पैसा - जीने के लिए ‘पैसा’ जरूरी है. ‘जीवन’ के लिए ‘प्यार’
जरूरी है, प्यार के बाद कुछ ‘पावर’ तो चाहिए ही और ‘पावर’ मिलते ही ‘प्रसिद्ध’
भी होना चाहते हैं. यह ‘प्रसिद्धि’ भी ‘परिस्थितयों’ पर बहुत हद तक निर्भर करता
है. ‘पावर’ और ‘प्रसिद्धि’ के मार्ग में हम पाप-पुण्य का हिशाब नहीं करते! कौन
क्या कर लेगा? कानून हमारी मुट्ठी में है, कभी-कभी यह दृष्टिगोचर भी होता है, कहीं-कहीं कानून अपना काम करता है, जहाँ कोई सामर्थ्यवान का सहारा नहीं होता. ‘सत्यमेव
जयते’ जैसे वाक्य केवल शोभा बढ़ाते है हमारे धर्मग्रंथों का.
पैसा मतलब धन. धन जरूरी है रोटी के लिए, कपड़ा के लिए और
मकान के लिए जो हर आदमी की मूल-भूत आवश्यकता होती है. अब मूल-भूत आवश्यकता में और
भी चीजें जुड़ गयी हैं, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, संचार के माध्यम, परिवहन के तरीके, बिजली, पानी और
सड़क. ये सब आवश्यकतायेँ बिना पैसे के पूरी नहीं हो सकती. पर पैसा आये कहाँ से ? पैसे के लिए
मिहनत करनी होती है, कमाई करनी होती है. हमारा श्रम बिकता है. उसकी कीमत अलग-अलग
खरीददार लगाते हैं, जो मांग और आपूर्ति के अनुसार बदलता रहता है. हम मजबूरी-वश
कहीं-न-कहीं समझौता तो करते ही हैं. बिना समझौता के जीना मुश्किल है आज के माहौल
में... नहीं?. अब यह समझौता कितना नैतिक और कितना अनैतिक होता है, कितना तर्क-संगत
होता है, कितना लालच या मजबूरी-वश... अभी हम उस निर्णय तक नहीं पहुँच पाए हैं.
पैसा कमाने के लिए आपके पास ‘हुनर’ भी तो होना चाहिए ‘हुनर’
में प्राथमिक जरूरत है शिक्षा और निपुणता. इसके लिए भी पैसे की ही जरूरत होती है.
सम्भवत: यह जरूरत हमारे
माता-पिता/अभिभावक पूरा करते हैं. थोड़ी बहुत सरकार या स्वयं सेवी संस्थाएं भी मदद
करती है. तब हम जाकर एक प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर पाते हैं. प्राथमिक शिक्षा के
बाद ही कार्यकुशलता की जरूरत होती है, जिसे हम विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी
संस्थानों के माध्यम से प्राप्त कर लेते हैं. कही पर सचमुच कार्यकुशलता हासिल होती
है, तो कहीं कहीं पर उसका प्रमाण पत्र. आजकल प्रमाण-पत्र भी तो प्रचुर मात्रा में
उपलब्ध हैं. बस आपके पास पैसा होना चाहिए. यानी पैसे से सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ
खरीदा जा सकता है.
चलिए मान लिया आप किसी काम के लायक बन गए और आपको आपकी
योग्यता के अनुसार काम भी मिल गया ... अभी आपको खाने पहनने भर का ही पैसा मिलता
है. घर किराये पर मिल जाता है, हैसियत के मुताबिक.
नौकरी या रोजगार में स्थापित होने के बाद आपको लोग चाहने
लगते हैं, क्योंकि प्यार
में पैसा है पैसे से प्यार है. आपको भी पैसे से प्यार होने लगता है. आप चाहते
हैं ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना ताकि कुछ भविष्य के लिए बचा सकें, बैंक में जमा रकम में दायीं
तरफ शून्य बढ़ा सकें. अपने घर वालों को कुछ मदद पहुंचा सकें, छोटों की
आवश्यकता की पूर्ति कर सकें, क्योंकि आपको भी किसी ने यहाँ तक पहुँचाने में योगदान किया
है. चलिए आप एक काम के आदमी बन गए. आपसे लोगों को प्यार होने लगा. अब आपको भी
प्यार की जरूरत महसूस होगी. यह जरूरत शारीरिक और मानसिक दोनों तरह की होती है.
अब आपकी जिंदगी में होगा किसी अनजाने का प्रवेश ... बढ़ेगी
धड़कन! आप साझा करना चाहेंगे अपने मन की बात को, भावना को, धड़कन को ... कोई तो हो,
जो आपको समझ सके. यानी आपकी अपनी गृहस्थी शुरू... तब आपके हाथ संकुचित होने लगेंगे
और एक तरफ ज्यादा झुकने लगेंगे. यह सब स्वाभाविक प्रक्रिया है. पर परिवार के बाकी
लोगों ने अभी आपसे आशाएं नहीं छोड़ी है. आपकी आवश्यकताएं बढ़ेंगी और आप अधिक मिहनत
करना चाहेंगे ताकि आश्यकता की पूर्ति हो, चाहे आप एक हाथ से कमाएं या दोनों हाथों
से. फिर आपको एक वाहन की आवश्यकता महसूस
होगी उसके बाद एक घर की.
