Saturday, 14 May 2016

भेदभाव को जड़ से मिटाना होगा

19 फरवरी 2012 को डिसेबल और एक्टीविस्ट जीजा घोष कोलकाता से गोवा एक कांफ्रेंस में हिस्सा लेने जा रही थीं। वे स्पाइस जेट के विमान में सवार हुईं लेकिन उड़ान भरने से पहले उन्हें विमान से उतार दिया गया। बाद में उन्हें पता चला कि कैप्टन ने डिसेबल होने की वजह से उन्हें विमान से उतारने के निर्देश दिए थे। इसकी वजह से वे कांफ्रेंस में भाग नहीं ले पाईं और उन्हें मानसिक रूप से आघात पहुंचा।
देश भर में निःशक्त (डिसएबल्ड) लोगों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने गहरी चिंता जाहिर की है। सुप्रीम कोर्ट ने 2012 में एक निःशक्त कार्यकर्ता को विमान से नीचे उतारने के मामले में स्पाइस जेट को दो माह में दस लाख रुपये का मुआवजा देने के आदेश दिया है।

सुप्रीम कोर्ट ने अमेरिकी किताब ‘NO PITY’ का जिक्र किया, जिसमें कहा गया है कि ‘Non disabled Americans don’t understand disable ones’, (वह अमेरिकन जो निःशक्त नहीं है, किसी निःशक्त व्यक्ति की समस्या को नहीं समझ सकता।) लेकिन यह बात पूरी दुनिया पर लागू होती है। हिंदी में भी कहावत है – जाके पैर न फटे बिवाई, सो क्या जाने पीड़ पराई । भारत में निःशक्त लोगों को लेकर कई कानून हैं और कई मानवाधिकार संस्थाएं काम कर रही हैं, लेकिन अब भी इसको लेकर काफी सुधार की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि डिसेबल लोगों को भी वही अधिकार हैं जो सामान्य लोगों को हैं, लेकिन ज्यादातर सामान्य लोगों को लगता है कि वे बोझ हैं और कुछ कर नहीं सकते। जबकि हकीकत यह है कि निःशक्त होने के बावजूद वे अपनी जिंदगी जीते हैं और किसी पर बोझ नहीं बनते। उन्हें भी आम लोगों की तरह अपना जीवन गौरवपूर्ण तरीके से जीने का हक है। जीजा घोष इसी का उदाहरण हैं कि डिसेबल होते हुए भी वे एक्टीविस्ट के तौर पर काम कर रही हैं।
स्पाइसजेट ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी थी कि जीजा ने नियमों का पालन नहीं किया था। टिकट बुकिंग के वक्त ही यात्री को बताना चाहिए कि वह डिसेबल है लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि वैसे तो डिसेबल के लिए कमेटी ने अपनी सिफारिशें दी हैं लेकिन कोर्ट को लगता है कि इसमें सुधार की जरूरत है। कोर्ट की राय है कि सरकार को सभी हवाई अड्डों पर निःशक्त लोगों के लिए तमाम आधुनिक और स्टेंडर्ड सामान लगाना चाहिए। इसके अलावा व्हील चेयर को विमान के भीतर भी जाने की अनुमति मिलनी चाहिए। इसके अलावा क्रू को भी सही ट्रेनिंग देनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद पत्रकारों ने जब जीजा घोष से संपर्क किया और उसकी प्रतिक्रिया जाननी चाही – तो जीजा घोष का यही कहना था कि – जिन्दगी में कठिनाइयाँ आती हैं, पर उन कठिनाइयों का सामना करना चाहिए, उनपर विजय प्राप्त करने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। किसी भी हालत में हार नहीं माननी चाहिए। यह सबक है उन सभी लोगों के लिए जो छोटी-मोटी कठिनाइयों से हार मान जाते हैं और आत्म-हत्या जैसा कायराना कदम उठा लेते हैं।
ऐसे बहुत सारे उदाहरण है – जिनमे नृत्यांगना सोनल मान सिंह, सुधा चंद्रन, संगीतकार रविंदर जैन (जो देख नहीं सकते) प्रमुख है। इन्होने अपनी कमजोरी को कभी जाहिर ही नहीं होने दिया। राष्ट्रीय स्तर की वोलीबाल खिलाड़ी अरुणिमा सिन्हा को कुछ लुटेरों ने ट्रेन से नीचे फेंक दिया था, जिसके चलते उसका एक पैर नकली लगाया गया फिर भी उसने २१ मई २०१३ को एवरेस्ट फतह कर ली। पिछले साल UPSC की परीक्षा में विकलांग इरा सिंघल ने टॉप किया था। कहा जाता है कि वैज्ञानिक आइन्स्टीन मी मानसिक रूप से मंद बुद्धि ही थे।
