Sunday, 25 January 2015

दिल्ली का दंगल ...



दिल्ली का दंगल! हस्तिनापुर का धर्मयुद्ध !
दिल्ली का चुनाव दिन प्रतिदिन रोचक होता जा रहा है, नेताओं के बयान और मीडिया का चटखारे लेकर परिचर्चा करना भी उनकी मजबूरी है. दोनों पक्षों को पुचकारना, ललकारना, भी इन्हे खूब आता है. रोज नित नए-नए सर्वे आ रहे हैं, उनमे भाजपा की सरकार को पूर्ण बहुमत से बनता हुआ दिखलाया जा रहा है. जहाँ केजरीवाल मुख्य मंत्री के लिए पहली पसंद माने जा रहे हैं, वहीं कैजरीवाल और किरण बेदी दोनों को अपनी सीट से हारते हुए भी दिखलाया जा रहा है. ओपिनियन पोल सैंपल सर्वे होता है और उसके आधार पर एक अनुमान भर लगाया जा सकता है. अंतिम सत्य तो नतीजे आने के बाद ही पता चलेंगे. लोगों के ओपिनियन भी रोज बदलती रहती है. पिछली बार यानी लोक सभा के चुनाव के समय चाणक्य टी वी चैनेल का सर्वे सबसे ज्यादा सटीक पाया गया था, इस बार वह अभी तक मेरी जानकारी में नहीं दीख रहा है. राजनीतिक पंडित अपनी अपनी तरह से सधी हुई प्रतिक्रिया दे रहे हैं. यह भी सुना गया है कि अपनी स्वतंत्र राय रखने के कारण कुछ जाने माने पत्रकारों को अपनी नौकरी भी गँवानी पड़ रही है. बेबाकीपन सही है, पर हर न्यूज़ चैनेल का एक मालिक होता है, उसकी विचारधारा और समय के साथ अपना हित-साधन भी होता है. सत्ता की भूख हर एक को होती है, वहीं सत्ता की चरण वंदना प्रासंगिक भी होता है.
अब आते हैं बुजुर्ग शांति भूषण के बयान पर- उनका अपना ८८ साल का अनुभव है. कानूनविद हैं, इंदिरा गांधी के खिलाफ राजनारायण को अदालत में जिताने वाले वही महापुरुष है. आज उन्हें अपने ही आँगन का पौधा(आम आदमी पार्टी का मुखिया) ख़राब लगने लगा हैं. वह भी कब? जब फसल पकने वाली है तब. ऐसी क्या मजबूरी हो गयी बुजुर्ग महोदय की, कि अपनी पार्टी का संयोजक और सबसे लोकप्रिय नेता ही उनको नागवार लगने लगा और दूसरी पार्टी में अभी-अभी शामिल हुई बेटी(बेदी) अच्छी लगने लगी. अन्ना बेचारे अपने दोनों प्रिय शिष्यों से नाराज होकर फिर से आंदोलन की राह पर आने की बात करने लगे हैं. माननीय शांति भूषण की बात सही हो सकती है, पर जिस समय उन्होंने अपना विचार, वह भी मीडिया के समक्ष रक्खा, केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को नुक्सान ही पहुंचाने वाली कही जाएगी. क्या उनसे कोई राय मशविरा नहीं लेता था, या वे भी लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे किनारे लगा दिए गए थे. ऐसा कहना जरा मुश्किल है, क्योंकि उन्होंने पार्टी को दो करोड़ रुपये का चंदा दिया है. पार्टी को बनाने और खड़ी करने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है. जहाँ केजरीवाल एक भिखारी से पांच रुपये चंदा लेकर सभाओं में चर्चा करते हैं. वहां दो करोड़ माने रखता है. कहीं शांति भूषण जी को अपना पैसा डूबता हुआ तो नहीं लग रहा है. खैर उनकी वे जाने पर जिस पार्टी को उन्होंने खड़ा किया उसको इस तरह प्रतिकूल समय में झकझोड़ने की क्रिया मेरी समझ से परे लग रही है. या तो उनको पहले ही हिदायत देनी चाहिए थी या फिर यह बयान पहले ही देना चाहिए था. अगर उनकी बात न सुनी जाती हो, तो गलती केजरीवाल और उनके सहयोगियों की हो सकती है. वैसे केजरीवाल की सभाओं में भीड़ और विरोध दोनों जारी है. अब ७ और 10 फरवरी की बारी है. देखना यही है कि कौन कितना भारी है.
