Friday, 24 May 2013

बिजली मिस्त्री की कहानी


मई का महीना, जेठ की दुपहरी
पारा जब चालीस से पैन्तालीश के बीच रहता है
धरती जलती और सूरज तपता है.
एक दिहारी मजदूर बिजली के टावर पर
जूते दस्ताने और हेलमेट पहन
क्या खटाखट चढ़ता है.
सेफ्टी बेल्ट के एक हुक को
ऊपर के पट्टी में फंसाता
दूसरे हुक को खोलता,
ऊपर और ऊपर चढ़ता है
“अरे क्या सूर्य से टकराएगा?
सम्पाती की तरह खुद को झुलसायेगा ?”
वह मुस्कुराता
अपने साथियों को इशारे से समझाता
अलुमिनियम के तारों को
रस्सों के सहारे ऊपर खींचता
पोर्सीलीन के इन्सुलेटर में फंसाता
नट बोल्ट और पाने के सहारे मजबूती से कसता
नीचे खड़ा सुपरवाईजर देता कुछ निर्देश
मजदूर भी मुस्कुरा कर आता पेश
पेट की आग से ज्यादा नहीं यह गर्म सूरज
यह मजदूर है मिहनत का मूरत
आपके घरों में बिजली बत्ती जल सके
पंखे कूलर और ए.सी. चल सके
आप पी सकें फ्रिज का ठंढा पानी
ए सभी है बिजली रानी की मेहरबानी
एक मिनट को अगर बिजली गुल हो जाती है
गर्मी में हमें नानी याद आ जाती है
पर बिजली जो हमारे घरों तक आती है
क्या इन मजदूरों को सकूं दे पाती है
वे तो कुछ रुपयों के सहारे
अपने परिवार के संग
अँधेरे में ही रहता है.
गर्म हवा के झोंकों से पसीने जब सूखते हैं
वाह! क्या शीतलता का अनुभव करता है!

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