तात्पर्य यही है कि बहुत सारे मानसिक या शारीरिक विकलांग लोग कई क्षेत्रों में ख्याति अर्जित कर चुके हैं। हमारा समाज उन्हें उपेक्षित नज़रों से देखता है, जो किसी भी तरह से जायज नहीं है। हमारे प्रधान मंत्री श्री मोदी ने हाल ही में कहा है कि जो भी अशक्त लोग हैं उनमे एक विशेष प्रतिभा होती है, इसीलिए उन्होंने अशक्तों/विकलांगों को नया नाम दिया – दिव्यांग!
हमारे समाज में भेदभाव की भी पुरानी परंपरा रही है। जाति, लिंग, धर्म, भाषा, रंग, कर्म, क्षेत्र आदि के नाम पर भेदभाव किया जाता रहा है। शिक्षित और विकसित जगहों में ये भेदभाव कम हुए हैं। विभिन्न सामाजिक/राजनीतिक स्तर पर भी इनपर समय-समय पर सुधार के प्रयास किये गए हैं, पर कुछेक तत्व बीच-बीच ऐसे मुद्दे उभार देते हैं। इसे किसी भी तरीके से सही नहीं ठहराया जा सकता है।
हम सबको प्रकृति ने समान अवसर प्रदान किये हैं, फिर भी किसी कारण वश हम प्रकृति का पूरा लाभ नहीं ले पाते, कभी आकस्मिक दुर्घटना/ बीमारी के शिकार होकर असामान्य स्थिति में पहुँच जाते हैं। कुछ लोग विकलांग ही पैदा भी होते हैं, पर इसं सबमे उनका अपना दोष क्या है, जिन्हें हम भेदभाव या हीन नजरों से देखते हैं। एक बात और सोचने समझने वाली है हमारी पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं हैं, पर जब ये आपस में मिल जाती हैं तो मुट्ठी बन जाती हैं और तब इनमे ज्यादा ताकत आ जाती है। उसी प्रकार हमारे समाज में विभिन्न तबके के लोग हैं जिनसे मिलकर ही हमारा समाज समृद्ध बनता है। हमारे अपने शरीर में ही विभिन्न प्रकार के अंग हैं और सबका अपना अलग महत्व है। परिवार में भी कोई सदस्य कमजोर होता है। हमारे माता पिता भी वृद्धावस्था में कमजोर हो जाते । उन्हें भी सहारे की जरूरत होती है, शारीरिक के साथ साथ मानसिक रूप से भी।
महिलाओं को सबसे पहले कमजोर समझा गया और उन्हें दबाकर रखने का हर संभव प्रयास हुआ, पर आज देखिये उन सफल महिलाओं को जो हर क्षेत्र में अपना परचम लहरा रही हैं। रंग के आधार पर भी बहुत बार भेदभाव होता रहा है। गोरे लोग काले लोगों को पसंद नहीं करते। अब जरा सोचिये दिन के उजाले में हम सारा उपयोगी काम करते हैं, पर आराम से सोने के लिए अंधेरी काली रात ही चाहिये। कर्म के आधार पर विभिन्न जातियों का सृजन हुआ, पर सबका अपना अपना अलग महत्व है. सभी जातियों से मिलकर ही एक सम्पूर्ण समाज बनता है, नहीं? भाषा और बोलियाँ भी हमारी अपनी-अपनी पहचान है। अलग-अलग क्षेत्र, समतल मैदान, खेत, नदियाँ, पहाड़, जंगल, उपवन सबकुछ हमारी जरूरत के हिशाब से ही बने और बनाये गए हैं। इसके अलावा एक और भेद इधर विकसित हुआ है। वह है राष्ट्र-भक्ति का भाव। निश्चित ही हम सबके अन्दर राष्ट्र और मातृभूमि के प्रति प्रेम होना चाहिए। प्रेम प्रदर्शन करने का तरीका अलग अलग हो सकता है। पर एक ख़ास तरीका जो एक वर्ग, समुदाय कहे वही बेहतर या सर्वश्रेष्ठ है, उस पर बहस और विचार विमर्श की गुंजाईश है। हमारे विचार अलग अलग हो सकते हैं। हमारी मान्यताएं भी अलग अलग हो सकती हैं, पर सबका उद्देश्य एक ही होना चाहिए। वह है मानव प्रेम, देशप्रेम और वसुधैव कुटुम्बकम का भाव, विश्व बंधुत्व का भाव, सर्वे भवन्तु सुखिन: का भाव, भाईचारा और आपसी प्रेम का भाव।
अगर कोई कमजोर है, अशक्त है उसे हमारी मदद की जरूरत है तो मदद की जानी चाहिए. बच्चे को गोद में उठाने के लिए माँ को झुकना पड़ता है. उसी तरह निशक्तों, दलितों, पिछड़ों को उठाने के लिए हमें थोड़ा सा त्याग करना होगा। नियम-कानून हैं, पर हमारे अन्दर वह भाव भी होने चाहिए। अंत में एक मशहूर गीत की पंक्तियाँ – तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो. तुमको अपने आप ही सहारा मिल जाएगा.
- जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.

2 comments:

  1. बहुत सही कहा

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय हर्ष वर्धन जी!

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