दूसरी तरफ मोदी और अमित शाह तो चन्द्रगुप्त और चाणक्य की जोड़ी बनकर भारत विजय पर निकल चुके हैं, जहाँ उन्हें हर कदम पर सफलता मिल रही है. उनकी दूरदृष्टि, और राजनीतिक कौशल सराहनीय तो है ही. अगर जनता और देश के हित में अच्छा होता है तो उससे बढ़कर और क्या होना चाहिए. काफी दिनों बाद एक परिवर्तन की लहर चली है और अभी तक वह लहर अपने अस्तित्व में है.
मेरी राय में जितनी आवश्यकता इस देश को मोदी जैसे कर्मठ प्रधान सेवक की है, उतनी ही जरूरत केजरीवाल जैसे लोगों की भी है. एक सशक्त विपक्ष का होना भी लोकतंत्र के लिए जरूरी होता है, अन्यथा शासक तानाशाह हो जाता है. अब भाजपा का यह कहना कि राज्य और केंद्र में एक पार्टी की सरकार होने से ही जनता का फायदा होता है, यह बात बेमानी है. एक समय ऐसा भी था जब अधिकतर राज्यों में और केंद्र में कांग्रेस की ही सरकारें हुआ करती थी. तब क्या असंतोष नहीं था. वैसे दिल्ली अमित शाह और मोदी जी का नाक का सवाल है तो केजरीवाल के लिए अस्तित्व का सवाल. राजनीति में कुछ गलतियों की सजा काफी दिनों तक भोगनी परती है.केजरीवाल की गलती, नितीश कुमार की भयंकर भूलें उन्हें चैन से सोने नहीं देगी. चाहे जो हो, कुछ तो बात है केजरीवाल में जिसे हराने के लिए महाभारत के पात्र अभिमन्यु, कर्ण और दुर्योधन से तुलना भी की जाने लगी है.
आज जब मतदान का प्रतिशत बढ़ रहा है, जनता की भागीदारी बढ़ रही है, लोग जागरूक हो रहे हैं , इसका मतलब है कि लोकतंत्र अपने पूर्ण अस्तित्व में है. ऐसे में अमरीका जैसे बड़े लोकतान्त्रिक और शक्तिशाली देश के प्रधान (राष्ट्रपति) का भारत की गणतंत्र दिवश समारोह में मुख्य अतिथि बनकर आना दोनों देशों के लिए फायदेवाली बात होगी. एक तरफ आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई है, तो दूसरी तरफ ब्यावसायिक सहयोग दोनों देशों के संबंधों को मजबूत करेगा. लेकिन बेचारे ओबामा अचानक परिवर्तित कार्यक्रम के अनुसार प्रेम का प्रतीक ताजमहल को नहीं देख पायेंगे. पिछली बार भी हुमायूँ का मकबरा देखकर संतोष करना पड़ा था, इस बार सऊदी अरब का दौरा 
फिर भी उनकी अभूतपूर्व सुरक्षा ब्यवस्था, अनगिनत सी. सी. टी. वी. कैमरे, भारतीय सुरक्षा कर्मी, सेना के अलावा ओबामा का अपना सुरक्षा घेरा भी कारगर होगा, जिसके अनुसार हर भारतीय सेना के जवान की भी तलाशी ली जायेगी. हमारे भारतीय सेना की स्थिति ऐसी भी हो सकती है …किसी ने सोचा था क्या ? सभी प्रदर्शित किये जानेवाले सामरिक आयुध में कहीं भी गोला बारूद नहीं होगा. अभूतपूर्व होगा वह नजारा जब भारतीय राष्ट्रपति महामहिम प्रणव मुखर्जी के साथ अमरीकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा के साथ भारत के प्रधान सेवक श्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी मजबूत सुरक्षा घेरे में एक बुलेटप्रूफ कांच के दीवार के सामने से भारत के राजपथ पर गणतंत्र दिवश का भव्य समारोह देख रहे होंगे.
