Saturday, 16 March 2013
दो भाई ! – दूसरी किश्त!
पिछले भाग से आगे )
इसी तरह दिन गुजरते गए और फसल पकने का समय हो आया. इस साल अच्छी फसल हुई थी. महाजन को उसका हिस्सा देने के बाद भी भुवन के घर में काफी अनाज बच गए थे. खाने भर अनाज घर में रखकर बाकी अनाज उसने ब्यापारी को बिक्री कर दिए. जब पैसे हाथ में आते हैं तो आवश्यकता भी महसूस होती है. अभी तक वे दोनों भाई ठंढे के दिन में भी चादर और गुदरी(लेवा – पुराने कपड़ो को तह लगा सी देने से मोटा ‘लेवा’ बन जाता है) में गुजारा कर लेते थे. पर इस साल उन दोनों ने दो रजाईयां बनवाई. कुछ नए कपड़े भी बनवाए! ..एक और जरूरत की चीज महसूस हो रही थी, वह थी, खेतों की सिंचाई के लिए ‘पम्प सेट’ की. अभी तक पारंपरिक तरीके से जैसे रहट, लाठा, मोट (चमरे का बड़ा सा थैला नुमा साधन जिससे एक बार में काफी पानी कुंए से निकाला जा सकता है), आदि से ही सिंचाई करता था. यह सब साधन सार्वजनिक होने के कारण उन लोगों को अगर दिन में मौका नहीं मिलता तो रात में ही अपने खेतों की सिंचाई करते! अब चूंकि कुछ पैसे हाथ में हैं, कुछ महाजन से मांगकर, एक तीन हॉर्स पॉवर का पम्पसेट, जो किरासन तेल या डीजल से चलता था खरीद लिया. दूसरे साल उसने ज्यादा जमीन में खेती की,इस तरह और ज्यादा पैदावार भी हुई.
गाँव के अन्य किसान जिनकी अपनी जमीन थी, वे भी उतना पैदावार नहीं कर पाते थे, जितना इन दो भाइयों की मिहनत पर भगवान् की कृपा होती!
इसी तरह इन दोनों भाइयों की मिहनत रंग लाती गयी और एक समय ऐसा आया, जब ये लोग दूसरों के खेती की ही पैदावार से अपने लिए कुछ जमीन भी खरीदना शुरू कर दिया.
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कुछ महीनों बाद चंदर को एक लड़का हुआ और भुवन को मात्र एक ही लडकी थी! गाँव के लोग ताना कसते – “क्या हो भुवन! इतना काम किसके लिए कर रहे हो? बेटा तो है नहीं, कौन वारिश बनेगा तुम्हारी संपत्ति का?”
“मेरा बेटा नहीं है, तो का हुआ चन्दर का तो है, वही मेरा बेटा है, वही मेरे मुख में आग देगा.” भुवन का यही जवाब होता. लोग आश्चर्यचकित होते इन दोनों भाइयों के परस्पर प्रेम पर!
गौरी गोरी तो थी ही सुन्दर भी थी. खेतों में काम करने के बावजूद भी उसके रंग में और लालिमा बढ़ जाती थी, जब वह अपने फसल को लहलहाती देखती! कोशिला भी उसे दीदी, दीदी कहते नहीं थकती!
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चंदर का लड़का प्रदीप स्कूल जाने लगा था. वे दोनों भाई उसे इंजीनियर बनाना चाहते थे! ………खैर ईश्वर की महिमा कुछ ऐसी हुई कि प्रदीप इंजिनियर बनने की स्थिति में पहुँच गया था. इधर गाँव के सेठ (सबसे बड़े खेतिहर) जी, जिनकी तीन बेटियां ही थी, बृद्धावस्था की तरफ बढ़ रहे थे. उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति(खेत) अपने तीनो बेटियों को बराबर बराबर हिस्से में बाँट दिया. तीनो दामाद सर्विस करते थे और उनकी अपनी भी खेती-बारी थी. सो यहाँ के जमीन को उनलोगों ने धीरे धीरे बेचना शुरू कर दिया और खरीददार यही दोनों भाई बन गए. …….इस तरह कुछ सालों बाद भुवन और चंदर गाँव के सबसे बड़े आदमी बन गए. इनका मिट्टी का मकान पक्के मकान में बदल गया. गाँव का सबसे बड़ा खलिहान और फसल का ढेर इन्ही लोगो का होता. इनके पास कृषि के सभी आधुनिक मशीन थे और अब वे किसी से कम नहीं थे. फिर भी उन्होंने कभी भी मिहनत से जी न चुराया न ही किसी के साथ बेईमानी की!