चलिए आप इस काबिल बन गए कि आपने एक वाहन भी खरीद लिया और
मासिक किश्त के आधार पर एक घर भी खरीद ली. पर यहीं पर आपकी इच्छा का अंत नहीं होता
आपको अब जरूरत महसूस होती है कि लोग आपको जाने यानी कि आपको प्रसिद्धि भी
चाहिए. यह प्रसिद्धि ऐसे तो नहीं मिलती? जब तक आप किसी की
मदद नहीं करेंगे, सामाजिक कार्यों में रूचि नहीं लेंगे, आपको कोई भी कैसे
जानेगा? हो सकता है आप किसी
सामाजिक संस्था से जुड़ जाएँ या खुद ही एक संस्था खोल लें और लोगों को जोड़ने शुरू
कर दें. कहा भी है न परोपकाराय इदं शरीरं. यानी यह शरीर परोपकार के लिए ही
बना है और परोपकार से बड़ा कोई दूसरा धर्म भी नहीं है. “परहित सरिस धरम नहीं भाई”
– तुलसीदास ने भी तो यही कहा है न! चलिए
आप परोपकारी बन गए. आपका लोग गुणगान करने लगे.
किसी की मदद के लिए भी तो चाहिए पैसा और पावर ...पैसा और
पावर दोनों का अद्भुत मिलान होता है. इसे रासायनिक बंधन भी कह सकते हैं. इस बंधन में
जाने-अनजाने कई क्रिया और प्रतिक्रिया होती है. इस क्रिया प्रतिक्रिया में अवस्था
और अवयवों को भूल जाते हैं, हमें मतलब होता है सिर्फ परिणाम से! परिणाम हमेशा
ईच्छित नहीं भी होते है. तब हम चलते हैं विभिन्न प्रकार के चाल, करते हैं प्रयोग,
कभी घृणा, ईर्ष्या, प्रतिद्वंद्विता और यह जल्द समाप्त नहीं होती. यह जीवन पर्यंत
चलनेवाली प्रक्रिया का अभिन्न अंग है. और फिर याद आते हैं तुलसीदास ... नही कोउ
जग जन्मा अस नाही, प्रभुता पाई जाहि मद नाही...
और समरथ को नहीं दोष गोंसाई
कौन है जो मुझपर उंगली उठाएगा? यह अहम ही तो मनुष्य को खा
जाता है, नहीं? अनेकों
उदाहरण है. अहम को मारना आसान भी नहीं है. पैसा और पावर साथ हो तो मनुष्य
सामर्थ्यवान हो ही जाता है. सामर्थ्यवान होने से अहम होना स्वाभाविक है नहीं तो
तुलसीदास ऐसे ही थोड़े न लिखते! प्रभुता भाई जाहि मद नाही
ईर्ष्या भाव भी तो होता है हम मनुष्यों में, ईर्ष्या यानी
जलन जो दूसरों के साथ स्वयं को भी जलाती है. प्रतिस्पर्धा अलग चीज है पर ईर्ष्या
...यह औरों के साथ खुद को भी ले डूबती है.
एक और चीज है परिस्थिति हर आदमी परिस्थितियों
का गुलाम होता है. परिस्थिति ही उसे अपनी उंगली पर नचाती है. कहते हैं न उनकी
ईच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता. परिस्थितयां ही आदमी को नायक
बना देती है तो कभी खलनायक! परिस्थितियां किसी को मुख्य मंत्री बना देती है तो
किसी को प्रधान मंत्री और कोई रह जाते हैं, प्रधान मंत्री पद के लिए प्रतीक्षारत!
परिस्थितियां किसी को जेल के अन्दर डालकर रखती है तो कभी उसे बेल(BAIL) यानी जमानत
देकर ‘बेल’(BELL) यानी घंटी बजाते हुए बाहर निकाल देती है. वही आदमी जो जेल के
अन्दर bail का इंतज़ार कर रहा था, अब bail मिलने के बाद सहस्त्र bell (घंटी) के साथ
जेल भिजवाने वाले पर हमला करने का मौका दे देती है. जो ब्यक्ति संगीन आरोपों के
कारण जेल में दिन, महीने और साल गिन रहा था, आज जेल से बाहर निकलकर, हर कानून को
ठोकर मारता हुआ, गर्व से शेर की तरह दहाड़ता हुआ, कानून को अपने शिकंजे के अन्दर कर
लेता है. बल्कि उसके साथ हजारों लोग कानून की खिल्ली उड़ाते हुए जनता को यह बतलाता दिखता
है – “कानून तुम जैसे कीड़े-मकोड़ों के लिए है हमारे लिए नहीं.” अब चाहे जो कह लो,
सत्यमेव जयते या असत्यमेव जयते. न्याय देवी के माथे पर पट्टी बंधी है. वह देख नहीं
सकती देखना भी नहीं चाहिए, नहीं तो बहुत दुख होता गांधारी की तरह! यही है हमारा
देश, समाज, संसार और भवसागर! जय महाकाल! जय देवाधिदेव! शिवरूप कल्याण स्वरुप महादेव
..अपना त्रिनेत्र सम्हालकर रखिये बहुत जरूरत है उसकी ....उचित समय पर ही खोलियेगा.
जय शिवशंकर! ॐ नम: शिवाय!
- - जवाहर लाल सिंह,
जमशेदपुर.
लिंक करने के लिए हार्दिक आभार हर्षवर्धन साहब!
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