अभीतक के समाचारों के अनुसार ओबामा और मोदी का इंदिरागांधी अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर गले गले मिलना, राजघाट पर पीपल का पौधा रोपण, श्रद्धांजलि, बापू की मूर्ती और चरखा का भेंट, राष्ट्रपति भवन में २१ तोपों की सलामी से स्वागत, हैदराबाद हाउस के लॉन में चाय पर चर्चा और न्युक्लीअर डील की सारे बाधाएं दूर होना, सबकुछ सराहनीय है. भारत और अमेरिका के बीच नए और मजबूत संबंधों की शुरुआत हुई है. दोनों देश आतंकवाद और पर्यावरण संरक्षण पर भी मिलकर काम करेंगे. 
अब चूंकि बसंतपंचमी के आगमन के साथ ज्यादातर हिन्दू, युवक-युवतियां, छात्र-छात्राएं, सरस्वती वंदना में मशगूल हैं, कुछ लोग ओबामा की ही वंदना कर रहे हैं. कुछ लोग ओबामा को कुरुक्षेत्र के इस युद्ध में ओबामा को कृष्णावतार से भी जोड़कर देख रहे हैं. सरस्वती पूजा के दौरान बहुत सारी बच्चियां, किशोरियां, पीत परिधान में, साड़ी सम्हालती हुई, सकुचाती, मुस्काती नजर आती हैं. ऐसे समय में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान की शुरुआत प्रधान मंत्री के द्वारा वह भी हरियाणा के पानीपत से. कुछ लोग इसे पानीपत के चौथी लड़ाई से भी जोड़कर देख रहे हैं. बेटियां सुरक्षित हो, शिक्षित हों, तभी तो वह एक अच्छी बहन, बहू और माँ बनेंगी. धन्य है हमारी मातृभूमि, पुण्यसलिला, सस्य श्यामला. यह धरती माँ … इन्हे बार बार नमन! जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी.
- जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर

Monday, 19 January 2015

एक प्रशासक का राजनीति में आना



कांग्रेस नीत संप्रग सरकार के दो कार्यकाल अर्थात लगातार दस साल तक प्रधान मंत्री की कुर्शी सम्हालानेवाले डॉ. मनमोहन सिंह एक प्रशासक थे. वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने कई आर्थिक सुधर करवाये, जो अनवरत जारी है. पर वे एक अच्छे राजनेता नहीं बन सके. कभी भी इलेक्शन यानी चुनाव नहीं लड़ा. हमेशा राज्य सभा के सदस्य के रूप में ही रहे. उनकी राजनीतिक नेतृत्व की अक्षमता का दंश आज कांग्रेस झेल रही है.
जसवंत सिंह भी योजना आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में प्रशासनिक अधिकारी ही थे. भाजपा सरकार में वित्त मंत्री, गृह मंत्री और रक्षा मंत्रालय को भी सम्हाला पर गांधार और जिन्ना का जिन्न उन्हें ले डूबा. वैसे वे कठोर निर्णय लेनेवाले अधिकारी और नेता के रूप में पहचाने गए. पर राजनीतिक कौशल में पिछड़ गए और भाजपा से अलग होकर चुनाव हार गए.