पर अपने हक़ के लिए या किसी के वाजिब हक़ के लिए ये कभी भी पीछे हटने वाले न थे!
एक रात एक चोर उनके घर में घुसा और कीमती सामान चुराकर भागने लगा. तभी इन दोनों की नींद खुल गयी … वे चोरों का पीछा करने लगे…. चोरों ने गोली भी चलायी…. पर ये कहाँ डरने वाले थे ….अंत में चोरों ने सारा सामान फेंक, नदी में कूद अपनी जान बचाई! गाँव के बाकी लोग भी पीछे पीछे थे और इनके बहादुरी की प्रशंशा करने लगे. इनकी मिहनत की कमाई चोर भी न ले जा सके!
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एक दिन जाड़े के समय लोग अलाव के पास बैठे अपने शरीर को गर्म कर रहे थे और आपस में कुछ बातें भी कर रहे थे.
हरखू – “हमलोग को इतना ठंढा लग रहा है, पर भुवनवा को देखे हैं?… एगो हाफ कुरता पहने खेतों को पानी पटा रहा है!”
महेन्दर- “गजब जीवट का आदमी है, एगो बेटी है, उसी के लिए इतना मर रहा है!”
धनपत- “अरे वो तो अपने भतीजे को ही अपना बेटा माने हुए है. कहता है-यही मेरा बेटा है!”
हरखू- “कौन जानता है ऊ बेटी भी उसका है कि नहीं, सब दिन तो हीरा चचा के साथ दलाने पर सोता है!”
बाकी लोगों के हंसने की बारी थी!
“और देखे हैं न, हीरा चचा रजाई ओढ़ते हैं और ई वहीं पर एगो चादर (दोहर) ओढ़े हुए पुआल में घुसा रहता है!
“हाँ भाई, लगता है, ठंढा भी उससे डरता है!”
“पैसा का गर्मी है न! ठंढा कैसे लगेगा!”
“बुरबक, जब पैसा नहीं था, तब भी तो वह वैसे ही सोता था.”
इन बातों की चर्चा हो ही रही थी कि चंदर भी अलाव के पास आ धमका और अपने भींगे हाथ को सुखाने की कोशिश करने लगा!
अंतिम एक दो वाक्य से उसे मतलब निकालने में देर न लगी ..
“का बोल रहा रे घोंचू, एही आग में झोंक देंगे अगर आगे एक बात भी बोला तो…
“जब पैसा नहीं था, तो मांगने गए थे तुम्हारे दरवाजे पर!…
“हम जो तकलीफ झेले हैं, तुम्ही को पता है?…
सभी लोग अपनी अपनी नजरें बचाने लगे
हरखू ने ही बात को सम्हालने की कोशिश की- “नहीं भाई, चंदर! हम तो तुम्हारे भाई की तारीफ ही कर रहे थे…इतना ठंढा में भी बेचारा पानी पटा रहा है …लगता है तुम भी वहीं से आ रहे हो!”
चंदर- “हाँ, भैया के कामों में हाथ बंटा रहा था …अब वे भी आएंगे, ही थोड़ा और लकड़ी डालिए. वे भी थोड़ा गरम हो लेंगे … ठंढा तो हइये है, लेकिन क्या करेंगे. अभी पटा लेते हैं. तो कल शुबह मसूरी(मसूर) काटने भी तो जाना है! मसूर भी पक के तैयार है, नहीं काटेंगे तो खेते में रह जाएगा!”
थोड़ी ही देर में भुवन भी वहां आ गया और अपना हाथ सेंकते हुए कहने लगा – “चंदर, मुसहरी(मजदूरों का टोला) में गया था? चार पांच आदमी होने से जल्दी जल्दी मसुरी काट कर ले आयेंगे.”
“हाँ भैया, बोल दिए हैं”
अलाव अब बुझने पर थी और सभी लोग धीरे धीरे अपने घरों की तरफ खिसक लिए!
क्रमश:)
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