यु नहीं होती, जीवन इस मृत्यु को पीछे धकेलता जाता है, जन्मदिन की बधाई इस बात की बधाई है, यह बात गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने तब कही थी जब उनसे किसी ने पूछा कि जन्मदिन की बधाई क्यों, उम्र तो एक साल घट गई.
मौत से आप बच नहीं सकते. बुद्ध ने अपने बचपन में ही समझ लिया था कि बीमारी आती है, बुढ़ापा आता है और मृत्यु आती है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों के संविधान पीठ ने जब इच्छा मृत्यु पर कुछ शर्तों के साथ मुहर लगाई तो दरअसल वे जीवन और मृत्यु के दार्शनिक संबंध या मृत्यु की अपरिहार्यता पर ही नहीं, उस सामाजिक संकट पर भी ध्यान दे रहे थे जो हमारे समाज में वृद्धों के अकेलेपन और बीमारी से पैदा हुआ है. बूढ़ा या बीमार होना अभिशाप नहीं है, अकेला होना कहीं ज़्यादा बड़ा अभिशाप है. आप अकेले होते हैं तो बुढ़ापा कहीं ज़्यादा तेज़ी से आपका पीछा करता है. बीमारी कहीं ज़्यादा जल्दी आपको घेरती है. यह सच है कि हमारे पुराने समयों में भी ऐसे बुज़ुर्ग रहे जो घरों की उपेक्षा झेलते रहे- अकेले कोनों में बीमार पड़े रहे, लेकिन इच्छामृत्यु जैसे खयाल ने उनको नहीं घेरा. भारतीय समाज में यह एक नई परिघटना है- ऐसे बुजुर्ग बढ़ रहे हैं जिनको अपने लिए यह इच्छामृत्यु चाहिए. निस्संदेह एक गरिमापूर्ण जीवन के गरिमापूर्ण अंत की कामना से ही यह ज़रूरत उपजी है.
अरुणा शानबाग के जिस मामले से यह सारा प्रसंग इतना बड़ा हुआ, उसका एक और सबक है. 42 साल तक कोमा में रही अरुणा शानबाग के लिए इच्छामृत्यु की मांग वे लोग करते रहे जो उन्हें बाहर से देखते रहे. इसका विरोध उन लोगों ने किया जो उनकी देखभाल करती थीं. किंग एडवर्ड कॉलेज मुंबई की वे नर्सें अपनी एक सोई-खोई सहेली को रोज बहुत एहतियात से संभाल न रही होतीं तो वह 42 साल इस हाल में नहीं बचती. इन नर्सों ने कहा कि वे जब तक संभव होगा, अरुणा शानबाग को ज़िंदा रखेंगी. एक अपराध ने अगर अरुणा शानबाग को हमेशा-हमेशा के लिए कोमा में भेज दिया तो कुछ लोगों के सरोकार ने उनके लिए जीवन की लड़ाई लड़ी. उनके जीवन को गरिमापूर्ण बनाया. अदालत ने भी इस सरोकार का सम्मान किया था, तब परोक्ष इच्छामृत्यु के अपने फ़ैसले की छाया 40 बरस से सोई एक बेख़बर काया पर नहीं पड़ने दी थी.
दरअसल जीवन का मूल्य इसी में है. हम जितना अपने लिए जीते हैं, उतना ही दूसरों के लिए भी. दूसरों से हमारा जीवन है, हम दूसरों के जीवन से हैं. लेकिन नए समय के दबाव सबको अकेला कर रहे हैं. परिवार टूटे हुए हैं, बच्चे परिवारों से दूर हैं, मां-पिता अकेले हैं, टोले-मोहल्ले ख़त्म हो गए हैं, फ्लैटों में कटते जीवन के बीच बढ़ता बुढ़ापा एक लाइलाज बीमारी में बदलता जाता है. एक बहुत बारीक मगर क्रूर प्रक्रिया में हम सब जैसे भागीदार होते चलते हैं.
इच्छा मृत्यु इसी क्रूर प्रक्रिया से निकलने की एक लंबी आख़िरी सांस जैसी गली है. सुप्रीम कोर्ट अगर यह गली न खोलता तो वे हताशाएं और बड़ी होती जातीं जो हमारे समय में ऐसे विकल्पों को भी आजमाए जाने लायक बनाती हैं. शायद यह फ़ैसला कुछ लोगों को याद दिलाए कि उनके अपने इतने अकेले और हताश न छूट जाएं कि अपनी मृत्यु के लिए अपना मेडिकल बोर्ड बनवाने लगें. यह बहुत सदाशय कामना है, लेकिन ऐसी ही कामनाओं के बीच जीवन की सुंदरता और सहजता बचती भी है.
संभावना और डर इस बात का है कि इस कानून का लोग गलत फायदा न उठाने लगे. ऐसे ही आज आधुनिक समाज में सामाजिकता और पारिवारिक रिश्तों की अहमियत कम या कहें धीरे-धीरे ख़त्म होती जा रही है. घर में बूढ़े बुजुर्ग के प्रति सेवा भाव ऐसे ही कम होता जा रहा है. बुढ़ापे में अनगिनत लाइलाज बिमारियों में सबसे बड़ी बीमारी है मशीनी युग में मानवीय संवेदना का अभाव या सिकुड़ते वक्त का तकाजा. बहुत सारे बुजुर्ग अपनी संपत्ति को अपने हाथ में बचाकर रखते हैं ताकि उस संपत्ति की लालच में उसकी संतान अंतिम समय तक सेवा करते रहेंगे. आज इस प्रकार की सेवा के लिए नर्स या परिचारक उपलब्ध हैं और वे अच्छी तरह से सेवा करना भी जानते हैं. पर बड़े बुजुर्ग जो अंतिम घड़ी में चाहते हैं हैं, अपनों का अपने आस पास में उपस्थिति और सेवा भाव, मीठे बोल और सद्व्यवहार जिसकी दिन प्रति दिन कमी होती जा रही है. उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारा भारतीय समाज अत्यंत ही कठिन परिस्थतियों में इस निर्णय को क्रियान्वित करेगा. हमारा दर्शन है जबतक सांस तब तक आस. बड़े बुजुर्ग उस बड़े बूढ़े वृक्ष की भाँती हैं जो फल नहीं देने की स्थिति में छाया तो दे ही सकते हैं. बड़े बुजुर्गों का आशीर्वाद ही हमारे लिए छाया है, वरदहस्त है. जय श्री राम के साथ में हम लोग अंतिम यात्रा में यही तो कहते हैं कि राम नाम सत्य है... अर्थात मृत्यु ही अंतिम सत्य है.
जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.