यशवंत सिन्हा भी भारतीय प्रशासनिक सेवा में विभिन्न पदों से होते हुए रौल बैक वाले वित्त मंत्री के रूप में जाने जाते हैं. भाजपा में अब वे हाशिये पर हैं. उनके पुत्र जयंत सिन्हा वित्त राज्य मंत्री का कार्य भार सम्हाल रहे हैं. झाड़खंड के मुख्य मंत्री के दौड़ में इनका भी नाम लिया जा रहा था, पर पिछड़ गए वित्त मंत्रालय का ही कार्य-भार ठीक है. डॉ. अजय कुमार जमशेदपुर के तेज तर्रार और लोकप्रिय पुलिस अधीक्षक थे. पर राजनीतिक कारणों से त्याग पत्र देकर उद्योग घराने में भी अपनी प्रशासनिक सेवा का लाभ दिया. फिर वे झाड़खंड विकास मोर्चा के टिकट पर लोक सभा चुनाव जीता और अपने क्षेत्र का समुचित विकास भी किया, पर मोदी लहर में २०१४ में पुन: सांसद नहीं बन पाए. उन्हें काफी दुःख हुआ और ऊहापोह की स्थिति में कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली. इस बार उनको विधान सभा के लिए भी कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया और थोड़े समय के लिए प्रवक्ता बना दिया. वह भी उस समय जब पाकिस्तानी जहाज भारतीय सीमा का अतिक्रमण कर रहा था और भारतीय कोस्ट गार्ड ने उसे विफल कर, स्वयं को ध्वस्त करने पर मजबूर कर दिया…. ऐसे समय में डॉ. अजय कुमार का कांग्रेस प्रवक्ता के रूप में, उनका बयान किसी को अच्छा न लगा. उनकी अच्छी-खासी फजीहत हो गयी.
इसके अलावा लोक सभा मीरा कुमार, कांग्रेस नेता अजित जोगी, पी एल पुनिया, पूर्व गृह सचिव आर के सिंह, सेवामुक्त जनरल वी के सिंह आदि आदि….अनेकों नाम है जो अच्छे प्रशासक तो जरूर रहे हैं, पर राजनेता के रूप बहुत अच्छा नहीं कर सके, ऐसा मेरा मानना है.
अरविन्द केजरीवाल भी अभी तक सफल राजनेता नहीं बन सके. अब उन्हें अपनी पुरानी मित्र और सहयोगी तेज-तर्रार पूर्व और पहली महिला आई. पी. एस. किरण बेदी से ही भिड़ना पड़ेगा. दोनों मैग्सेसे अवार्ड से सम्मानित, प्रशासनिक सेवा से त्यागपत्र देकर समाज सेवा के रास्ते, अन्ना आन्दोलन में साथ रहते हुए, अलग-अलग हो गए. केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाकर, दिल्ली विधान सभा की २८ सीटें जीतकर धमाका कर दिया, वहीं किरण बेदी दूर खड़ी केजरीवाल को स्वाभाविक ईर्ष्याजनित भाव से देखती हुई, उनकी आलोचना करते-करते भाजपा और नरेंद्र मोदी के करीब आती चली गयी और अब भाजपा का दामन थामकर अरविन्द केजरीवाल को टक्कर देने के लिए मैदान में उतर चुकी है. दिल्ली की संभावित मुख्य मंत्री के रूप में अपनी प्राथमिकतायें भी तय करने लगी हैं. केजरीवाल के साथ दिल्ली की असहाय जनता है, तो किरण के साथ भाजपा के साथ-साथ उनका दिल्ली की पुलिस सेवाकाल का जुझाडू अनुभव. दोनों की छवि अभीतक ईमानदार और बेदाग है. ऐसे में दिल्ली की जनता के दोनों हाथ में लड्डू है. अगर आम आदमी पार्टी के बहुमत नंबर आते हैं तो केजरीवाल पूर्व निर्धारित मुख्य मंत्री होंगे, जबकि भाजपा के बहुमत के नंबर मिलने पर फैसला भाजपा के शीर्ष नेताओं पर निर्भर करेगा. वैसे यह मुकाबला बड़ा रोमांचक होनेवाला है. किरण बेदी के बाद शाजिया इल्मी भाजपा में योगदान दे चुकी हैं और बिनोद कुमार बिन्नी भी भाजपा में शामिल हो चुके हैं. ये सभी भाजपा के टिकट से अरविन्द केजरीवाल यानी आआप के खिलाफ चुनाव लड़कर भाजपा में अपना सुरक्षित भविष्य देख रहे हैं क्योंकि अभी देश में भाजपा की लहर है. किरण बेदी तो मोदी को सूर्य और अपने को सितारा मान चुकी हैं. अब वह अपनी किरण से किसको रोशन करती हैं और किसको वंचित रखती हैं वह तो उन्ही पर निर्भर करता है जैसा कि रविवार की चाय पार्टी में डॉ. हर्षवर्धन एक मिनट विलम्ब के कारण किरण की चाय से वंचित रह गए. बेचारे डॉ. हर्षवर्धन पिछली बार इसी तरह दिल्ली का मुख्या मंत्री बनते बनाते विपक्ष का नेता बनकर रह गए इस बार भी उन्हें चांस नहीं मिला किरण ही झटक रही हैं और अभी से इन स्थापित नेताओं को झटका मार रही है आगे का तो इनको रोशनी प्रदाता मोदी जी ही जानें. 
कुमार बिस्वास सक्रिय राजनीति से बाहर हो गए हैं पर उनका नैतिक समर्थन आम आदमी पार्टी की तरफ है. वे अपनी कविता के बहाने किरण बेदी और शाजिया इल्मी पर निशाना साध रहे हैं. भाजपा के साथ पूरा ब्यावसायिक घराना, मीडिया, और अब तक के उनके क्रिया कलाप का प्रभाव है, जिसका प्रतिफल हरियाणा, महाराष्ट्र, झाड़खंड, जम्मू व कश्मीर के चुनाव परिणाम बता रहे हैं. उनके पास मोदी जैसी शक्शियत और अमित शाह जैसे चाणक्य हैं. बहुत सारे राजनीतिक पण्डित किरण बेदी को दिल्ली की भावी मुख्यमंत्री के रूप में देखने लगे हैं तो कुछ लोग भाजपा के अब तक के क्रिया कलाप पर ज्यादा संतुष्ट नजर नहीं लग रहे. अब यह तो १० फरवरी का चुनाव परिणाम ही बताएगा कि सत्ता किसके हाथ आती है, पर जीत तो दिल्ली की जनता की ही होगी क्योंकि सत्ता पक्ष और विपक्ष हर हाल में तगड़ा होगा.
वैसे भी चुनाव भी एक जंग की तरह है, जो कौशल से ही जीते जाते रहे हैं. श्री राम के साथ अगर विभीषण न ए होते तो रावण को मारना श्रीराम के लिए असान न होता. पांडवों के साथ श्रीकृष्ण की कूटनीति न होती तो धर्मराज युधिष्ठिर विजयी न होते. अज के युग में भी बहुत सरे युद्ध या कहें छद्मयुद्ध ही लड़े जाते रहे हैं. और कहते हैं न राजनीति, युद्ध और प्यार में सब जायज है. तो हमलोगों को इंतज़ार करना है १० फरवरी का. भारतीय लोकतंत्र की गहराई का और जनता के फैसले का, मोदी जी और अमित शाह की कूटनीति कौशलका, अरविन्द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, योगेन्द्र यादव के ईमानदार प्रयास का.
महात्मा गाँधी ने अंग्रेजों से भारत को आजाद करवाया पर जीत तो नेहरु और जिन्ना की ही हुई थी. लोकनायक जयप्रकाश के आन्दोलन के बाद मोरारजी भाई और चौधरी चरण सिंह आमने सामने थे. अब अन्ना आन्दोलन के दो प्रमुख आमने सामने हैं. यही तो भारतीय लोकतंत्र की खासियत है. अटल बिहारी बाजपेयी ने भी कहा था मैं रहूँ या न रहूँ देश और देश का लोकतंत्र रहना चाहिए. राजनीति में उलटफेर होते रहते हैं. कभी जवाहर लाल नेहरु फिर इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी, वी. पी, सिंह, अटल बिहारी बाजपेयी, डॉ. मनमोहन सिंह और अब श्री नरेंद्र मोदी इसी भारतभूमि की उपज हैं. हमें गर्व करना चाहिए अपनी मातृभूमि पर जिसने एक से एक होनहार पूत पैदा किये हैं. जय हिन्द! जय भारत!

- जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर